PYAR YAA SWABHIMAAN

                 # स्वाभिमान 

                                   प्यार या स्वाभिमान 

           आज मैं उसी स्कूल के करीब से गुज़र रहा था, जहाँ से आराध्या के साथ मेरी ज़िंदगी की शुरुआत हुई थी। बीते हुए वह लम्हें जिसे हम चाहकर भी कभी भुला नहीं पाते और मैं खुद भी उस पल कुछ देर के लिए वहीं रुक गया और उन बीते किताब के पन्नों को फ़िर से एक बार पढ़ने लगा, जैसे कि उन बीते हुए लम्हों को एक बार फ़िर से जीने लगा। 

        हाँ, मेरा नाम अविनाश। आज भी मुझे याद है, " आराध्या उस दिन  सफ़ेद कुर्ता पहने, कानो में लम्बे झुमके, एक हाथ में घड़ी और दूसरे हाथों में बुक्स, काले घने उसके घुँघराले बाल, उसी के नरम गालों को जैसे बार-बार छूने की कोशिश कर रहे थे और मैं यहीं से अपनी साइकिल से उसे लाइब्रेरी से बाहर आते हुए देखता ही रह गया था। तब हम ८ वी कक्षा में एक ही क्लास में पढ़ते थे। हम दोनों पढाई में बहुत तेज़ थे, इसलिए टीचर क्लास में हम दोनों को ही सब से ज़्यादा एहमियत देते थे, प्रोजेक्ट भी हम दोनों साथ मिलके ही करते थे। पहले दोस्ती हुई फ़िर प्यार। 

       वही तो, आखिर एक लड़का और लड़की कब तक दोस्त बने रहेंगे, दोनों के बीच प्यार आ ही जाता है। माना की हम दोनों के ज़िंदगी जीने का तरीका, हमारी सोच, हमारा रेहन-सेहन सब कुछ अलग-अलग था। फ़िर भी देखो आप, " प्यार तो होना ही था "। हम दोनों ८ वी कक्षा से लेकर कॉलेज तक साथ ही थे, इसलिए हमारे सारे दोस्त हमसे जलते भी थे। हम दोनों ने ये तय किया था, कि हम पढ़ने में एक ही लाइन लेंगे, ताकि साथ मिलकर एकदूसरे के साथ वक़्त बीता  सके और साथ-साथ पढ़ भी सके। आराध्या डॉक्टर बनना चाहती थी और मैं कम्पूयर एंजीनियर। पता नहीं उस वक़्त मैंने उसकी बात क्यों मान ली ? मैं एंजीनियरींग छोड़कर डॉक्टर बनने के लिए भी तैयार हो गया, सच में मैं उसके प्यार में बिलकुल अँधा था। वो महलो में रहनेवाली, बड़े घर की बेटी और मैं साधारण सी सरकारी नौकरी करने वाले पिता की एक लौटी संतान। जिसने बड़ी उम्मीद से मुझे पढ़ाया, लिखाया, प्यार दिया, अपने पैरो पे खड़ा होने लायक बनाया। हम दोनों की दोस्ती इतने सालों से थी, तो हमारे घर वालों को भी पता था, कि हम दोनों अच्छे दोस्त है और आए दिन एक दूसरे के घर बिना किसी हिचक के किस न किसी बहाने जाया भी करते, कभी प्रोजेक्ट के बहाने, तो कभी बुक्स के बहाने, तो कभी बर्थडे पे, तो कभी पार्टी। एक दिन मेरे पापा किसी की शादी में गाँव गए हुए थे और आराध्या मेरे घर प्रोजेक्ट के लिए आई हुई थी, घर में हम दोनों के अलावा कोई नहीं था, बातों-बातों में हमने पहली और आख़री बार प्यार की सारी सीमा भुला दी, हम दोनों दो में से एक बन गए। उसके लिए हम दोनों में से किसी को इस बात का रंज नहीं था, ज़िंदगी उन दिनों कितनी खूबसूरत हुआ करती थी, सिर्फ प्यार और पढाई, दोनों साथ में। लेकिन कहते है, ना " ज़िंदगी में हम जो सोचते है, वह नहीं होता मगर हमारे साथ जो होता है, वह ज़िंदगी होती है। "  बस वैसे ही हमारी ज़िंदगी में भी एक मोड़ आया और हम दोनों अलग हो गए, इतने सालो का प्यार जैसे एक पल में बिखर गया। 

     मुझे आज भी याद है,

            हम ने साथ मिलकर डॉक्टरी की पढ़ाई तो पूरी की, मगर जितना आसान ये सब आराध्या के लिए था, उतना आसान मेरे लिए नहीं था।  क्योंकि डॉक्टरी की पढ़ाई के लिए पैसे भी बहुत लगते है, फ़िर भी मेरे पापा ने जैसे-तैसे करके मेरी ज़िद्द की बजह से, मुझे अच्छे कॉलेज में पढ़ाने के लिए पापा ने फीस का इंतेज़ाम कर ही लिया, मैं वो सब बात भी समज़ता था, मगर आरध्या इन सब बातों से परे थी,आराध्या बड़ी तो हो रही थी, मगर कई मामलो में अब भी वह बहुत नादान सी थी, वह दिमाग से नहीं, दिल से सोचती थी। मगर ज़िंदगी जीने के लिए कई बार दिल की नहीं दिमाग की बात सुननी पड़ती है। क्योंकि आराध्या अपने पापा की लाड़ली जो थी, बिना मांँगे ही उसे सब मिल जाता था, किसी बात के लिए या किसी चीज़ के लिए उसे इंतज़ार नहीं करना पड़ता। लेकिन अब मुझे डॉक्टरी ज़्यादा समझ नहीं आ रही थी और फ़िर भी मैंने आरध्या की मदद से डॉक्टरी की पढाई पूरी की, कुछ प्रोजेक्ट अगर मेरी समझ में नहीं आते, तो घर आकर वो मुझे आसानी से समझाया करती और मुझे कहती, " अरे बुद्धू ! डॉक्टरी समझ नहीं आती, तो क्यों कर रहे हो ? " कहते हुए आराध्या हँस पड़ती, पर मैं ही जानते था, कि डॉक्टरी मैंने उसी के लिए पसंद किया था। बात अब शुरू होती है, आराध्या को अब और आगे पढ़ने और डॉक्टरी करने के लिए अमेरिका जाना था और शायद वह वही रहना भी चाहती थी, ऐसा उसकी बातों से मुझे लगने लगा था। मगर अमेरिका जाने के लिए मेरे पापा के पास अभी उतने पैसे नहीं थे और उस तरफ़ आरध्या के एक बार कहने पर आरध्या के पापा ने उसका फॉर्म और फीस अमेरिका में भर भी दीया। तब 

      आराध्या ने मुझ से कहा, कि " तुम भी मेरे साथ अमेरिका चलो, साथ में अब भी आगे पढ़ लेंगे और वही डॉक्टरी भी साथ में कर लेंगे, ज़िंदगी आसान हो जाएगी। " 

       मैंने आराध्य से कहा, कि " तुमने तो बड़ी आसानी से कह दिया, कि अमेरिका चलते है, मगर मेरे पापा के पास इतने पैसे नहीं है, कि वो मेरे अमेरिका जाने के लिए इतना पैसा दे सके और इस के आगे भी डॉक्टरी की पढाई के लिए उन्होंने लोन ले रखी है, अब मैं उन पे और बोज नहीं डाल सकता, तुम तो हमारे घर के बारे में सब जानती ही हो, तो फ़िर तुमने यूँ अचनाक से अकेले ही ऐसे अमेरिका जाकर पढ़ने का और सेटल होने का फैसला कैसे कर लिया ?  तुमने मुझे बताया भी नहीं और अमेरिका कॉलेज में फॉर्म भी भर दिया। हम ने सालों पहले क्या तय किया था, वो तो तुम भूल ही गई, कि " हम साथ पढ़ेंगे, साथ ही काम करेंगे और साथ रहेंगे भी, ज़िंदगी का हर फैसला हम साथ मिलकर ही करेंगें । " तो अब क्या हुआ ? "

        तब आराध्या ने आसानी से कह दिया, कि " उस में क्या हुआ, मैंने अपने पापा को सिर्फ बताया, कि मैं अमेरिका जाके पढ़ना चाहती हूँ, तो उनका एक दोस्त का लड़का वही कॉलेज में पढता है, तो उन्होंने कहा, कि कॉलेज सच में बहुत अच्छी है और वह हमें हेल्प भी करेगा। इसलिए पापा ने तुरंत मेरा भी फॉर्म भर दिया। अगर तुम चाहो तो तुम्हारे लिए मैं अपने पापा से बात करुँगी, वो तुम्हारा भी फॉर्म और फीस भर देंगे, बात ख़तम। तुम चल रहे हो मेरे साथ, बाद की बाद में देख लेंगे। "

      कहते हुए आराध्या ने खड़े होते हुए मेरा हाथ खींचकर मुझे भी अपने साथ आने को राज़ी कराने लगी। उसे लगा, कि हर बार की तरह इस बार भी मैं उसकी ये बात भी आसानी से मान लूंँगा। लेकिन नहीं, मैंने उसका हाथ अपनी ओर खींचते हुए उसे रोका और उसे समझाते हुए कहा, कि देखो, आराध्या तुम्हारे पापा का दिल बहुत बड़ा है और वो मुझे कई सालो से जानते है, हमारी दोस्ती को जानते है, इसलिए शायद मना नहीं करेंगे, लेकिन मेरे पापा का क्या, उनका तो इस दुनिया में मेरे अलावा और कोई भी नहीं है। और वो ऐसे पैसे लेने से मना करेंगे। वह ऐसा बिलकुल नहीं चाहेंगे, कि मैं तुम्हारे पापा के दिए हुए पैसों से अमेरिका जाकर अपनी आगे की पढाई पूरी करूँ।  इस से तो उनकी अब तक की सारी मेहनत पे पानी फ़िर जाएगा, उनके आत्म-सम्मान को कितनी ठेश पहोचेगी ? और शायद मैं भी इस बात के लिए राज़ी नहीं हूँ। "

         उस वक़्त आराध्या ने फ़िर से मुझे मनाने की बहुत कोशिश करते हुए कहा, कि " मैंने तो जाने का फैसला कर लिया है और तुम भी मेरे साथ चलोगे, चाहे कुछ भी हो जाए, सिर्फ़ कुछ पैसो की ही तो बात है, तो बाद में तुम पैसे मेरे पापा को दे देना। बात ख़तम। लेकिन तुम मेरे साथ आ रहे हो। "     आराध्या को आज भी जैसे लग रहा था, की हर बार की तरह उसके पापा के जैसे इस बार भी मैं उसकी बात मान जाऊँगा।  

      मैंने कहा, बात सिर्फ पैसो की नहीं है, बात है, स्वाभिमान की, मैं या मेरे पापा ऐसा बिलकुल नहीं चाहेंगे। तुम बस बात समझ ने की कोशिश करो, मेरे लिए ये बहुत मुश्किल है। 

     उसके बाद आराध्या रोते हुए वहांँ से उठ के चली जाती है और कहती जाती है, कि "अच्छा तो तुम यहाँ रहो अपने पापा के पास और मैं चली अमेरिका, अपना सपना पूरा करने। यहाँ से आगे का सफ़र शायद अब मुझे अकेले ही तय करना होगा। "

       मैं भी मन ही मन बोला, कि " हाँ, मुझे भी शायद आगे का सफर अब अकेले ही तय करना होगा। " 

      कहते हुए हम दोनों एकदूसरे से अलग हो जाते है। उसे अपना सपना पूरा करना था और मुझे अपना और अपने पापा का स्वाभिमान बचाना था। मैंने प्यार और स्वाभिमान में से स्वाभिमान चुना और आराध्या ने अपना सपना पूरा करने के लिए हमारा इतने साल का प्यार भुला कर अमेरिका जाने के लिए अपने पापा के दोस्त के बेटे के साथ कुछ ही दिनों में शादी कर ली  और अमेरिका चली गई। 

      इस तरफ़ मैंने यहीं से आराध्या की तरह और आगे की अपनी डॉक्टरी की पढाई शुरू की मगर आराध्या के जाने के बाद मेरा नाहीं पढाई में मन लगा और नाहीं डॉक्टरी की पढाई मेरे पल्ले पड़ी। तब मैंने चाइल्ड साइकोलॉजी की पढाई की और अस्पताल में प्रैक्टिस के लिए लग गया। कुछ वक़्त के बाद पापा ने मेरे लिए अपने खुद का दवाख़ाना खोल दिया। भले ही यहाँ उसके जितना पैसा ना कमा पाउँगा, लेकिन  उस दिन मैं बहुत खुश था, कि चाहे मैं अमेरिका आराध्या के साथ ना जा सका, चाहे मैं एंजीनियर न बन पाया, मगर मेरा स्वाभिमान तो मेरे साथ रहा। क्योंकि आराध्या के ज़िंदगी जीने के तरीके से लगता था, कि शायद वह हर बात मुझ से मनवाती रहती और हर बार मेरे स्वाभिमान को ठेस पहोंचाती रहती, इसलिए मुझे अपने फैसले पर कोई शर्मिंदगी या अफ़्सोस नहीं और मेरे पापा मुझ पे बहुत गर्व करते है और आते-जाते सब को कहते रहते है, कि मेरा बेटा, डॉक्टर बन गया है, अब दवाई लेने उसके पास ही जाना और मुझे देखकर मुस्कुराते रहते, मैं उनको मुस्कुराता देख, अपने सारे ग़म भूलकर मुस्कुरा देता। बस यही मेरे लिए बहुत है। उस वक़्त मुझे पता नहीं था, कि " जो फैसला मैंने लिया था, वह सही था या ग़लत, कि प्यार और स्वाभिमान में से मैंने स्वाभिमान को चुना और प्यार को जाने दिया।  "

        लेकिन हाँ, ये बात भी सच है, कि आज भी अकेले में जब भी मैं अपनी आँखें बंद करता हूँ, तो मेरे सामने आराध्या का ही हँसता हुआ चेहरा नज़र आता है, आज भी उसकी खुशबु मैं महसूस करता हूँ, भले ही आराध्या जैसी भी हो या जैसी भी थी, प्यार तो मैंने उस से सच्चा किया था और उसी से करता रहूंँगा और अब उसके साथ बिताए पल को गले से लगाकर अपनी आगे की  ज़िंदगी भी गुज़ार लूँगा। 

          तभी मेरे मोबाइल पे पापा का फ़ोन आता है, मैंने अपनी पलक झपकाई, अपने आप को उसी स्कूल के सामने पाया, मगर आज फ़र्क सिर्फ़ इतना था, कि " उस दिन मैं साइकिल पे था और आज मैं अपनी कार में था, उस दिन लाइब्रेरी से आराध्या बाहर आई थी, आज मेरे टूटे दिल के सपने बाहर आ रहे थे। " मगर आज मुझे ये लग रहा है, कि उस वक़्त जो फैसला मैंने लिया था, वह शायद सही ही था। 

        और हाँ दोस्तों, एक बात और कहना चाहता हूँ, कि " आज इतने सालों बाद ये महसूस हुआ कि वो उम्र ही यारों ऐसी होती है, कि अगर हमें किसी से प्यार हो जाए या कोई हमें थोड़ा सा प्यार दे दे, तो हम उसके लिए अपनी जान तक देने को तैयार हो जाते है। तब हमें प्यार के अलावा और कुछ भी नहीं दीखता। लेकिन जब ज़िम्मेदारी का एहसास होता है, तब जाके पता चलता है, कि प्यार अपनी जगह ठीक और हम और ज़िम्मेदारी अपनी जगह होती है। ज़िंदगी जीने के लिए प्यार का होना बहुत ज़रूरी है, मगर सिर्फ प्यार के सहारे ही ज़िंदगी नहीं चलती, इस बात का एहसास हमें बहुत देर से होता है और जब तक इस बात का हमें एहसास होता है, तब तक ज़िंदगी हमारे हाथों से निकल जाती है। 

         तो दोस्तों, क्या आप बता सकते हो, कि अविनाश ने प्यार और स्वाभिमान में से स्वाभिमान को चुनकर फैसला सही किया या गलत ? और आप को ये कहानी कैसी लगी ? मेरी कहानी को like, share and comment ज़रूर कीजिएगा। 

स्व-रचित 

एवम मौलिक 

#स्वाभिमान 

Bela... 






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