कहानी घर घर की, कहानी हर घर की
सारांश
यह कहानी सिर्फ़ आपके और मेरे घर की या सिर्फ़ और सिर्फ़ आपकी या मेरी नहीं, लेकिन यह कहानी शायद हर घर की है, जिस घर में लोग साथ मिलकर रहते है, एक दूसरे से प्यार करते है, एक दूसरे की परवाह करते है, जिस घर में माँ बाप का मान सम्मान होता है, उनकी कद्र की जाती है, उनका कहा माना जाता है, उनको प्यार दिया जाता है, उनको वक्त दिया जाता है, जिस घर में किसी एक की तकलीफ़ सब की तकलीफ़ बन जाती है, जिस घर में एक का दुःख सब के लिए दुःख और एक की खुशी में सब खुश हो जाते है, छोटी छोटी बात को दिल पर ना लगाते हुए जहाँ सब मिल जुलकर रहते है, जहाँ औरत का सम्मान होता है, जिस घर में बच्चों को प्यार दिया जाता है, वहीं तो घर कहलाता है, चाहे कितने भी दिन कहीं भी घूम फिर के आओ, मगर आखिर में जहाँ आकर हम को सुकून मिलता है वह घर ही तो है।
तो दोस्तों, आप लोग सच में सोच रहे होंगे कि अगर ज़िंदगी सच में ऐसी ही हो, ज़िंदगी में कोई मुश्किल ही न हो, ज़िंदगी खुशियों से भरी हो, तो कितना अच्छा रहेगा, मगर दोस्तों ऐसा सच में नहीं होता। ज़िंदगी है, तो परेशानियां भी होगी ही, जैसे दुःख के बाद सुख और सुख के बाद दुःख यह ज़िंदगी का नियम ही है, इसलिए मेरी इन कहानियों में से कई कहानियाँ ज़िंदगी की सीख दिखला जाती है, ज़िंदगी से लड़ना सिखा जाती है।
वैसे देखा जाए तो दोस्तों, एक हाउस वाइफ, हर घर की शोभा होती है, अगर वह अपना हर काम प्यार से करे तो, घर इतना सुंदर और सुव्यवस्थित नज़र आने लगता है, कि जैसे उसकी किसी के साथ कोई तुलना ही नहीं की जा सकती।
2) एकदूजे के सहारे
एक दिन मैं हॉस्टल में मेरे दादाजी और दादीजी को याद कर अपनी सहेली प्रिया को उनके बारे में बता रही थी, कि " मेरे दादाजी और दादीजी दुनिया में सबसे प्यारे और सबसे अनोखे दादाजी और दादीजी है, उनकी love story बड़ी दिलचस्प है और वो दोनों भी।
मेरे दादाजी और दादी एक दूसरे से जितना लड़ते है, उस से कई ज़्यादा एक दूसरे से प्यार भी करते है, मेरे दादाजी को अब उनकी उम्र के हिसाब से थोड़ा ऊँचा सुनने की आदत है, इसलिए दादी को हर बात उनसे ज़ोर से कहनी पड़ती है। कभी दादाजी रूठते है, तो कभी दादी। उनके बिच नोकझोंक चलती ही रहती है, फिर भी शाम को दोनों साथ बैठकर ही खाना खाते और बरामदे में बैठ कर बातें किया करते।
मैं उनसे पूछती, कि " रोज़ रोज़ आप क्या बातें करते रहते है, तब वो बताते, कि पहले हम दोनों को बातें करने का वक़्त ही नहीं मिलता था, इसलिए जो बातें हम हमारी जवानी में नहीं कर पाए, वो अब कर लिया करते है और साथ-साथ कुछ पुरानी याद को भी ताज़ा कर लिया करते है, और तो क्या ! जब तू हमारी उम्र की होगी, तब तू भी यही करेगी, देख लेना । " और हम सब हँस पड़ते।
दादाजी को गुस्सा ज़रा जल्दी आ जाता है। कभी कभी दादाजी छोटी-छोटी बात पे बुरा भी मान जाया करते और दादीजी उनको मना लिया करती और कभी-कभी दादीजी को उनकी किसी बात का बुरा लग जाता तो, दादीजी दादाजी से बात ही नहीं करती, फिर दादाजी दादीजी को मनाते है, दोनों साथ में चाय-नास्ता करते, बाद में साथ मिलकर घर में कान्हाजी की सेवा पूजा करते और शाम को साथ में हमारे नज़दीकी नाना-नानी पार्क में चलने के लिए जाते, घर आकर खाना खा कर दोनों साथ में रेडियो पे पुराने गाने सुनते- सुनते बातें करते और एकदूसरे का हाथ पकड़कर सो जाते। "
फ़िर एक दिन दादीजी ने मुझ से कहा, कि मेरी दवाई ख़त्म हो गइ है, आज तुम कॉलेज से आते वक़्त मेरे लिए दवाई लेती आना। अगर तुम्हारे दादाजी को पता चला ना की मेरी दवाइयांँ ख़त्म हो गइ है, तो वो ख़ामखा ही परेशान हो जाएँगे और हांँ, साथ में थोड़े से पकोड़े भी लेती आना, बहुत मन कर रहा है खाने का।
मैंने कहा जी ज़रूर दादी, कहते हुए मैं कमरे से बाहर जा ही रही थी, की सामने से दादाजी अपनी लकड़ी के सहारे चलते हुए दादीजी की दवाई और पकोड़े लेकर आते है और कहते है, कि " ये लो तुम्हारी दवाइयांँ, इसे वक़्त पे ले लेना, वरना रात को घुटनों का दर्द तुमको होगा और नींद मेरी चली जाएगी और साथ में ये गरम पकोड़े भी लाया हूँ, बहुत दिनों से मेरा भी मन था खाने का। " दो पल के लिए तो ये देख मेरी आंँखें खुली की खुली ही रह गई।
मैंने दादीजी से कहा, कि " ये लीजिए, आपने इधर कहा और उधर दादाजी ने सुन लिया। आपकी दवाई और पकोड़े दोनों हाज़िर है और साथ में हमारे प्यारे दादाजी भी।"
मैं ख़ुशी से दोनों के गले लग गई। कभी-कभी उनका ऐसा प्यार देख मेरी भी आँखें भर आती है।
एक दिन दादाजी मंदिर जाते वक़्त अपना चश्मा और लकड़ी ऊपर कमरे में ही भूल आऐ थे, तो उन्होंने मुझ से कहा, कि ज़रा ऊपर से मेरा चश्मा और लकड़ी लेकर आओ, वार्ना तेरी दादी को ही ऊपर जाकर लाना पड़ेगा, वैसे भी उसके घुटनों में दर्द रहता है।
मैंने कहा, जी दादाजी अभी लेकर आती हूँ, तभी सामने से दादीजी, दादाजी का चश्मा और लकड़ी लेकर आती है और कहती है, कि " ये लीजिए आपका चश्मा और लकड़ी, जिसे आप ऊपर ही भूल आए थे और मुझे पता है, लकड़ी के बिना आप ठीक से चल नहीं पाते और चश्मे के बिना आप कान्हाजी के दर्शन कैसे करते भला ? आप भी है, ना... आज कल बहुत भुलक्कड़ होते जा रहे हो। "
दादाजी मन ही मन बोले, बस तेरे प्यार में !
और मैंने दादाजी से कहा, कि " आप ने कहा और आपका चश्मा और लकड़ी हाज़िर है।"
मेरा दिल ये देख बार-बार यही कहता है, कि " आप दोनों का प्यार और साथ उम्र भर ऐसे ही बना रहे। आप दोंनो ही एकदूजे का सहारा हो और हंमेशा रहेंगे, आप दोनों जैसे एकदूजे के लिए ही बने हुए है, आप दोनों को किसी और के सहारे की जरुरत ही नहीं। "
दादाजी दादीजी के बिना नाहीं कभी चाय-नाश्ता करते और नाहीं कभी कहीं जाते। जहाँ भी जाना हो दोनों साथ में ही जाते।
कभी-कभी मुझे ऐसा लगता है, कि " जैसे दादाजी और दादी दोनों की दुनिया में बस वो दोनों ही है और कोई नहीं, ऐसे वो दोनों एकदूसरे का ख़्याल रखते और एकदूसरे से प्यार करते है।"
एक दिन मेरी दादीजी बहुत बीमार हो गई, तब दादाजी ने एक पल का भी आराम नहीं किया, दिन रात दादीजी के करीब बैठ के उनकी सेवा करते रहे, कभी दादीजी के सिर पे हाथ फेरते, तो कभी दादीजी को दवाई पिलाते, तो कभी दादीजी को बिस्तर से खड़े होने में मदद करते, उनको वक़्त पे चाय, नाश्ता, खाना खिला देते, आधी रात को उठकर दादीजी को चुपके से देखा करते कि वो ठीक तो है ना, कहीं उसे किसी चीज़ की ज़रूरत तो नहीं। तब दादी चुपके से ये सब देखा करती और दादीजी को चिढ़ते हुए धीरे से कहती, कि " मैं ठीक हूँ, अभी मैं आपको छोड़ के जानेवाली नहीं, मेरी इतनी फिक्र मत किया किजीए और आराम से सो जाइए।"
ये सुन दादाजी चिढ़ जाते और कहते, कि " ऐसी बात नहीं, मैं तो सिर्फ़ देख रहा था, कि तुम्हें बुखार कम हुआ की नहीं और मैं भला तुम्हें ऐसे कैसे जाने दूँगा, तुम्हारे पास अभी मुझ को बहुत सेवा करवानी है और लड़ना भी है, अगर तुम चली गई तो मैं किस के साथ झगड़ा करूँगा ? किस के रूठ ने पर उसे मनाया करूँगा ? किस के बालो में गजरा लगाऊँगा ? किस के साथ बातें करूँगा ? "
कहते-कहते दादाजी की आँखों में सच में आँसू आने लगे, ये देख दादीजी की आंँखें भी भर आई।
उन दोनों को देख मुझे ऐसा लगता है, कि " असलियत में अब दोनों को एकदूसरे से दूर होने का डर है, कि अगर एक जल्दी चला गया तो दूसरे का क्या होगा ? " इसलिए दोनों एकदूसरे की ज़्यादा परवाह करते है, कल का तो पता नहीं मगर आज जब साथ है, तो क्यों ना एकदूसरे का सहारा बने रहे जिससे की साथ ना रह पाने का ग़म ना हो और ज़िंदगी यूहीं एकदूजे के सहारे चलती रहे। "
मेरी बात सुनते-सुनते प्रिया की आँखें भी भर आती है। प्रिया ने मुझ से कहा, कि " अब के vacation में अपने दादाजी-दादीजी से मिलवाने मुझे ज़रूर ले जाना, मुझे भी उनसे बातें करनी है। "
तो दोस्तों, ऐसे दादाजी-दादीकी की तरह सोच के हम भी अपनी ज़िंदगी में एकदूसरे का इतना ख़्याल रखे और एकदूसरे को इतना प्यार दे, कि उसी यादों के सहारे हमारी बाकि की ज़िंदगी भी आराम से बित जाए और ज़िंदगी में कुछ खोने का या ज़िंदगी में किसी का साथ ना रहा ऐसी फरियाद भी ना रहे। क्यूंँकि भगवान् के पास जाने की किस की बारी पहली आ जाए, ये आज तक किसी को नहीं पता, उसका बुलावा आए तो सब कुछ छोड़ के एक दिन तो सब को जाना ही है।
Bela...
3) माँ का दूसरा रूप
7) छोटा मुँह बड़ी बात
8) मान सम्मान
9) भरोसा ( १०० शब्दों की कहानी )
10 ) पसंद नापसंद
11) एक फ़ैसला
बात उन दिनों की है, जब निधि १८ साल की उम्र की हुआ करती थी, निधि के घर के सामने वाले घर में अभी कुछ दिन पहले ही दो लड़के rent पे रहने आए थे। दोनों दिखने में हैंडसम और खानदानी घर के लगते थे, दोनों मुंबई इंजिनयरिंग की पढाई के लिए आए थे। उन में से एक लड़के का नाम निशित और दूसरे का नाम समीर था। निशित पढाई करने अपनी खिड़की के पास ही रोज़ बैठता था और निधि के कमरे की खिड़की के सामने ही उसकी खिड़की थी, तो कभी-कभी निधि उसे देखा करती थी। ये बात निशित ने कुछ दिनों बाद महसूस की, कि निधि उसे यूँ चूप के से रोज़ देखा करती।
एक दिन निशित अपनी खिड़की पर पूरा दिन नहीं दिखा, तब निधि का जी मचलने लगा, उसे रोज़ देखने की अब उसकी आदत जो हो गई थी। उस दिन निधि के मम्मी-पापा और भैया तीनों शादी में गए हुए थे, निधि की एग्जाम शुरू होने वाली थी, तो निधि ने जाने से इंकार कर दिया, कि उसे आज रात पढ़ना है। तो ये मौका अच्छा है मिलने का, ये सोच निधि सीधे उसके घर चली गई।
निधि ने निशित के घर का बेल बजाया। पहले तो समीर ने दरवाज़ा खोला, निधि ने घर के अंदर इधर-उधर झाकने की कोशिश की, मगर कहीं भी निशित दिखाई नहीं दिया। तब निधि से रहा नहीं गया, निधि ने समीर से सीधे ही पूछ लिया, कि " तुम्हारा दोस्त कहाँ है ? आज कहीं वो दिख नहीं रहा ? " समीरने कहा, " वह अंदर ही है, उसकी तबियत कुछ ठीक नहीं है, इसलिए वह सो रहा है, डॉक्टरने उसे आराम करने को कहा है। "निधि ने कहा, " ओह्ह, तो ये बात है, क्या मैं उस से एकबार मिल सकती हूँ ? " समीर ने कहा, " हाँ, हाँ क्यों नहीं ? आइऐ ना। " कहते हुए समीर निधि को निशित के कमरें में ले गए, निशित सच में अपने बिस्तर पर लेटा हुआ था, निशित को बुखार था और ठण्ड के मारे उसका बदन काँप भी रहा था। निधि ने समीर से कहा, " इसे तो बहुत तेज़ बुखार है। " समीर ने कहा, " हाँ, दवाई तो पिलाई है, मगर बुखार कम नहीं हो रहा। "
निधि ने समीर के पास एक बाउल मैं ठन्डे बर्फ का पानी और रुमाल माँगा, निधि कुछ देर तक निशित के सिर पर ठन्डे पानी की पट्टी लगाती रही, इस से उसका बुखार कम हो गया, निशित के पास कोई कम्बल भी नहीं था, तो अपने घर से कम्बल लाकर निधि ने उसे ओढ़ाया, ताकि उसे ज़्यादा ठण्ड न लगे और वह आराम से सो सके, बिना किसी बात का सोच-विचार किए निधि पूरी रात उसकी सेवा करती रही, तब जाके सुबह को उसका बुखार कम हुआ और उसे थोड़ा अच्छा लगा, निशित ने निधि का शुक्रिया भी किया, फ़िर निधि अपने घर जाने लगी, तभी सामने से निधि के मम्मी-पापा की कार भी आई, निधि के मम्मी-पापा ने निधि को निशित के घर से इतनी सुबह-सुबह बाहर निकलते हुए देख लिया, तो पापा का गुस्सा आसमान पर था, उन्होंने निधि से बिना कुछ बात किए, उसे गलत समझकर कुछ दिन उसके कमरे में बंद कर दिया, मगर पापा को कहाँ पता था, कि वह दोनों आमने-सामने खिड़की में से एक-दूजे को देखा करते है। निशित ने इशारे से खिड़की में से फ़िर से निधि को कल रात के लिए THANK YOU कहा। निधि उसे मन ही मन चाहने लगी थी, मगर कभी बता ना सकी। बस खिड़की में से कभी-कभी एक दूजे से बातें कर लेते और मुस्कुराया करते। निधि का उसके साथ एक दिल का रिश्ता बन गया था। निधि के पापा उसूलों के बहुत पक्के थे, उन्होंने निधि की शादी कहीं ओर तय कर दी। इस बात को कुछ महीने गुज़र गए।
एक दिन किसी कॉफ़ी शॉप में निधि बैठ के अपनी दोस्त के इंतज़ार में थी, वही इत्फ़ाक से निशित भी आया हुआ था, दोनों ने एकदूसरे को देखा, पहले तो दोनों के बीच चुप्पी छाई रही। कुछ देर बाद निशित ने निधि से पूछा, " तुम कैसी हो ? यहाँ कैसे ? " निधि ने कहाँ, " मैं अपनी दोस्त के इंतज़ार में हूँ, वह आज मुझ से यहाँ मिलने आनेवाली है, मगर पता नहीं, अब तक आई क्यों नहीं ? ओह्ह, same here, मेरा भी एक दोस्त मुझ से मिलने आनेवाला है, अब तक आया नहीं। अच्छा, तो हम दोनों ही बात कर लेते है। निधि ने कहा, " हाँ, ज़रूर ! क्यों नहीं ? "
निशित ने कहा, " अच्छा चलो बताओ, तुम्हारे पति, तुम्हारे घरवाले सब कैसे है ? तुम ख़ुश तो हो ना ? "
निधि निशित की बात सुनकर चौंकी। निधि ने कहा, " शादी और मेरी ? "
निशित ने कहा, " हां, उस रोज़ तुम्हारी शादी थी ना ?" निधि ने कहा, " हांँ, बारात भी आई थी, मगर उसी रोज़ बारात आने से पहले मैं घर छोड़कर वहां से भाग गई थी, क्योंकि मेरे पापा ने पैसो की ख़ातिर मेरी शादी मुझ से १० साल बड़े लड़के से तय की थी, जिसका एक छोटा बच्चा भी था, मगर ये बात मुझे मंज़ूर नहीं थी। इसलिए मैंने घर छोड़ दिया। मेरी सहेलीने मुझे अपने घर चंडीगढ़ में कुछ महीने के लिए आसरा दिया। फ़िर मैंने जॉब शुरू कर दी और खुद का घर ले लिया, मगर तुम ?
निशित ने कहा, बस मेरे साथ भी कुछ ऐसा ही हुआ, मेरी शादी पापा ने ज़बरदस्ती करवा दी, मगर सुहाग रात में लड़की ने कहा, कि मैं किसी और को चाहती हूँ, उससे मैं बहुत प्यार करती हूँ और उसी से शादी भी करना चाहती थी। तब मैंने अपनी पत्नी शीला के बॉय फ्रेंड के बारे में पता किया, वह लड़का सच में बहुत अच्छा था, शीला से प्यार भी बहुत करता था, इसलिए मैंने शीला को उसके बॉय फ्रेंड सुनील से मिला दिया, दोनों की शादी करवा दी और जॉब के लिए यहाँ आ गया, वैसे भी मैं उस से प्रेम नहीं करता था, तो ऐसे रिश्तों के साथ जीने से तो बेहतर अकेले रहना मुझे ठीक लगा। क्योंकि मैंने जब से तुमको देखा, मैनें सिर्फ़ और सिर्फ़ तुम से ही प्यार किया, फ़र्क सिर्फ़ इतना है, कि ये बात कभी मैं अपनी ज़ुबान पे ला ना सका। मुझे लगा तुम्हारे पापा ने तुम्हारी शादी कहीं ओर तय कर दी, तो तुम्हारी डोली उठने से पहले ही मैं वहांँ से चला गया, मैं तुझे किसी ओर की होते हुए नहीं देख सकता था और उस वक़्त मुझ में इतनी हिम्मत नहीं थी, कि मैं तुम्हारे पापा से अपने प्यार के बारे में बात कर सकूँ। उस वक़्त मेरे मन की बात मन में ही रह गई, मगर मैंने अपनी ज़िंदगी में पहला प्यार तो तुम से ही किया था । मैंने तो तुम्हारी शादी के बाद तुम से मिलने की उम्मीद ही छोड़ दी थी, मगर आज तुम्हारा सच जानने के बाद, आज मैं तुम से कहना चाहता हूँ, कि मैं आज भी तुम से उतना ही प्यार करता हूँ, जितना पहले करता था, क्या तुम मेरे साथ अपनी बाकि की ज़िंदगी बिताना चाहोगी ? "
निधि तो उस वक़्त ख़ुशी के मारे आसमान में उड़ने लगी, मैंने भी तुम से कभी मिलने की उम्मीद छोड़ ही दी थी, मगर जहाँ दिल का रिश्ता इतना गहरा हो, तब दो दिल चाहे जितने भी दूर हो, मगर एक ना एक दिन तो मिल ही जाते है। ये दिलों का रिश्ता ही ऐसा है। इसी तरह तक़दीर ने निधि और निशित को मिला दिया।
मगर उसी वक़्त निधि की सहेली यानी मैं और रितेश का दोस्त यानी समीर, हम दोनों तालियाँ बजाते हुए उनके सामने आए क्योंकि हम दोनों ने मिल के निधि और निशित को मिलाने का ये प्लान किया था, क्योंकि हम दोनों ये बात जानते थे, कि निधि और निशित एक दूसरे से बहुत प्यार करते है।
उसके बाद निधि और निशित दोनों ने शादी भी कर ली, अब दोनों साथ में ही रहते है, जॉब भी दोनों साथ में करते है, उनका एक बच्चा भी है और वह दोनों आज बहुत खुश भी है।
तो दोस्तों, आपके नसीब में पहला प्यार लिखा हो और रिश्ता अगर दिल से दिल का हो तो बिछड़े प्रेमी एक ना एक दिन, किसी ना किसी तरह, किसी ना किसी रास्ते मिल ही जाते है।
Bela...15) एक फ़ैसला अपने लिए
डॉली ने अपनी कॉलेज से मुझे फ़ोन किया, मैं सामने से कुछ कह पाऊं, उस से पहले ही डॉली ने बात करना शुरू कर दिया," हेलो, पापा ! कल आपको मेरे कॉलेज के कन्वोकेशन सेरेमनी में आना ही है, चाहे कुछ भी हो जाए। "
मैंने कहा, कि " मैं समझता हूँ बेटा, कि तुम्हारे लिए ये सेरेमनी कितना ज़रूरी और आवाश्यक है। मगर बेटा, तुम मुझे भी समझने की कोशिश करो, मेरी कल एक बहुत ही ज़रूरी मीटिंग है, जो मैं कैंसल नहीं कर सकता, वार्ना मेरा बहुत नुकसान हो जाएगा, please बेटा, मेरी बात समझने की कोशिश करो। "
डॉली ने कहा, कि " मैं इन सब में कुछ नहीं जानती, आपको आना है, तो आना ही है, वार्ना मैं आप से कभी भी बात नहीं करुँगी, आप चाहे कितना भी मनाओ, मैं नहीं मानने वाली। "
कहते हुए डॉली ने रूठते हुए फ़ोन ऱख़ दिया। इस तरफ़ मेरे लिए यह मीटिंग करना बहुत ही ज़रूरी था, विदेश से कुछ क्लायंट सिर्फ़ एक दिन के लिए ही और सिर्फ़ इस डील के लिए ही आनेवाले है और वे लोग वहांँ से निकल भी गए है, अब मैं उन्हें कैसे रोकूँ या मना करूँ, कि " कल मेरी बेटी के कॉलेज में कन्वोकेशन सेरेमनी के लिए जाना है। " मैंने अपने चश्मे अपनी आँखों से उतारे और अपनी कुर्सी पर सिर रख आँख बंद कर कुछ सोचने लगा।
दूसरे दिन सुबह फिर से डॉली ने मुझे याद कराते हुए कहा, कि " आप को याद है ना पापा, कि आज शाम ठिक ५ बजे आपको हमारी कॉलेज आना है, मैं अपने दोस्तों के साथ जल्दी कॉलेज जाने वाली हूँ, आप बाद में आ जाना, मैं आपका इंतज़ार करुँगी।"
कहते हुए डॉली ने फोन रख दिया। मैं फिर से नाश्ता करते-करते सोच में पड़ गया, कि आज शाम को मैं क्या करूँ, डॉली के कॉलेज चला जाऊँ या मीटिंग में ?
आख़िर वो पल आ ही गया। कॉलेज का पूरा हॉल स्टूडेंटस और पेरेंट्स से भरा हुआ था, सब लोग बहुत खुश दिखाई दे रहे थे। डॉली बार-बार अपनी बगल वाली कुर्सी, जो उसने अपने पापा के लिए जगह रखी हुई थी उस कुर्सी को और दरवाज़े की तरफ़ देखे जा रही थी, ये जानने के लिए, कि उसके पापा कब आएँगे ? एक के बाद एक सब बच्चों को स्टेज पर बुलाया जा रहा था, सब को काला कोट, काली टोपी और हाथ में एक सर्टिफिकेट दिया जा रहा था, सब तालियाँ बजा रहे थे, डॉली के दिल की धड़कन और तेज़ होने लगी, जब उसका नाम पुकारा गया, "डॉली अग्रवाल"। तब डॉली ने फिर से एक बार दरवाज़े की और देखा, उसकी आँखें अब भी उसके पापा को ढूँढ रही थी, वो चाहती थी, कि उसे स्टेज पर काळा कोट और काली टोपी के साथ उसके पापा उसे देखे। जैसे उसके हर दोस्त के पेरेंट्स उनको देख रहे थे। तभी दूसरी बार डॉली का नाम पुकारा गया, तब डॉली मायूस होकर स्टेज की ओर आगे बढ़ने लगी, उसने सोच लिया, कि " छोड़ो, आज उसके पापा नहीं आनेवाले। "
मगर जैसे ही टीचर डॉली के हाथों में उसका सर्टिफिकेट देने जा रहे थे, तभी दर्शकों में पीछे से तालियों की आवाज़ सुनाई देने लगी, सब ने मूड कर पीछे की तरफ़ देखा, तो डॉली के पापा तालियांँ बजाते हुए अपनी बेटी डॉली की तरफ़ गर्व से देखते हुए आगे आ रहे थे। डॉली की ख़ुशी का तो ठिकाना ही ना रहा, डॉली ने तो अपने पापा के आने की उम्मीद ही छोड़ दी थी। डॉली भागति हुई स्टेज से उतरकर अपने पापा की तरफ़ जाती है और अपने पापा को गले लगाकर कहती है, " थैंक यू, थैंक यू, थैंक यू, सो मच पापा, की आप आज आ गए, आपको पता नहीं, कि मैं आज कितनी खुश हूँ । "
मैंने कहा, "मैं भी आज बहुत ही खुश हूँ । अब स्टेज पर जाओ भी और अपनी ट्रॉफी लेकर आओ।"
डॉली उछलते-कूदते फिर से स्टेज पर जाती है, टीचर्स उसे सर्टिफिकेट देते है, काला कोट और कैप पहनाते है और उसके फर्स्ट प्राइज के लिए उसे ट्रॉफी भी देते है, उस पल मेरे हाथ न तो तालियांँ बजाते हुए रुके और नाहीं मेरी आँखों से ख़ुशी के आंँसू बहते रुके। चेहरे पर ख़ुशी और आँखों में आंँसू ये कैसा अनोखा संगम है, तालियाँ बजाते हुए मैं खुद उस पल ये समझ नहीं पा रहा था।
सोचते-सोचते मैं कुछ पल के लिए अपने ही बचपन में चला गया, जब मैंने पहली बार स्टेज पर गाना गाया था, जब मैंने स्टेज पर गिटार बजाया था, जब मैंने स्पोर्ट्स डे के दिन स्कूल मैं ट्रॉफी जीती थी, जब मैंने राइटिंग कॉम्पिटशन में ट्रॉफी जीती थी, जब मैंने साइकिल रेसिंग में, जब मैंने फुटबॉल में, जब मैंने पढाई में, जब मैंने अपनी कॉलेज के आखरी एग्जाम में टॉप किया था और मुझे ट्रॉफी मिलने वाली थी, तब-तब मेरी नज़र भी यूँही दरवाज़े पर अपने मम्मी-पापा को ढूँढ रही थी, सब मुझे बधाइयाँ देते थे, मगर में तब अपने आप को भीड़ में भी अकेला महसूस करता था। क्योंकि उस वक़्त मेरे मम्मी-पापा मेरी ख़ुशी में कभी सामिल नहीं हो सके, उनके लिए उनकी मीटिंग्स और उनका बिज़नेस ज़रूरी था, मेरे दादू जो घर में फ्री ही रहते थे, तो उनको भेज दिया करते और रात को घर आकर मेरे हाथ में नया खिलौना देकर, मुझे बहुत-बहुत बधाई देकर मुझे खुश कर दिया करते, मगर उनको क्या पता, कि मुझे उस वक़्त उस खिलौने की नहीं, मगर उनकी ज़रूरत थी, मेरे सारे दोस्त के पेरेंट्स आते थे, सिर्फ़ मेरे पापा और मम्मी ही नहीं आते थे, फिर रात को मैं अपने दादू के गले लगकर रो कर सो जाया करता, और सुबह जब उठता, तो कभी-कभी मम्मी और पापा शहर से बाहर किसी मीटिंग्स के लिए जा रहे होते थे, मैं दौड़कर खिड़की की तरफ़ भागता और उनको आवाज़ लगाता, " मम्मी-पापा, मम्मी-पापा, रुको, मुझे आप से कुछ कहना है, कुछ सुनना है, कुछ सुनाना है, कुछ देखना है, कुछ दिखाना है। " मगर मेरी आवाज़ उन तक नहीं पहुँच पाती और वे लोग मुझ से कई दूर चले जाते। मैं अपने दादू के पास जाकर मुँह फुलाकर बैठ जाता, दादू समझ जाते, इसलिए मुझे बातों में लगा लेते और हंसा दिया करते। "
तभी कॉलेज के हॉल में अचानक से गिटार बजने की आवाज़ सुनाई पड़ती है। मैं होश में आता हूँ, स्टेज पर देखता हूँ, तो मेरी बेटी, डॉली जो, मुझे अपनी जान से भी प्यारी है, वह हाथ में गिटार लिए बजा रही है और उसका दोस्त उसी की धुन पर गाना गा रहा है, डॉली की नज़र बार-बार मुझ पर आकर रुक जाती, मैं अपनी आँखों के आंँसू छुपा दिया करता और अपने हाथ उठाकर अपना थंब दिखाकर उसे चीयर-उप करने की कोशिश करता। आज मैं बहुत खुश हूँ, कि जो मेरी बेटी बचपन से मेरे साथ हर छोटी-बड़ी बात पे सवाल उठाती और आर्गुमेंट करती रहती, वह आज खुद एक वकील बन गई है। मेरी छोटी सी गुड़िया अब सिर्फ़ मेरे साथ ही नहीं, बल्कि पूरी दुनिया के साथ सच्चाई के लिए आवाज़ उठाएगी, हर औरत की तकलीफ़ को समझेगी, हर किसी को इन्साफ़ दिलाएगी, मेरी छोटी सी गुड़िया, आज बड़ी हो गई।
डॉली स्टेज से उतरकर फिर से मेरे गले लग जाती है, कॉलेज के कमरें में तालियों की आवाज़ अब भी सुनाई देती है। डॉली ने कहा, " पापा अगर आज आप के साथ माँ होती, तो मुझे ऐसे ट्रॉफी लेते देखकर वो भी कितना खुश होती ना ? "
मैंने कहा, " हांँ, बेटी, तुम्हारी माँ, होती तो शायद आज तुम वकील के काले कोट में नहीं बल्कि शादी के जोड़े में होती। "
मेरी बात सुनकर डॉली मुस्कुराकर बड़ी ज़ोरों से हँसने लगी, " क्या पापा, आप भी, मैं तो सोच रही थी, कि अपने लिए अब मैं नई मम्मी ढूँढना शुरू कर दूँ। "
हम दोनों ज़ोर-ज़ोर से हँसने लगे।
तो दोस्तों, मैं देवेन्द्र अग्रवाल अपने मम्मी-पापा का एकलौता बेटा या कहूंँ तो उनकी ज़मीन, ज़ायदाद और बिज़नेस का एक लौटा वारिस हूँ, जो आज भी अपने पापा का बिज़नेस सँभाल रहा हूँ, जो आज का बहुत बड़ा बिज़नेस मेन है और जो बचपन से अपने पापा और मम्मी के साथ सिर्फ़ वक़्त गुज़ारना चाहता था, मुझे उनका सब कुछ मिला मगर वक़्त ही ना मिला। इसलिए आज कल मैंने अपने जीवन में अपने आप पे ही एक किताब लिखनी शुरू की है, ये मेरे ही जीवन का एहसास, ये मेरी ही किताब का, मेरे ही जीवन का एक छोटा सा सच था, जो मैं आप सब के साथ बाँटना चाहता हूँ।
दुनिया की सारी ख़ुशी एक तरफ़ और बेटी की खुशी एक तरफ़। मेरी नज़र से देखो तो, अपने बच्चों को स्टेज पर ट्रॉफी लेते देखना और उसे कामियाब होते हुए देखना, यह एक पिता के बड़े गर्व की बात है।
हाँ दोस्तों, उस ख़ुशी के आगे और कुछ भी नहीं, इस पल के आगे और कुछ भी नहीं, मीटिंग्स फिर कभी हो सकती है, पैसा फिर कभी कमाया जा सकता है, शॉपिंग फिर कभी हो सकती है, दोस्तों के साथ गप्पे फिर कभी लगाए जा सकते है, लेकिन यह पल फिर नहीं आएगा, यह एहसास फ़िर नहीं होगा। इसलिए दोस्तों, अपने बच्चों की ख़ुशी में शरीफ रहकर भी आप जता सकते हो, कि आप के लिए उन से ज़रूरी और कोई काम या और कोई बात हो ही नहीं सकती।
Bela...
20 ) ज़िंदगी
आज मैंने गाजर का हलवा बनाया था, तो सोचा हेमा आंटी को जाकर दे आती हूँ, वह हमारे पड़ोस में ही रहती हैं और उनसे मेरा रिश्ता एक माँ-बेटी के रिश्ते जैसा ही है। इसी बहाने उनसे मिल भी लूँगी, दो दिन से ऑफिस के काम की वजह से उनसे मिल ही नहीं पाई। मैं उनके घर की डोर बेल बजाने ही वाली थी, कि अंदर से किसी के रोने की आवाज़ सुनाई दी। मैं मन ही मन बड़बड़ाई, " ये देखो, आंटीजी फिर से रोने लगी पता नहीं, आज फ़िर से अकेले में बैठे हुए उन्हें क्या याद आ गया होगा ? " लेकिन सोचते-सोचते मैंने बेल बजा ही दिया, बेल बजते ही अंदर से रोने की आवाज़ बंद हो गई। तब मैंने दूसरी बार बेल बजाया, तब जाकर आंटीजी ने दरवाज़ा खोला।
मैंने आंटीजी से कहा, "आंटीजी आप क्या कर रही हैं ? मैं कब से डोर बेल बजा रही हूँ, मैंने आज गाजर का हलवा बनाया है, वही देने आई हूँ, सोचा इसी बहाने आप से बातें भी हो जाएँगी ज़रा चख़ के तो बताइए कैसा बना है गाजर का हलवा ? " ( आंटी जी को गाजर के हलवे का डिब्बा देते हुए )
लेकिन हेमा आंटी तो मेरी बात सुनकर फिर से फूट-फूट कर रोने लगी। उनको हँसाने के लिए मैंने हेमा आंटी से फ़िर से कहा, " क्या हुआ आंटी जी ? क्या आपको गाजर का हलवा पसंद नहीं ? आपको कुछ और चाहिए था ? मुझे क्या पता ? अच्छा चलो, ठीक है, इसे कचरे के डिब्बे में फेंक देती हूँ ।
मेरी बात सुनते ही हेमा आंटी ने मेरे हाथ से डिब्बा छीन लिया और कहा, " अरी पगली किस ने कहा तुझसे, कि मुझे गाजर का हलवा पसंद नहीं है ? " कहते हुए आंटी जी रोते-रोते हँसने लगे और डिब्बे में से हलवा खाने लगी और हलवा खाते-खाते कहने लगी कि बहुत अच्छा बना है हलवा और दूसरे ही पल हँसते हँसते फ़िर से रोने लगी । उनको रोते हुए देख, मेरी भी आँखें भर आई और मैंने उनको गले लगा लिया। कुछ पल के लिए मैं उनका दर्द महसूस करने की कोशिश करती रही, मगर जिसका दर्द हो वही जाने। आंटी जी का चेहरा अपने हाथों में लेते हुए मैंने उनसे कहा, क्या हुआ आंटी जी ? आज फ़िर से क्यों अकेले में रो रहे थे ? आपको कुछ चाहिए था ? या आप से किसी ने कुछ कहा क्या ? मगर कुछ देर तक आंटी जी बस रोती ही रही, बहुत समझाने के बाद उन्होंने कहा, कि बेटी, " अब तुम से क्या छुपाना ? तुम्हारे अंकल के जाने के बाद मैं तो जैसे बिल्कुल अकेली पड़ गई हूँ। वो थे तो उनके लिए चाय बनाना, खाना बनाना, कपड़े धोना, मंदिर जाना, बाहर घूमने जाना, इधर-उधर की बातें करना, कभी रुठना-तो कभी मनाना, कभी लड़ना-कभी झगड़ना, कभी खरी-खोटी भी सुनाना, ये सब करते थे और अच्छा भी लगता था। वो थे तो पूरे घर में कितनी रौनक थी, अब एक सन्नाटा सा छा गया है, मुझे कुछ भी अच्छा नहीं लगता। मेरी बेटी नैना की शादी यहाँ से दूर बंगलोर शहर में हुई है और वह जाइंट फेमली में रहती है। फ़ोन पर रोज़ बातें हो जाती हैं, मैं चाहकर भी उसके साथ नहीं रह सकती और वो चाहकर भी मेरे पास नहीं आ सकती। तुम्हारे अंकल के बिना पूरा दिन मेरा कैसा भारी सा जाता है, तुम्हें पता नहीं, मैं घर संभालती थी तो वो बाहर का सारा काम, मतलब की बैंक का काम, उनका ऑफिस, बिल भरना, lic का पेमेंट, म्यूच्यूअल फण्ड का पेमेंट, पैसों का सारा हिसाब किताब और भी बहुत कुछ वही सँभालते थे, मुझे उन्होंने कभी कुछ भी नहीं बताया, मुझे जब भी जितने भी पैसों की ज़रूरत होती, बिना कोई सवाल किए मेरे हाथ में रख देते थे। बैंक में जाती हूँ, तो कहते हैं कि आप ऑनलाइन भी सब कुछ कर सकती हैं अब इस ऑनलाइन के ज़माने में मेरी कुछ समझ में नहीं आ रहा, कि कैसे करूँ सब ? आंटी जी कहते-कहते बस सिर्फ़ रोए जा रही थी।
मैं समझ सकती थी, कि हेमा आंटी ज़्यादा पढ़ी-लिखी नहीं थी और ऊपर से इस ऑनलाइन के ज़माने में एक अकेली औरत के लिए ये सब कुछ कितना मुश्किल हो जाता है इसलिए मैंने उनको दिलासा देने की कोशिश करते हुए कहा, कि ओफ्फो आंटी ! बस इतनी सी बात और इतनी सी बात के लिए आप इतना रो रही हो, मुझसे कह दिया होता, क्या मैं आपकी बेटी नहीं हूँ ? क्या अंकल जी मुझे अपनी बेटी से कम समझते थे ?
मेरी बात सुनकर आंटी जी ने कहा, नहीं ऐसी बात नहीं है बेटी, तुम्हारा अपना भी तो घर है, पति है, ऊपर से तुम ऑफिस भी तो जाती हो, कितनी सारी ज़िम्मेदारी है तुम्हारे ऊपर तो और ऊपर से मैं तुम्हारी ओर तक़लीफ़ बढ़ाना नहीं चाहती।
मैंने कहा, तक़लीफ़, उस में क्या तक़लीफ़ ? मैं तो ये चुटकी बजाते कर लेती हूँ। तभी उनकी आँखें, मेरी ओर शर्म से फ़िर झुक जाती है, मैं तुरंत ही उनकी परेशानी समझ गई और कहा, कि " मेरे कहने का मतलब ये है, कि अगर मैं ये सब आसानी से कर लेती हूँ, तो आप भी तो ये सब कुछ कर ही लेंगे ना, उस में कौन सी बड़ी बात है, मैं आपको सब कुछ सिखा दूँगी। "
तब आंटी जी ने कहा, कि " मगर बेटी मुझे तो अंग्रेजी आती भी नहीं है। "
मैंने कहा, " तो क्या हुआ ? आप नहीं जानते मोबाइल में आप हिंदी में सब लिख-पढ़ सकते हो। "
आंटी जी ने कहा, " क्या सच में ऐसा होता है ? "
मैंने कहा , " क्यों नहीं ? आज कल सब कुछ घर बैठे ही हो जाता है, आपको किसी चीज़ के लिए बाहर जाने की ज़रूरत नहीं। "
आंटी जी ने कहा कि " मगर मुझे फ़िर भी बहुत डर लग रहा है, गलती से अगर कुछ गड़बड़ कर दी, मैंने तो ? "
मैंने कहा, " तब भी कुछ नहीं होगा, अगर कुछ ऐसा-वैसा हो गया तो मैं देख लूँगी। अब आपको सब कुछ सिखाने की ज़िम्मेदारी मेरी। "
आंटी जी ने कहा, " मगर बेटी, तुम अब भी समझ नहीं रही हो, मेरे लिए यह सब बहुत मुश्किल है। "
मैंने कहा, " मैं सब समझ रही हूँ, आप क्या कहना चाहती हैं लेकिन आप कोशिश तो कर ही सकती है ना ? अगर नहीं आया, तब भी कोई बात नहीं, हम कुछ और सोचेंगे, मगर आप शुरू तो करो। "
आंटी जी ने कहा, " मगर बेटी... "
मैंने कहा, " अगर मगर कुछ नहीं, देखिए आंटी जी, मैं आपको समझाती हूँ, जैसे कि मेरे लिए ऑफिस का काम करना, या ऑनलाइन मोबाइल पर सब कुछ करना जितना आसान है, उतना ही आसान आप के लिए खाना बनाना है, है ना ? मुझे भी शादी से पहले कहाँ खाना बनाना आता था। धीरे-धीरे सब सीख लिया। फ़िर भी अब भी मुझ से आप के जितना अच्छा खाना बनाना और आप को जितनी dishes बनानी आती है, मुझे नहीं आती। आप जैसा घर सँभालती आई है, वह सब मेरे लिए आज भी मुश्किल ही है, मगर जैसे-तैसे कर ही लेती हूँ, इसी बजह से कई बार मेरे और रितेश के बीच में झगड़ा भी हो जाता है, but its ok, हो जाता है। दूसरे दिन हम दोनों एकदूसरे को सॉरी भी बोल देते है। तो आप भी तो ये सब सीख ही सकती है, ना ? ज़्यादा नहीं तो थोड़ा बहुत समझ में तो आएगा। इस से आपको बार-बार किसी और पर निर्भर भी नहीं रहना पडेगा, अगर आप अपना सब कुछ जब खुद सँभालने लगेंगे, तब आप को भी बहुत अच्छा लगेगा, देख लेना। अब रोना बंद कीजिए और बताइए हलवा कैसा बना है ? वैसे सच बताना। "
आंटी ने कहा, " हलवा सच में अच्छा बना है, मगर इस में थोड़ी शक्कर ज़्यादा हो गई है और अगर इस में तुम मावे के साथ थोड़ी मलाई भी डालती तो इसका स्वाद और भी अच्छा आता, लेकिन ये भी चलेगा। "
कहते हुए आंटी के चेहरे पर मुस्कान आ गई।
मैंने कहा, " देखा ना, आंटी, आप खाने के बारे में कितना अच्छे से जानती हो, आपको हलवा चखते ही पता चल गया, कि हलवे में मैंने मलाई नहीं डाली। तो वैसे ही आप भी सब कुछ सीख जाओगी। मुझे तो शायद इतना वक़्त ना मिले मगर मेरी एक पहचान में रूपा आंटी है, जो आप ही की तरह हाउस वाइफ है, मगर उसे यह सब कुछ उसके पति ने ही सिखाया है, तो मैं उनसे कह दूँगी, वो दोपहर को या जब भी उनको वक़्त मिले यहाँ आकर आप को सब सिखा देंगे। इसी बहाने आपका वक़्त भी थोड़ा कट जाएगा और आप की एक नई दोस्त भी बन जाएगी। वैसे भी वह रूपा आंटी भी बहुत अच्छी है और वह बातें तो मुझ से भी ज़्यादा अच्छी करती है। "
मेरे कहे मुताबिक रूपाने आंटी जी से कुछ ही दिनों में दोस्ती कर ली और आंटी जी को ऑनलाइन सब कुछ मोबाइल में सिखा भी दिया, माना कि उनको यह सब सिखाने और समझाने में बहुत ज़्यादा वक़्त लग गया और उनसे कई बार ग़लतियाँ भी हो जाती हैं मगर सीखना भी तो ज़रूरी है। अंकल जी के पेंशन से उनका घर चल जाता है और अंकल जी ने म्यूच्यूअल फण्ड में भी आंटी के नाम बहुत पैसे जमा कर रखे हैं, घर भी आंटी जी के नाम ही है, तो अब आंटी जी पूरा दिन घर में न रहकर घर का काम ख़तम कर मंदिर जाती है, पास-पड़ोस में सब की हेल्प भी करती है, योगा और मैडिटेशन क्लास ज्वाइन कर लिया है, ऑनलाइन सब पेमेंट भी कर लेती हैं अकेले हैं, मगर खुश रहते हैं, सब की मदद करती हैं ।
ये तो अच्छा हुआ, कि धीरे-धीरे हेमा आंटी ने वक़्त रहते सब कुछ सीख लिया, मगर इस दुनिया में और भी कई ऐसी औरतें होंगी जिन्हें इन सब के बारे में कुछ पता नहीं और वह इस बात को लेकर शर्मिंदगी महसूस करती होगी और यह सब कुछ नहीं आने की वजह से उनको अपनी ज़िंदगी में कितनी मुसीबतों का सामना करना पड़ता होगा। मैं ये अच्छे से समझ सकती हूँ, कि यह सब एक औरत के लिए बहुत ही मुश्किल है, मगर वक़्त रहते सब कुछ सीख लेना ही समझदारी है। क्योंकि किसी के चले जाने से हमारी ज़िंदगी तो रूकती नहीं, हमें तो अपनी आगे की ज़िंदगी उन्हीं बीती हुई यादों के सहारे गुज़ारनी ही पड़ती है। चाहे हम चाहे या ना चाहे।
तो दोस्तों, इस कहानी से मैं बस सिर्फ़ यही कहना चाहती हूँ, कि इस बदलते ज़माने में या कहूँ तो मोबाइल और ऑनलाइन के ज़माने में हर एक को ये सब सीख लेना बहुत ज़रूरी है, पता नहीं क्या कब हो जाए ? पता नहीं कौन, कब अपना रंग बदल दे ? इसलिए किसी और के लिए नहीं तो अपने लिए वक़्त रहते सब कुछ सीख ही लेना चाहिए।
Bela...
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