AULAD

                                                     
   # औलाद
                                नालायक बेटी 
                          
         विधि की माँ सुरेखा जी आज फिर से अकेले में रोते हुए अपने आप को ही जैसे दोषी ठहरा रही थी, कि " मेरी ही परवरिश में कोई कमी रह गई होगी, जो मुझे आज ये दिन देखने को मिल रहा है, क्या कभी कोई बेटी अपनी माँ से ऐसी बातें करती है ? कि " पापा के बदले तू मर जाती तो अच्छा होता ? " वह भी राखी के कुछ दिन पहले ही। पता नहीं क्या कमी रह गई थी, मेरे प्यार में ? "
         तभी सुरेखा जी की बहु नमिता सुरेखा जी के कमरें में उन्हें चुपके से रोता हुआ देख लेती है और उनके पास जाकर सुरेखा जी को दिलासा देते हुए कहती है, कि " आप फिर से उन्हीं सब बातों को लेकर रोने लग गई ? इस बात को गुज़रे 4 साल हो गए, जो होना था, वह हो गया, आप बार-बार अपने आप को दोषी मत ठहराया करिए, अगर विधि ऐसी थी, उस में आप की कोई गलती नहीं है, या समझलो, कि पिछले जन्म का कोई क़र्ज़ या कोई लेन-देन आप दोनों का और आप के बेटे का आपकी बेटी विधि के साथ बाकी रह गया होगा, जो इस जन्म में पूरा हो गया। आप अगर ऐसे ही रोती रहेगी, तो फिर से आपका बी.पि हाई हो जाएगा, आप को नींद नहीं आएगी और आपकी तबियत फिर से बिगड़ जाएगी और आप को तो पता ही है, कि अगर आपके बेटे निशांत को पता चला की आप अब भी उसे लेकर परेशान और दुखी हो रहे है, तो उनका भी दिल टूट जाएगा। विधि ना सही, हम तो हैं, ना आप के साथ। चलो अब आपका मनपसंद हलवा बनाया है, निशांत भी ऑफिस से आते ही होंगे, साथ मिलके खाना खा लेते है, पुरानी बातों पे मिट्टी डालिए। 
      कहते हुए नमिता अपनी सास को समझा देती है।  लेकिन निशांत उस पल बाहर ही खड़ा था, उसने माँ और नियति के बीच की बात सुन ली थी, फिर भी निशांत ने बात को अनसुना कर " नियति तुम कहाँ हो ? आज बहुत भूख लगी है, जल्दी से खाना दे दो। " कहते हुए अपना ब्लू सूट और टाई निकालते हुए अपने कमरें में फ्रेश होने चला जाता है, नियति रसोई में खाने की तैयारी में लग जाती है, कुछ देर बाद सब साथ में खाना खाते है। 
         कुछ दिनों बाद फिर से रक्षा बंधन का त्यौहार आ रहा था, इस बार फिर से बहन होते हुए भी मेरे निशांत का हाथ राखी के बिना खाली रह जाएगा। ऐसा सोचते हुए  सुरेखा जी को अपनी बेटी, विधि की याद आने लगी, कैसे वह बचपन में हर रक्षाबंधन पे अपने मनपसंद कपड़े, अपने भाई के लिए राखी, मिठाई, चॉकलेट्स, केक सब कुछ अपनी पसंद का ही उसे चाहिए था, ऐसा नहीं सिर्फ राखी पे, दिवाली हो, होली हो, क्रिसमस हो, स्कूल का कोई फंक्शन हो, किसी के या अपने खुद के घर शादी हो, कहीं दोस्तों के साथ बाहर आना-जाना हो, उसे हर बार नए कपड़े, जूते, ज्वेलरी, मेक-अप का सामान, मोबाइल हो, पर्स हो या हेड-फ़ोन्स हो उसे हर बार सब कुछ नया ही चाहिए, उसका पूरा कमरा ढ़ेर सारे कपड़े, जूते, पर्स से भरा पड़ा रहता। उसे कितना भी समझाओ, डाँटों लेकिन आखिर में वह अपनी बात अपने पापा से मनवा ही लेती। उसके पापा भी उस से परेशान होकर उसको जो चाहिए, वह दे देते, शादी भी उसने ज़िद्द कर के अपने पसंद के लड़के से ही की। भगवान् से मैंने कितनी मन्नतें मांँगी, रोज़ उसी के लिए प्रार्थना करती, विधि को सद्बुद्धि दे, मगर उस में कोई फर्क नहीं था, वो जो बचपन से जैसी थी, वैसी ही आज भी है। झूठ भी बात-बात पे बोलती रहती। अगर कभी पकड़ी जाए, तो इलज़ाम अपने भाई पे या किसी और पे लगा लेती। 
    विधि की हर ज़िद्द पूरी करने में उसके पापा की आधी ज़िंदगी गुज़र गई और एक दिन अचानक उनको हार्ट-अटैक आ गया और वह चल बसे। उनका बिज़नेस अब उनके बेटे निशांत ने सँभाल लिया, निशांत बड़े अच्छे से बिज़नेस करता था, निशांत की तरक्की से भी विधि जलती थी। उस तरफ विधि के पति की मामूली नौकरी थी, सो वह उसके पति के साथ अब खुश नहीं थी, क्योंकि उसकी हर मांग, हर ज़िद्द को वह पूरा नहीं कर सकता था, दामाद तो अच्छा था, मगर विधि ही उस से किसी न किसी बात पर बार-बार झगड़ा करती रहती, फिर निशांत और विधि आकर कुछ पैसे विधि को दे जाया करते, ताकि वह दामाद जी को परेशान न करे और उसके साथ खुश रहे।लेकिन विधि को वह पैसे भी कभी-कभी कम पड़ते, हर तीज-त्यौहार पर भी उसे अपने मायके से महंँगा गिफ्ट चाहिए। 
        विधि ने एक दिन तो हद्द ही कर दी, अपने भाई और माँ के पास उसने घर, बिज़नेस और माँ के गहनों में आधा हिस्सा मांँग लिया, कहते हुए कि " पापा की यही आख़री इच्छा या मर्ज़ी थी, ऐसा उन्होंने मेरे घर आकर कहाँ था। " जब की ऐसी कोई बात विधि के पापा ने विधि को कभी नहीं कही थी। साथ में सुनाया, कि आज अगर पापा ज़िंदा होते तो, वह मुझे ख़ुशी-ख़ुशी ये सब दे देते, मुझे बार-बार निशांत के सामने पैसो के लिए हाथ फैलाना नहीं पड़ता और अपने हक़ के लिए यूँ लड़ना नहीं पड़ता। जबकि पापा के जाने बाद निशांत ने भाई होकर भी पापा का हर फ़र्ज़ निभाया, उसकी हर बात, हर मांँग को उसने पूरा किया, उसको एक घर भी दिलाया, उसके बच्चों की स्कूल फीस भी भर देता, उसके लिए कितना भी करो, उसे कम ही पड़ता, कभी अपने भाई-भाभी और माँ के लिए वह अच्छा नहीं सोचती या कहती, सब के घर जाकर अपने भाई और माँ की बुराई करती फिरती, कि पापा के जाने के बाद ये लोग मुझे बुलाते नहीं और कुछ देते भी नहीं। अब आज के ज़माने में कौन इतना करता है, अपनी बहन के लिए ? हर कोई अपने बीवी-बच्चों के बारे में भी तो सोचेगा, ही ना ! लेकिन क्या करे, विधि की अक्कल पे तो पत्थर पड़े हुए थे। भगवान् जब अक्कल दे रहे थे, तब ये शायद ब्यूटी-पार्लर में अपना मुँह चमका रही होगी। नालायक और बद-दिमाग कहिकी !
      निशांत बहुत समझदार था, वह भी अपनी बहन के खर्चे और माँगो और तानों से परेशान हो गया था, निशांत ने अपनी माँ और नियति को समझाया, कि " उसे जो भी चाहिए, वह दे देते है, वह कुछ भी मानने वाली नहीं। पैसा चाहिए, तो दे देते है, मैं अब तक मेहनत करता आया हूँ, आगे और ज़्यादा मेहनत कर लूंँगा, मुझे सिर्फ़ माँ आपका और पापा का आशीर्वाद चाहिए, आप हमारे साथ हो तो मुझे कोई फिक्र नहीं। भगवान् ने चाहा, तो मैं और कमा लूंँगा, लेकिन अब मुझे इस विधि के साथ कोई रिश्ता नहीं रखना है, मैं परेशान हो गया हूँ। " 
       निशांत की माँ को भी यह बात ठीक ही लगी, तो निशांत ने विधि को पहले ही समझा दिया, कि " अगर उसे पैसे चाहिए तो हम से आज के बाद कोई रिश्ता नहीं रहेगा।" फिर भी विधि पैसो के लिए रिश्ता तोड़ ने के लिए तैयार हो गई।  
        सुरेखा जी ने भी मान लिया, कि ऐसी बेटी होने से तो बेटी ना हो वही सही। आज के बाद मेरा एक ही बेटा है, वह है, निशांत।  फिर भी माँ का दिल है, कभी-कभी बीती बातें-बीती यादें याद आ ही जाती है।  
       तो दोस्तों, आख़िर निशांत का फैसला सही था या गलत ? माँ या बाप कभी भी अपने बच्चों को बुरे संस्कार नहीं देते, मगर कुछ बच्चें ही ऐसे होते है, कि लाख समझाने पर भी अपने माँ-बाप की बात नाहीं उनके पल्ले पड़ती है और नाहीं वह उनकी बात मानते है, तब उनको अपने हाल पे छोड़ देने में ही समझदारी है। क्या करे, कुछ फैसले हमें ना चाहने पर भी लेने पड़ते है,  ताकि हम अपनी ज़िंदगी में खुश और वह अपनी ज़िंदगी में ख़ुश रह सके। 

स्व-रचित 
नालायक बेटी 
# औलाद 
Bela... 
        
 

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