(कहानी घर घर की कहानी हर घर क) Ek DUJE KE SAHARE

       कहानी घर घर की, कहानी हर घर की

                       सारांश

           यह कहानी सिर्फ़ आपके और मेरे घर की या सिर्फ़ और सिर्फ़ आपकी या मेरी नहीं, लेकिन यह कहानी शायद हर घर की है, जिस घर में लोग साथ मिलकर रहते है, एक दूसरे से प्यार करते है, एक दूसरे की परवाह करते है, जिस घर में माँ बाप का मान सम्मान होता है, उनकी कद्र की जाती है, उनका कहा माना जाता है, उनको प्यार दिया जाता है, उनको वक्त दिया जाता है, जिस घर में किसी एक की तकलीफ़ सब की तकलीफ़ बन जाती है, जिस घर में एक का दुःख सब के लिए दुःख और एक की खुशी में सब खुश हो जाते है, छोटी छोटी बात को दिल पर ना लगाते हुए जहाँ सब मिल जुलकर रहते है, जहाँ औरत का सम्मान होता है, जिस घर में बच्चों को प्यार दिया जाता है, वहीं तो घर कहलाता है, चाहे कितने भी दिन कहीं भी घूम फिर के आओ, मगर आखिर में जहाँ आकर हम को सुकून मिलता है वह घर ही तो है। 

        तो दोस्तों, आप लोग सच में सोच रहे होंगे कि अगर ज़िंदगी सच में ऐसी ही हो, ज़िंदगी में कोई मुश्किल ही न हो, ज़िंदगी खुशियों से भरी हो, तो कितना अच्छा रहेगा, मगर दोस्तों ऐसा सच में नहीं होता। ज़िंदगी है, तो परेशानियां भी होगी ही, जैसे दुःख के बाद सुख और सुख के बाद दुःख यह ज़िंदगी का नियम ही है, इसलिए मेरी इन कहानियों में से कई कहानियाँ ज़िंदगी की सीख दिखला जाती है, ज़िंदगी से लड़ना सिखा जाती है।

        मैंने मेरी इस किताब में छोटी छोटी कहानी का रूप देकर मैंने हर एक के घर की कहानी लिखने का प्रयास किया है, कुछ खट्टी, कुछ मीठी, कुछ सच्ची, कुछ झूठी, कुछ देखी, कुछ अनदेखी, कभी प्यार तो कभी तकरार। ऐसी ही प्यारी सी कहानियाँ लेकर में आप सब के पास आ रही हूँ, उम्मीद है आप सब को मेरी यह कहानियाँ पसंद आएगी, क्योंकि इन में से ही कई कहानियाँ पढ़ने पर कई लोगों को लगे, की हाँ, सच ऐसा ऐसा तो हमारे घर में भी होता है, ऐसा तो हमारे साथ भी हुआ है क्योंकि इन कहानियों में से कई कहानियाँ सत्य घटना पर आधारित है। और शायद इन कहानियों में से ही कई लोगों को उनके सवाल के जवाब भी मिल जाए।

Bela...

               1 )    घर की अवस्था

           वैसे देखा जाए तो दोस्तों, एक हाउस वाइफ, हर घर की शोभा होती है, अगर वह अपना हर काम प्यार से करे तो, घर इतना सुंदर और सुव्यवस्थित नज़र आने लगता है, कि जैसे उसकी किसी के साथ कोई तुलना ही नहीं की जा सकती। 

         मगर अगर वही हाउस वाइफ अपने ही घर के काम करते वक़्त में ऐसे भाव रखें कि, घर के इतने सारे काम मैं ही क्यों करु ? उसके बदले में मुझे क्या मिलेगा और देखती हूँ, एक दिन मैं काम ना करु तो क्या होता है ? तो घर धीरे धीरे बिखरने लगता है। 
          इसीलिए एक हाउस वाइफ के विचारों पर ही घर की अवस्था निर्भर करती है।

Bela...

                2)      एकदूजे के सहारे

           एक दिन मैं हॉस्टल में मेरे दादाजी और दादीजी को याद कर अपनी सहेली प्रिया को उनके बारे में बता रही थी, कि " मेरे दादाजी और दादीजी दुनिया में सबसे प्यारे और सबसे अनोखे दादाजी और दादीजी है, उनकी love story बड़ी दिलचस्प है और वो दोनों भी। 

             मेरे दादाजी और दादी एक दूसरे से जितना लड़ते है, उस से कई ज़्यादा एक दूसरे से प्यार भी करते है, मेरे दादाजी को अब उनकी उम्र के हिसाब से थोड़ा ऊँचा सुनने की आदत है, इसलिए दादी को हर बात उनसे ज़ोर से कहनी पड़ती है। कभी दादाजी रूठते है, तो कभी दादी। उनके बिच नोकझोंक चलती ही रहती है, फिर भी शाम को दोनों साथ बैठकर ही खाना खाते और बरामदे में बैठ कर बातें किया करते।  

         मैं उनसे पूछती, कि " रोज़ रोज़ आप क्या बातें करते रहते है, तब वो बताते, कि पहले हम दोनों को बातें करने का वक़्त ही नहीं मिलता था, इसलिए जो बातें हम हमारी जवानी में नहीं कर पाए, वो अब कर लिया करते है और साथ-साथ कुछ पुरानी याद को भी ताज़ा कर लिया करते है, और तो क्या ! जब तू हमारी उम्र की होगी, तब तू भी यही करेगी, देख लेना । " और हम सब हँस पड़ते। 

          दादाजी को गुस्सा ज़रा जल्दी आ जाता है। कभी कभी दादाजी छोटी-छोटी बात पे बुरा भी मान जाया करते और दादीजी उनको मना लिया करती और कभी-कभी दादीजी को उनकी किसी बात का बुरा लग जाता तो, दादीजी दादाजी से बात ही नहीं करती, फिर दादाजी दादीजी को मनाते है, दोनों साथ में चाय-नास्ता करते, बाद में साथ मिलकर घर में कान्हाजी की सेवा पूजा करते और शाम को साथ में हमारे नज़दीकी नाना-नानी पार्क में चलने के लिए जाते, घर आकर खाना खा कर दोनों साथ में रेडियो पे पुराने गाने सुनते- सुनते बातें करते और एकदूसरे का हाथ पकड़कर सो जाते। "

        फ़िर एक दिन दादीजी ने मुझ से कहा, कि मेरी दवाई ख़त्म हो गइ है, आज तुम कॉलेज से आते वक़्त मेरे लिए दवाई लेती आना। अगर तुम्हारे दादाजी को पता चला ना की मेरी दवाइयांँ ख़त्म हो गइ है, तो वो ख़ामखा ही परेशान हो जाएँगे और हांँ, साथ में थोड़े से पकोड़े भी लेती आना, बहुत मन कर रहा है खाने का। 

        मैंने कहा जी ज़रूर दादी, कहते हुए मैं कमरे से बाहर जा ही रही थी, की सामने से दादाजी अपनी लकड़ी के सहारे चलते हुए दादीजी की दवाई और पकोड़े लेकर आते है और कहते है, कि " ये लो तुम्हारी दवाइयांँ, इसे वक़्त पे ले लेना, वरना रात को घुटनों का दर्द तुमको होगा और नींद मेरी चली जाएगी और साथ में ये गरम पकोड़े भी लाया हूँ, बहुत दिनों से मेरा भी मन था खाने का। "  दो पल के लिए तो ये देख मेरी आंँखें खुली की खुली ही रह गई। 

         मैंने दादीजी से कहा, कि " ये लीजिए, आपने इधर कहा और उधर दादाजी ने सुन लिया। आपकी दवाई और पकोड़े दोनों हाज़िर है और साथ में हमारे प्यारे दादाजी भी।" 

         मैं ख़ुशी से दोनों के गले लग गई। कभी-कभी  उनका ऐसा प्यार देख मेरी भी आँखें भर आती है।   

       एक दिन दादाजी मंदिर जाते वक़्त अपना चश्मा और लकड़ी ऊपर कमरे में ही भूल आऐ थे, तो उन्होंने मुझ से कहा, कि ज़रा ऊपर से मेरा चश्मा और लकड़ी लेकर आओ, वार्ना तेरी दादी को ही ऊपर जाकर लाना पड़ेगा,  वैसे भी उसके घुटनों में दर्द रहता है। 

       मैंने कहा, जी दादाजी अभी लेकर आती हूँ, तभी सामने से दादीजी, दादाजी का चश्मा और लकड़ी लेकर आती है और कहती है, कि " ये लीजिए आपका चश्मा और लकड़ी, जिसे आप ऊपर ही भूल आए थे और मुझे पता है, लकड़ी के बिना आप ठीक से चल नहीं पाते और चश्मे के बिना आप कान्हाजी के दर्शन कैसे करते भला ? आप भी है, ना... आज कल बहुत भुलक्कड़ होते जा रहे हो। "

    दादाजी मन ही मन बोले, बस तेरे प्यार में !

        और मैंने दादाजी से कहा, कि " आप ने कहा और आपका चश्मा और लकड़ी हाज़िर है।"

    मेरा दिल ये देख बार-बार यही कहता है, कि " आप दोनों का प्यार और साथ उम्र भर ऐसे ही बना रहे। आप दोंनो ही एकदूजे का सहारा हो और हंमेशा रहेंगे, आप दोनों जैसे एकदूजे के लिए ही बने हुए है, आप दोनों को किसी और के सहारे की जरुरत ही नहीं। "


          दादाजी दादीजी के बिना नाहीं कभी चाय-नाश्ता करते और नाहीं कभी कहीं जाते। जहाँ भी जाना हो दोनों साथ में ही जाते। 

   कभी-कभी मुझे ऐसा लगता है, कि " जैसे दादाजी और दादी दोनों की दुनिया में बस वो दोनों ही है और कोई नहीं, ऐसे वो दोनों एकदूसरे का ख़्याल रखते और एकदूसरे से प्यार करते है।"  

         एक दिन मेरी दादीजी बहुत बीमार हो गई, तब दादाजी ने एक पल का भी आराम नहीं किया, दिन रात दादीजी के करीब बैठ के उनकी सेवा करते रहे, कभी दादीजी के सिर पे हाथ फेरते, तो कभी दादीजी को दवाई पिलाते, तो कभी दादीजी को बिस्तर से खड़े होने में मदद करते, उनको वक़्त पे चाय, नाश्ता, खाना खिला देते, आधी रात को उठकर दादीजी को चुपके से देखा करते कि वो ठीक तो है ना, कहीं उसे किसी चीज़ की ज़रूरत तो नहीं। तब दादी चुपके से ये सब देखा करती और दादीजी को चिढ़ते हुए धीरे से कहती, कि " मैं ठीक हूँ, अभी मैं आपको छोड़ के जानेवाली नहीं, मेरी इतनी फिक्र मत किया किजीए और आराम से सो जाइए।" 

         ये सुन दादाजी चिढ़ जाते और कहते, कि  " ऐसी बात नहीं, मैं तो सिर्फ़ देख रहा था, कि तुम्हें बुखार कम हुआ की नहीं और मैं भला तुम्हें ऐसे कैसे जाने दूँगा, तुम्हारे पास अभी मुझ को बहुत सेवा करवानी है और लड़ना भी है, अगर तुम चली गई तो मैं किस के साथ झगड़ा करूँगा ? किस के रूठ ने पर उसे मनाया करूँगा ? किस के बालो में गजरा लगाऊँगा ? किस के साथ बातें करूँगा ? " 

    कहते-कहते दादाजी की आँखों में सच में आँसू आने लगे, ये देख दादीजी की आंँखें भी भर आई।   

         उन दोनों को देख मुझे ऐसा लगता है, कि " असलियत में अब दोनों को एकदूसरे से दूर होने का डर है, कि अगर एक जल्दी चला गया तो दूसरे का क्या होगा ? " इसलिए दोनों एकदूसरे की ज़्यादा परवाह करते है, कल का तो पता नहीं मगर आज जब साथ है, तो क्यों ना एकदूसरे का सहारा बने रहे जिससे की साथ ना रह पाने का ग़म ना हो और ज़िंदगी यूहीं एकदूजे के सहारे चलती रहे। " 

       मेरी बात सुनते-सुनते प्रिया की आँखें भी भर आती है। प्रिया ने मुझ से कहा, कि " अब के vacation में अपने दादाजी-दादीजी से मिलवाने मुझे ज़रूर ले जाना, मुझे भी उनसे बातें करनी है। " 

           तो दोस्तों, ऐसे दादाजी-दादीकी की तरह सोच के हम भी अपनी ज़िंदगी में एकदूसरे का इतना ख़्याल रखे और एकदूसरे को इतना प्यार दे, कि उसी यादों के सहारे हमारी बाकि की ज़िंदगी भी आराम से बित जाए और ज़िंदगी में कुछ खोने का या ज़िंदगी में किसी का साथ ना रहा ऐसी फरियाद भी ना रहे। क्यूंँकि भगवान् के पास जाने की किस की बारी पहली आ जाए, ये आज तक किसी को नहीं पता, उसका बुलावा आए तो सब कुछ छोड़ के एक दिन तो सब को जाना ही है।              

 Bela... 

                 3)   माँ का दूसरा रूप 


        मेरी कहानी की राधिका का के तीन बच्चें थे, उसमें दो बेटे और एक छोटी बेटी थी, राधिका अपने तीनों बच्चों पर जैसे जान न्योछावर करती थी, कभी कभी राधिका का पति रितेश, राधिका को चिढ़ाते हुए मज़ाक में कहता, कि " कभी कबार मेरी तरफ़ भी ध्यान दिया करो, मैं भी तो तुम्हारा बच्चा ही तो हूँ। " 
      राधिका भी हंस कर कह देती, " मेरे और मेरे बच्चों के बीच आप नाही आओ, तो ही ठीक रहेगा।" और बेचारे रितेश टिफिन लेकर मुँह फुलाकर ऑफिस चले जाते। 
       सुबह से राधिका अपने सोनू, मोनू और स्वीटी इन तीनों बच्चों के बीच ही उलझी रहती, अपने बच्चों के अलावा उसे और कुछ दिखता ही नहीं, बच्चों का खाना, पीना, सब को टाइम पर जगाना,  टिफिन बनाना, सब को तैयार कर के स्कूल, ट्यूशन, ड्राइंग क्लास, कराटे क्लास, डांस क्लास भेजना, स्कूल मीटिंग, पीटीए मीटिंग, पेरेंट्स मीटिंग, हर मीटिंग में टाइम पर पहुँचना, बच्चों को स्कूल की हर एक्टिविटी में पार्टिसिपेट करने के लिए मोटिवेट करना, सब के प्रोजेक्ट तैयार करने में उनकी मदद करना, कितना कुछ राधिका अपने बच्चों के लिए करती आई है, अपने लिए तो जैसे उसके पास वक्त ही नहीं रहता, यह तो बस एक माँ का प्यार ही है, जो हर हाल में वह अपने बच्चों के लिए करती आई है, मगर वक्त बदलते देर नहीं लगती।
         राधिका की छोटी बेटी अभी तो सिर्फ़ ११  साल की ही थी, इन दिनों राधिका की तबियत कुछ ठीक नहीं रहती थी, पहले तो राधिका ने इस बात पर ज़्यादा ध्यान नहीं दिया, मगर बाद में तकलीफ़ और बढ़ने लगी, तब राधिका के पति ने डॉक्टर के कहने पर राधिका का ब्लड रिपोर्ट करवाया, उस में राधिका को कैंसर आया, राधिका को तब सब से पहले अपने नहीं बल्कि अपने बच्चों के बारे में ख़्याल आया, कि मेरे बाद मेरे बच्चों का क्या होगा ? उन्हें वक्त पर कौन स्कूल भेजेगा ? वक्त पर कौन खाना खिलाएगा, रितेश को तो बच्चों के बारे में ज़्यादा कुछ पता ही नहीं, उन्हें तो अपने काम से फुर्सत ही कहा ? और माँ से बेहतर अच्छा ख़्याल और कौन रख सकता है ? राधिका को अजीब अजीब ख़्याल आने लगे।         
       आख़िर राधिका ने अपना मन बना ही लिया, कि कैंसर हो या कोई भी बीमारी हो, मुझे अपने बच्चों के लिए ठीक होना ही है, उसने अपने पति रितेश से कह दिया, कि " मेरा इलाज शुरू करवा दे, अगर पैसे कम पड़े तो मेरे सोने के गहने बेच दे लेकिन अच्छे से अच्छे डॉक्टर के पास मेरा इलाज करवाए और चाहे कुछ भी हो जाए मैं हिम्मत नहीं हारूंगी, मुझे मेरे बच्चों के लिए ठीक होना ही है।" 
          राधिका की ऐसी बात सुनकर रितेश को भी हिम्मत मिली, रितेश ने राधिका का इलाज अच्छे से अच्छे डॉक्टर के पास करवाया, kimo थेरपी की ज़रूरत पड़ी, तो वह भी करवाया, kimo थेरपी की वजह से उसे अपने लंबे बाल भी गवाने मंजूर थे। राधिका ने सोचा, कि बाल तो फिर से आ जाएंगे। उस वक्त राधिका ने बच्चों की देखरेख के लिए अपनी माँ को गाँव से बुला लिया और एक कामवाली बाई भी पूरे दिन के लिए घर पर रख ली, ऑपरेशन से पहले घर में सब सामान मंगवा के रख लिया ताकि माँ, बच्चें और रितेश को कोई तकलीफ़ ना हो, आख़िर राधिका जीत गई, रितेश ने पैसों का भी इंतजाम कर लिया, राधिका के गहने बेचने की भी ज़रूरत न पड़ी, माँ के प्यार के आगे भगवान को भी झुकना पड़ा, अब वह मौत के मुँह से बाहर है, भले ही उसे ठीक होने में काफी वक्त लग गया, मगर वह हिम्मत नहीं हारी, अब वह पहले की ही तरह बच्चों के साथ खेलती है, उनको स्कूल भेजती है, उनको होमवर्क करवाती है, साथ में गलती करने पर डांट फटकार भी लेती है, मगर बच्चों के साथ वह आज बहुत खुश है और अपने मंदिर में भगवान के आगे रोज़ एक दिया जलाकर, नई ज़िंदगी देने के लिए भगवान का शुक्रियादा करती है। 
       तो दोस्तों, यह बस एक माँ का प्यार, विश्वास और ताकत ही है, जो वह अपने बच्चों की ख़ातिर मौत के साथ भी लड़ जाती है, ज़िंदगी की हर तकलीफ़, हर दर्द भी हंसते हुए सह जाती है, बस यहीं एक माँ का दूसरा रूप भी है।

Bela...


                      4)  अन्याय 
           अन्याय आखिर कब तक सहेंगे ?

         ( सतीश ने अपनी पत्नी सुधा को गुस्से में अचानक से ही बड़े ज़ोर से आवाज़ लगाई। ) " सुधा, कहाँ हो तुम जल्दी से बाहर आओ। "
        ( सुधा सतीश की आवाज़ सुनते ही रसोई का सारा काम छोड़ डरती हुई भागी-भागी रसोई से बाहर आती है। )
    सुधा ने कहा, " क्या हुआ ? सब ठीक तो है, आपने इतनी ज़ोर से आवाज़ क्यों लगाई ? मैं तो डर ही गई। " 
      सतीश ने कहा, " तुम हर हाल में खुश कैसे रह सकती हो ? कभी तो अपने और अपनी बेटियों के बारे में सोचा करो। तुम्हें क्या लगता है ? अगर तुम मुझे नहीं बताओगी, तो क्या मुझे कुछ पता नहीं चलेगा ? क्या मैं इस घर में सिर्फ खाना खाने ही आता हूँ ? "
     सुधा की समझ में कुछ नहीं आया, सुधा ने आराम से सतीश से पूछा, " क्या बात है ? आप क्या कहना चाहते है ? मेरी तो कुछ समझ में नहीं आ रहा। "
      सतीश ने कहा, " जब से हमारी शादी हुई है, तब से में देख रहा हूँ, तुमने दिन रात मेरे परिवार का अपने से भी ज़्यादा ख्याल रखा है, तुमने दिन रात मेरी माँ के ताने सुनने के बाद भी उनकी हर तरह से सेवा की है, यहाँ तक की उनके अंत समय में तुमने उनकी एक नर्स की तरह सेवा की है, उनका गिला बिस्तर तक बिना किसी हिचक के साफ किया है, इतना तो बिना किसी शिकायत के कोई नहीं करता। तुम आखिर किस मिट्टी की बनी हो, इतना सब कुछ कैसे कर लेती हो ? ये तो ठीक है मगर माँ के जाने के बाद वसीयत में माँ ने तुम को उनके गहने में से सिर्फ उनके कंगन ही दिए, बाकि सब माँ ने अपनी बेटियों को दे दिया, ये जानते हुए भी की हमारी दो बेटियांँ है और अब उनकी शादी की उम्र भी हो चुकी है, तो उनके लिए भी कुछ सोचना पड़ेगा। ये सब तुम को पहले से पता था, फिर भी तुमने मुझे कुछ भी नहीं बताया और नाही कोई शिकायत की, तुम ऐसा कैसे कर सकती हो ? अगर तुमने मुझे ये बात पहले बताई होती, तो मैं कुछ सोचता ना ! मेरी पूरी कमाई घर खर्च और दो बहनों के नखरें उठाने में खर्च हो जाती है, लेकिन अब बस अब बहुत हुआ, आज तो दीदी ने सारी हदे पार कर दी।
      माँ के गहने लेने के बाद अब उन दोनों को अपने घर में भी हिस्सा चाहिए, कहते है, "बाबूजी का कोई ठिकाना नहीं, वो देंगे या नहीं, इसलिए बाबूजी के रहते ही हमें घर में अपना-अपना हिस्सा देदे, ताकि बाद में कोई परेशानी ना हो, आप के घर हम पहले की तरह आते रहेंगे, प्यार बना रहेगा।"
          सतीश ने चिढ़ते हुए कहा, कि " प्यार माय फुट ! ये भी क्या बात हुई उनको पता ही है, हमारे हालात। आज तक में चूप रहा, तुम पर और हमारी बेटी पर होते हुए अन्याय को में सब देखता रहा, सोच के कि आगे जाके सब ठिक हो जाएगा, मगर इन दोनों की मांँगे तो बढ़ती ही जा रही है।  मैं समझता था, कि एक ना एक दिन तुम ज़रूर आवाज़ उठाओगी, अपने हक़ के लिए, मगर नहीं... तुमने आज तक यह किया नहीं, सो तुमसे ना हो पाएगा। अब जो भी कुछ करना है, वह मैं ही करूँगा। अब यह अन्याय ना मैं सहूँगा और ना तुम्हें सहने दूँगा। "

        सुधा ने बड़े धीरे से बात को सँभालने की कोशिश की, और कहा, कि " पहले तो आप ज़रा शांत हो जाइए, माँ की आख़री इच्छा थी, तो उसे कैसे पूरी ना करती, चाहे भले किसी ने मेरी सेवा देखी न हो, मगर भगवान् तो सब देख रहा है, ना ! आज तक उसी ने सब संँभाला है, तो आगे भी वही सब संँभाल लेगा। इन्ही चक्कर में दीदी के साथ अगर हमारा रिश्ता टूट गया, तो लोग क्या कहेंगे ? ऊपर से आप अपनी बहन को तो जानते ही है, हमारे बारे में और भी बुरी बात सब से करेंगे, कि " हम ने उनको कुछ दिया नहीं। " हमारी बेटी के नसीब में जो लिखा होगा वही होगा, मेरे मायके के बहुत से गहने मेरे पास है, उनका मैं क्या करूंगी, कब काम आएंगे वह सब गहने ? वैसे भी आपको तो पता ही है, कि मुझे इन सब चीज़ों से कोई लगाव नहीं है, तो अगर ज़रूरत पड़ी तो उन्हीं गहने से हम नया बनवाकर  अपनी बेटी को कन्यादान में दे देंगे। " 
          मगर इस बार सुधीर नहीं माना, सुधीर ने कहा, " मुझे लोगों की कोई परवाह नहीं, जिसे जो बात करनी है, करने दो, तुमने अभी-अभी कहा ना, कि तुम्हारा भगवान् सब देखता है, तो तुम्हारे भगवान् ने ये भी देखा ही होगा, कि आज तक हमने अपनी नाकारी बहनों के लिए क्या कुछ नहीं किया ? और मैं भुला नहीं, कि जब माँ का बिस्तर गिला होता था, तब दोनों में से एक भी मिलने नहीं आई थी, एक को बुखार था और दूसरी के घर में गेस्ट आए हुए थे, मैं इन दोनों के बहाने अच्छे से समझता हूँ, अगर वे इधर आएंँगे तो माँ का गिला बिस्तर साफ़ करना होगा, यही सोच दोनों ने बहाना बनाया। मैं अच्छे से सब जानता हूँ और अब में माँ के गहनों में से जो उनका हक़ होगा, वही दूंँगा और इस घर में उनका कोई हक़ नहीं होगा। उनका जो हिस्सा होगा, वही इनको मिलेगा, बाबूजी से भी मैंने बात कर ली है, वह भी मान गए है, तो अब तुम्हें उन दोनों नाकारी बहनों पर दया दिखाने की कोई ज़रूरत नहीं। क्या बहन ऐसी होती है ? इस से अच्छा तो भगवान ने मुझे बहन दी ही नहीं होती। अब हम अपनी ज़िंदगी अच्छे से जिएँगे, किसी के डर की वजह से नहीं। क्योंकि मुझे पता है, वे दोनों यहाँ आकर तुम को भी बहुत खरी-खोटी सुनाती थी, तब भी तुम चूप रही, मगर अब और नहीं। बस मैंने बोल दिया सो बोल दिया, यह मेरा आखिरी फ़ैसला है। "

         कहते हुए सतीश वहांँ से चला जाता है। और सुधा सतीश को बाहर जाता हुआ देख, अपने बीते हुए साल सुधा की आँखो के सामने से जैसे गुज़रने लगे, कि कैसे इन लोगों ने उनको सताया था।  
  
    " शादी के इतने साल बाद भी हर त्यौहार पर सतीश की दोनों बहनें हर बार मायके चली आती थी और वह भी अपने शैतान बच्चौ के साथ। लेकिन सुधा कभी त्यौहार पर अपने घर नही जा सकती कयोंकि यहाँ पर पहले से ही ननंद आ जाती थी और सासु जी के पैरो में ददॅ की वजह से वह कुछ काम न कर पाती और ननंद तो आराम के लिए ही आई होती है, सो उनसे तो उम्मीद ही छोड दी थी हमने। मेरे पति सुबह से ओफिस चले जाते, सास-ससुर, ननंद और उनके बेटे सब साथ में घूमने जाते, मुवी देखते, बाहर तो खाना खाते मगर घर आकर भी अच्छे से खाते और वह भी पकवान चाहिए सबको,  फीका खाना तो किसी के गले उतरता नहीं। किसी को रस-मलाई चाहिए तो किसी को गाजर का हलवा, किसी को पिज़्ज़ा चाहिए तो किसी को पंजाबी खाना, सब की पसंद का खाना बनता मगर मेरी बेटियों के पसंद का खाना नहीं बनता। उसकी कोई परवाह नहीं, क्योंकि मेरी ननंद के तो दो बेटे थे और मझे दो बेटी, तो उनको तो पलकों पे रखते थे। हर त्यौहार पर उन सब के लिए तोहफ़े आ ही जाते और दो बहने भी मुँह उठाकर मांँग ही लेती, तब मेरी बेटी को "आज कल पैसो की कमी है, " कहकर मना लिया जाता। सुधा की आँखों के आगे वह सब घूमने लगा, उसका दिल भर आया। आज उसके दिल में भी बहुत कुछ था, लेकिन उसने अपने चेहरे पर ये बात कभी नहीं आने दी, मगर आज जब उसके पति ने उसके लिए आवाज़ उठाई तब उसके दिल को अच्छा लगा, ख़ुशी से ही सही सुधा की आँखें आँसू से भर आई। सुधा ने आज भी सिर्फ यही सोचा, कि " आज उसके पति उसके साथ थे, बस उसे अब और कुछ नहीं चाहिए। " 
        तो दोस्तों, अन्याय सहने की भी एक हद होती है, जहाँ तक सहेंगे, उतना वह लोग दबाते ही जाएँगे। लोगों के बारे में ना सोचकर अपने खुद के बारे में और अपने अपनों के बारे में भी सोचना चाहिए। अन्याय होते हुए देखना और अन्याय सहना दोनों गलत बात है,  " छोटा मुँह बड़ी बात " लेकिन उसकी सजा पितामह भीष्म को भी मिली थी, द्रोपदी पर होते हुए अन्याय को वह देखते रहे, उसके खिलाफ़ आवाज़ उठा न सके, वह द्रोपदी का वस्त्रहरण रोक सकते थे, मगर वह भी चूप रहे और शायद इसी वजह से महाभारत जैसा महायुद्ध होकर ही रहा। 

लघु-कथा 
Bela... 

             5)    ज़िम्मेदारी और प्यार

        हर लड़की की तरह मेरी कहानी की नताशा का भी एक सपना होता था, जैसे उसे कोई बहुत प्यार करे, उसकी तारीफ़ करे, उसके लिए मर मिटने की बातें करे, आसमान से चाँद और तारें ला ना पाए, तो भी कोई बात नहीं, कभी कभी उसे खुश करने के लिए ऐसी बातें किया करे, उसे सरप्राइज़ दे, उसे गिफ्ट दे, उसका पति उसे बहुत प्यार करे, उसके लिए दीवानगी की हर हदें पार कर जाए, जैसा फ़िल्मों में होता है, जैसे शाहरुख खान की दीवानगी और जैसे अनुपमा का अनुज। मगर जिंदगी कोई फिल्म नहीं हैं, यह एक सच्चाई है, जिसको साथ रखकर हमें जीना पड़ता हैं।
           एक दिन नताशा की कॉलेज की सहेली सुषमा जिसकी शादी बैंगलोर में हुई थी और यहाँ मुंबई वह अपनी फैमिली को मिलने के लिए कुछ दिन आई थी, तो आज सुषमा वक्त निकालकर नताशा से भी मिलने उसके घर आती है, वैसे सुषमा एक अच्छी psychologist भी है, इसलिए वह सब की बात अच्छे से समझ जाती है और सब को अच्छे से समझा भी देती है।
        नताशा वैसे सुषमा से कुछ भी नहीं छुपाती थी, मगर आज नताशा की बातें सुनकर सुषमा को लगा, कि कुछ तो ऐसा है, जो अपने अंदर नताशा ने दबाए रखा है, वह कुछ तो छुपा रही है, इसलिए सुषमा के बहुत पूछने पर फ़िर बातों बातों में नताशा ने अपने मन की उलझन के बारे में सुषमा को बताया, कि " नवीन हर वक्त अपने काम में ही उलझा रहता है, लेकिन मैं चाहती थी, कि मेरा पति मुझे प्यार से भी ज़्यादा प्यार करे, लेकिन यहाँ तो सब उल्टा ही हो रहा है, नवीन का ध्यान मुझ से ज्यादा अपने काम पर ही लगा रहता है, नवीन को तो ज़िंदगी में बहुत आगे बढ़ना है, नवीन को मैं क्या करती हूँ, क्या पहनती हूँ, मेरी तरफ़ उसका तो जैसे कभी ध्यान ही नहीं जाता, लेकिन हा, अगर कभी मैं बीमार हो जाऊं या मुझे कोई भी तकलीफ हो तो वह मुझे तुरंत डॉक्टर के पास ले जाता और खुद मेरी दवाई का खयाल रखता, मेरा अच्छे से ख़्याल रखता। वैसे तो मुझे किसी भी चीज़ की तकलीफ नहीं पहुँचने देता, मैं अपनी ज़िंदगी जैसे चाहे जी सकती, कहीं पर आने जाने की भी रोक टोक नहीं, कभी कभी मुझ को लगता कि नवीन मुझे बहुत प्यार करता है और कभी लगता कि नवीन का मेरी तरफ ध्यान ही नहीं, इन सब बातों की वजह से मैं अपने पति को अच्छे से समझ ही नहीं पा रही, मेरी तो समझ मैं कुछ नहीं आ रहा, नवीन मुझ से प्यार करता भी हैं या नहीं, मैं खुश हूँ भी या नहीं ? 
         तब नताशा को समझाते हुए सुषमा ने कहा, कि " तुम जैसा सोच रही हो, वैसा बिलकुल भी नहीं, नवीन भी तुमसे उतना ही प्यार करता होगा, जितना की तुम नवीन से करती हो, मगर वो कह नहीं पाता होगा, मैंने एकसर देखा है, कि एक पति पर बहुत सारी ज़िम्मेदारियां होती है, हर पत्नी को खासकर अपने पति से उस वक्त प्यार की आशा मत रखनी चाहिए, जब वह अपनी ज़िंदगी से लड़ रहा हो, जब वह अपनी ज़िंदगी के बहुत ही मुश्किल दौर से गुज़र रहा हो, या तो वह बहुत परेशानी में हो, या तो वह अंदर से बिलकुल टूट चुका हो, कभी कभी तुम्हारे लिए बहुत सारा प्यार होते हुए भी वह जता नही पाते, क्योंकि यह भी हो सकता हैं, कि वह अपने घर में सब को खुश देखना चाहता हो, सब की ज़रूरत पूरी करने में कभी कभी वह अपने आप को भी भूल जाता हो, अपनी ज़िंदगी की गाड़ी को पटरी पर लाने के लिए वह टूट चुका होता है, उस से यह कभी भी शिकायत भी मत करना कि उसके लिए तुम्हारा प्यार पहले जैसा नहीं रहा, बल्कि यह सोचना की उसके हालात भी तो पहले जैसे नहीं रहे, सब कुछ पहले जैसा हो जाए, इसीलिए तो वह अपने हालात से आज भी लड़ रहा हैं, नहीं तो मर नही गया होता वह अब तक हार मान कर, कभी कभी आप जिस इंसान से प्यार करते हो, वह इंसान भी आप से उतना ही प्यार करता हैं, लेकिन यह ज़िंदगी हैं मेरे दोस्त, यह कोई tv सीरियल या मूवी नहीं चल रही, जिसमें हीरो और हीरोइन को प्यार के अलावा और कुछ दिखता नहीं, असल ज़िंदगी में प्यार के अलावा बहुत सारी ज़िम्मेदारियां हीरो और हीरोइन को निभानी पड़ती है और अगर वह दोनों हर ज़िम्मेदारियों को आसानी से निभा पाए, तो पिक्चर हिट हो जाती है और अगर निभा नहीं पाते, तो रोज़ के झगड़े और आख़िर में कई लोग जुड़ा भी हो जाते है, उस वक्त अपने पति में अपने लिए प्यार तलाश ने की बजाय, अपने पति से प्यार बनाए रखे, उन्हें प्यार दे, उन्हें ज़िंदगी में आगे बढ़ने का हौंसला दे, हिम्मत दे और तुम यह तभी कर पाओगे, जब तुम्हें अपने प्यार पर यकीन होगा। " 
        तब नताशा अपने बीते दिनों को याद करते हुए सुषमा को कहती हैं, कि " शादी के कुछ साल बाद ही नवीन के पापा गुज़र गए थे और नवीन घर में उनका सब से बड़ा बेटा था, अब घर की हर ज़िम्मेदारी उसके कंधों पर आ गई थी, घर का खर्चा, हमारे दो बेटों की पढ़ाई का खर्चा, माँ की दवाई, उनके घुटनों के ऑपरेशन का खर्चा, बीच बीच में मेरा बीमार होना, नवीन ने हम सब का कितना खयाल रखा हैं, यह तो मैंने आज तक सोचा ही नहीं, नवीन की दोनों बहनों की पढ़ाई भी चल रही थी, पढ़ाई के बाद नवीन ने ही अपनी दो बहनों की शादी करवाई, उनको अच्छे से बिदा किया, बड़ा भाई होने का हर फर्ज़ अच्छे से निभाया, दोनों बहनों को पापा के ना होने का एहसास तक नही होने दिया, यहाँ तक कि आज तक वह मेरे साथ साथ अपनी बहनों का भी अच्छे से खयाल रखते आए हैं, हर तीज त्यौहार पर सब के लिए उपहार लेकर ही आते, बहन के घर भी किसी भी त्यौहार पर मिठाई न भेजी हो, ऐसा तो हो ही नही सकता, बीच में कोरोना की वजह से ऑफिस के साथ साथ सब काम छूट गया था, उसके बाद उन्होंने, अपने बलबूते पर नया बिज़नेस शुरु किया, कभी भी आराम से बैठे ही नहीं, आज यहाँ तो कल वहाँ, भागते ही रहते, इतना सब कुछ करने के बाद उन्होंने मुझ से कभी कोई शिकायत नहीं की, मैं जो भी बोलु चुपचाप सुन लेते फिर मुस्कुराकर चले जाते, मैं जब चीड़ सी जाती, तब उनको कितना भला बुरा सुनाया करती, तब भी वह चूप रहते, मेरी हर बात को हसीं में ताल देते, मैं भी कितनी पागल हूँ, जिस इंसान पर इतनी सारी ज़िम्मेदारियों का बोझ हो, वह भला प्यार के बारे में कैसे और कब सोचे ? हमें ही उनको समझना पड़ेगा और अपने आपको समझाना पड़ेगा, कि यह कोई मूवी या सीरियल नहीं, असल ज़िंदगी हैं। "
            कहते हुए नताशा हंसने लगी, नताशा ने अपनी दोस्त सुषमा का बहुत बहुत शुक्रिया किया, उसे यह सब बातें समझाने के लिए, अब नताशा को अपने नवीन पर और भी ज्यादा प्यार आने लगा, नताशा नवीन का खायल और भी अच्छे से रखने लगी।
           तो दोस्तों, कभी कभी ज़िंदगी में हमें अपनों का प्यार पाने के लिए उसे अच्छे से समझने की भी जरूरत रहती हैं और यह भी याद रखना, कि हर किसी के लिए ज़िम्मेदारी और प्यार दोनों को एक साथ निभाना कभी कभी मुश्किल हो जाता हैं।

Bela...

               6)    गलती किसकी ? 
        वैसे तो हमने देखा हैं, कि स्टार प्लस चैनल पर आ रही सीरियल " अनुपमा "  के तीन बच्चें हैं और साथ में एक माँ होने का हर फर्ज़ उसने बहुत ही अच्छे से निभाया, अनुपमा ने अपने हर बच्चों को अच्छे ही संस्कार दिए, कभी भी किसी भी माँ के लिए कोई ज़्यादा प्यारा या कोई कम प्यारा नहीं होता, वह अपने सब बच्चों को एक जैसा प्यार, संस्कार और सीख देती हैं। मगर कितना भी समझाने पर अगर बच्चा गलत रास्ते पर ही चले, तो तब उसमें माँ की कोई गलती नही होती और इस दुनिया की यह रीत चली आई है, कि बच्चा अगर कोई गलत काम करे तो गलत माँ को ही ठहराया जाता हैं, कि " माँ की ही गलती हैं, माँ ने कुछ ध्यान नहीं दिया, माँ ने कुछ सिखाया नहीं, माँ ने कुछ कहा नहीं और शायद यह सिर्फ़ अनुपमा का सवाल नहीं, यह हर घर की, हर माँ का सवाल हैं।"
        तो दोस्तों, बस मेरा यही सवाल हैं, कि ऐसा क्यों ? गलती बच्चें करे, चाहे वह बड़े हो या छोटे, गलती माँ के सिर पर ही डाल दी जाती हैं, कभी कोई ऐसा कहते हुए तो नहीं सुना कि, गलती पापा की हैं, उसने बच्चे का ख्याल नही रखा, कुछ सिखाया नहीं, तो फ़िर बच्चें अगर गलत राह पर चले तो गलती किसकी हुई ? 

Bela...

       

              7)   छोटा मुँह बड़ी बात


            सुनीता की कामवाली बाई का नाम कल्पना था, कल्पना सुनीता के घर 12 साल से काम करती थी, इसलिए सुनीता कल्पना को घर की हर बात कहती, सुनीता की सास वैसे तो अच्छी ही थी, मगर ना जाने क्यों, उसका उसकी बहू के साथ जमता नहीं, बार बार झगड़ा होता रहता, अपनी सास के साथ झगड़ा होने पर सुनीता बैग में अपना सामान भर बार बार अपने मायके चली जाती, फिर सुनीता का पति सुमेध उसे समझाकर घर ले आता, यह सब बातें कल्पना को भी पता थी, कल्पना बड़ी समझदार औरत थी, उम्र और तजुर्बे में भले ही वह सुनीता से छोटी, मगर बात वह बड़ी कर जाती, कल्पना भी सुनीता को बार बार समझाया करती, कि चाहे कुछ भी हो, ऐसे घर छोड़कर ना जाया करे, तब सुनीता उसकी बात सुन लेती।
        लेकिन एक दिन क्या हुआ, कि सुनीता का अपनी सास के साथ झगड़ा इतना बढ़ गया, कि इस बार तो वह स्टेशन चली गई और ट्रेन की पटरी को देखकर सुनीता सोचने लगी, कि " आज तो इसी ट्रेन के नीचे आकर मर जाऊ, रोज़ रोज़ के झगड़ों से तो शांति मिल जाएगी। " सोचते हुए सुनीता आती जाती ट्रेन को देखती रहती। तभी अचानक सुनीता की कामवाली बाई कल्पना वहाँ से गुज़र रही थी, कल्पना ने स्टेशन पर बैठ कर रोती हुई, अपनी मालकिन सुनीता को देखा, वह उसके पास गई और पूछा, कि ," क्या हुआ मालकिन, आप इस वक्त यहाँ क्या कर रहे हो ? "  
      तब सुनीता ने बताया, कि " अब तो मुझे जीने का भी मन नहीं करता, मम्मी जी के लिए कितना भी मैं कर लूँ, उनको कम ही पड़ता है, अब तो मैं यह थान के निकली हूँ, कि घर जाना ही नहीं है, मन करता है, अभी जो ट्रेन आए उसके नीचे आकर मर जाऊं, तब जाकर मम्मी जी को शांति मिलेगी।"
        कल्पना ने सुनीता को समझाते हुए कहा, कि " मालकिन ऐसा नहीं करते, आप तो समझो चले जाएंगे, लेकिन आपके पीछे आपके दोनों बच्चों का क्या होगा ? उनका कौन खयाल रखेगा ? माना की आपकी सास को इस से कोई फ़र्क नही पड़ेगा, लेकिन आपके पति और आपके बच्चें इस दुनिया में अकेले पड़ जाएंगे, उसके बारे में कभी सोचा हैं, मम्मी जी की बातों को दिल पर मत लगाया करो, ऐसा सिर्फ़ आपके घर में नहीं होता, ऐसा तो कई घर में होता होगा, मगर इसका मतलब यह थोड़े ना हैं, कि आप ज़िंदगी ही छोड़ दो, आप अपनी सास के साथ हैं ना, पंगा ही मत लो, अगर वह कुछ बोले आप चूप रहो और अपने काम में लगे रहो या तो एक कमरें में बैठ जाओ, वह अपने आप चूप हो जाएंगे, मैं भी ऐसा ही करती हूँ, फिर मेरी सास खुद ब खुद चूप हो जाती हैं और अभी आपकी सास 72 साल के तो हो ही गए होंगे, अभी उनको कितना जीना हैं, आप उनके साथ अच्छा ही व्यवहार करो, वह भी आपके साथ अच्छे से ही रहेंगे।"
       कल्पना की बातों से सुनीता के मन को फिर से तसल्ली मिली, सुनीता घर जाने के लिए तैयार हो गई, कल्पना खुद सुनीता मालकिन को घर तक छोड़ आती है। दूसरे दिन जब कल्पना काम पर आती है, तो सुनीता मालकिन को थोड़ा खुश देखकर कहा, कि " छोटा मुँह बड़ी बात " मालकिन, कल रात को अगर मैंने कुछ गलत कहा हो, तो माफ कर देना। "
         इस बात को एक साल बीत गया, कल्पना के घर आते ही सुनीता ने उस से कहा, कि " उस दिन तुमने अगर मुझे समझा बुझा कर घर वापस नहीं लेकर आई होती, तो आज मेरे पति और मेरे बच्चों का क्या होता ? रही बात मम्मी जी की तो अब उनसे तो में निपट ही लेटी हूँ, वह कुछ कहे तो मैं सिर्फ़ सुन लेती हूँ, वह खुद चूप हो जाते है, ऐसे करते अब वह भी मुझ से पहला जितना चिल्लाते नहीं है, ज़िंदगी थोड़ी आसान सी हो गई है। मुझे नहीं समझ आता, तुम्हारा धन्यवाद मैं कैसे करू ? " कभी कभी हम से छोटे भी हम से बड़ी बात कर जाते हैं। "
            कल्पना ने कहा, " ऐसा मत कहो, आप अपने परिवार के साथ खुश हो और खुश रहो, मुझे और कुछ नही चाहिए। "

#सत्य घटना पर आधारित 
Bela...

            

                                                 

                 8)     मान सम्मान 

       हनुमान जन्मोत्सव के दिन पूजा और परेश मंदिर जाने के लिए तैयार हो रहे थे, आरती के लिए सुबह जल्दी घर से निकलना था, इसलिए पूजा ने सुबह जल्दी उठकर घर का सारा काम निपटाया, खाना बनाया, बच्चों के कॉलेज का समय दोपहर का था, इसलिए उनको जाने में अभी देर थी और परेश को हर बार की तरह घर से निकलने की जल्दी लगी रहती, पूजा तैयार हो ही गई थी, तभी ज़रा सी देर होने पर परेश ने दरवाज़े पर जाकर पूजा को बड़ी ज़ोर से आवाज़ लगाई, " पूजा चलो "। परेश इतनी ज़ोर से चिल्लाए की एक पल के लिए तो पूजा डर ही गई, फिर भी वह परेश की एक आवाज सुनकर जैसी भी थी, वैसी कमरें से बाहर चली आई, पूजा को भी उस वक्त बहुत बुरा लगा, उसने पूरे रास्ते परेश से बात नहीं की, मगर इस बात का ज़रा सा भी एहसास शायद परेश को नहीं हुआ, की पूजा चूप हैं। फिर शाम होते होते पहले की तरह सब ठीक हो गया, पूजा हस्ते हुए परेश से बात करने लगी, मगर उसके दिल पर तो चौट लग ही गई थी, कि " उसने घर का पूरा काम निपटाया, तो उस में थोड़ी देर लग ही जाति हैं ना, उसमें इतना जोर से क्यों चिल्लाना ? दूसरी बार अगर ऐसा हुआ तो, वह तैयार होते हुए भी उनके साथ नहीं जाएगी, परेश से नाराज़ हो जाएगी। " मगर पूजा ऐसा करने का सिर्फ सोच सकती है, लेकिन शायद वह ऐसा कभी नहीं करेगी, क्योंकि उस में परेश से लड़ने की ताक़त ही नहीं और वह ज़्यादा दिनों तक परेश से बोले बिना भी रह नही सकती। 
          पूजा के दोनों बच्चों ने भी यह देखा, कि उनके पापा बड़े ज़ोर से और थोड़े गुस्से से उनकी मम्मी पर चिल्लाए। वह भी उस वक्त तो चूप रह गए और यह सिर्फ़ आज की बात नहीं थी, बच्चों ने ऐसा कई बार देखा और सुना था। परेश के ऐसे बर्ताव करने पर बच्चों के मन में अपने पापा के लिए प्यार और respect कम हो जाता, बच्चें जो अब बड़े होते जा रहे थे, वह सब कुछ देखते रहते और सोचते, कि " मम्मी रोज़ पूरे घर का और सब का कितना खयाल रखती, पूरा दिन कितना काम करती है, फिर भी पापा मम्मी पर ऐसे कैसे चिल्लाते हैं ? " फिर कभी परेश कहते, कि " बच्चें तेरी सभी बातें सुनते हैं, मुझ से पहले वह तुमको सारी बातें बतलाते हैं, मेरी तो कभी कुछ सुनते ही नहीं।" 
      तो दोस्तों, अब आप ही बताओ, अगर आप खुद ही अपनी पत्नी को मान और सम्मान नहीं देंगे, तो बच्चें कैसे आपको मान और सम्मान देंगे ? शायद इसी वजह से बच्चें अपने पापा से ज़्यादा अपनी माँ को प्यार करते हैं और घर में पापा इस बात से चिढ़ते हैं, कि घर में बच्चें उस से ज़्यादा अपनी मम्मी को प्यार करते हैं।

Bela...


             9) भरोसा ( १०० शब्दों की कहानी )

         अमेरिका से पियूष अपनी माँ को वृद्धाश्रम में से वापिस अमेरिका ले जाने आया था, बेटे की बात पर भरोसा कर वह जाने के लिए तैयार हो गई, तभी पियूष ने अपनी बैग में से कुछ प्रॉपर्टी के पेपर्स निकाले और बातों बातों में माँ से पेपर्स पर दस्तख़त करवा लिए। सुबह माँ अमेरिका जाने के लिए तैयार हुई तो पियूष का कोई अतापता ही नहीं था। माँ समझ गई, पियूष उसे नहीं, बल्कि उसके पैसे लेने ही आया था, यह सोच पियूष की माँ की आँखें भर आई। " माँ का भरोसा एक बार फ़िर से उसके बेटे ने तोड़ दिया। "
Bela...

 

                    10 )  पसंद नापसंद 

          आज राजेश और रानी की शादी की 25 वी सालगिरह थी, वह दोनों ने बाहर जाने का प्लान बनाया था, दोनों बाहर जाने के लिए तैयार हो रहे थे, तभी रानी ने आज अपनी पसंद का अच्छा सा रेड फ्रॉक पहना। राजेश ने देखा तो तुरंत ही रानी से कहा, कि " ये क्या पहना ? साड़ी पहनो ना, तुम साड़ी में बहुत अच्छी लगती हो।" और इस तरफ़ रानी को साड़ी पहनना बिलकुल अच्छा नहीं लगता था, वह साड़ी में एक घुटन सा महसूस करती और अपने आप को uncomfortable भी महसूस करती, मगर फिर भी राजेश की खुशी के लिए वह कभी कभी साड़ी पहन लिया करती। मगर आज तो रानी को साड़ी पहनने का बिलकुल मन नहीं था, इसलिए उसने भी राजेश से कहा, कि " आप भी आज कुर्ते की जगह जीन्स और टी शर्ट पहन लो, आप उसमें काफ़ी young और handsome लगते हो।"
        तभी राजेश ने कहा, कि " तुम तो जानती ही हो कि मुझे जीन्स और टी शर्ट में बड़ी घुटन महसूस होती हैं, वह तो ठीक हैं, कभी कभी पहन लिया करता हूँ, मगर आज नहीं। 
      तभी रानी ने मौके का फ़ायदा उठाकर कहा, कि " बस उसी तरह जिस तरह मुझे साड़ी में अच्छा नहीं लगता, फिर भी मैं आपकी खुशी के लिए पहनती हूँ ना, तो आज आप भी मेरी खुशी के लिए जीन्स और टी शर्ट ही पहनो, जो मैं आज आपके लिए नए लेकर आई हूँ।" 
        रानी ने बड़े प्यार से यह बात कहीं, इसलिए रानी का मन रखने के लिए राजेश ने जीन्स और टी शर्ट पहन लिए, फिर रानी ने कहा, कि " तो चलो आज हम मेरी पसंद का खाना भी खाएंगे, जैसे आपको पनीर की सब्जी, रोटी और बिरयानी पसंद हैं, वैसे ही मुझे चाट पूरी और चाईनीज खाना है क्योंकि आपकी पनीर की सब्जी, रोटी खाकर में बोर हो गई हूँ।" आज खुलकर पहली बार रानी ने अपने मन की बात कह दी थी, इसलिए यह सुनकर पहले तो राजेश ने थोड़ा मुँह बनाया, लेकिन फिर उसने बात मान ली। राजेश और रानी ने आज पहली बार शादी की सालगिरह रानी की पसंद से मनाई।
          घर आकर राजेश ने रात को बिस्तर पर लेटते हुए रानी से कहा, कि " इतने साल से तुम मेरा मन रखने के लिए, मुझे खुश करने के लिए, अपने मन को मारकर मेरे मुताबिक ज़िंदगी जीती आई हो, मुझे अच्छा लगे इसलिए मेरी खुशी के लिए साड़ी पहन लेती हो, जो की वह तुम्हें uncomfortable फील करवाता हैं, मेरी पसंद की पनीर की सब्जी हस्ते हुए हर बार खा लिया करती हो, मगर आज मुझे एहसास हुआ कि " जैसे मेरी पसंद नापसंद होती है, वैसे ही तुम्हारी भी पसंद नापसंद होती है, इसलिए अब से तुम्हें जो भी पहनना हो, तुम वहीं पहनना, तुम्हें जो भी खाना हो, तुम वहीं खाना, क्योंकि आज पहली बार मुझे लगा, कि अपने तरीके से अगर हम कपड़े ना पहने, अपनी पसंद का खाना ना खाए, अपनी पसंद से ज़िंदगी ना जी पाए, तो कैसा लगता हैं।" 
        राजेश की बात सुनकर रानी ने खुश होकर राजेश को गले लगा लिया और अपनी बात और उसे समझने के लिए उसका शुक्रियादा किया।
          तो दोस्तों, कभी कभी हमें सिर्फ़ अपनी पसंद नापसंद अपने जीवन साथी पर नहीं थोपनी चाहिए, उनकी भी अपनी पसंद ना पसंद होती हैं, उनकी भी अपनी ज़िंदगी होती हैं, उनको भी अपने तरीके से ज़िंदगी जीने का हक़ हैं और वह हक़ हम सभी को एक दूसरे को देना चाहिए और जहाँ तक मुझे पता है, यह अलग बात है, कि कई बार ऐसा भी होता है, कि हम अपने मन की ही बात अपने जीवन साथी से बरसों तक नहीं कह पाते, जो हमें पहले ही खुलकर बता देनी चाहिए।
 
Bela...

                       11)   एक फ़ैसला

                                    एक फ़ैसला
           मालती अपने पति, सास, ससुर और अपने बेटे माधव के साथ रहती थी, बस यही मालती का छोटा सा परिवार था। मालती बचपन से ही कृष्ण को बहुत मानती थी और एक छोटे से लडडू गोपाल भी उसके पास थे, तो मालती रोज़ उस लडडू गोपाल की सेवा किया करती, इसलिए उसने अपने बेटे का नाम भी कृष्ण के नाम से ही रखा, " माधव "। माधव के जन्म से ही मालती को ऐसा लगने लगा था, कि जैसे सच में कान्हा जी ही बेटे के रूप में मेरे घर आए है और इस वजह से भी मालती अपने माधव से बहुत प्यार करती, अपने लाडले बेटे में जैसे उसकी जान बसी हुई थी, कान्हा जी की सेवा पूजा के बाद पूरा दिन मालती अपने सास, ससुर, अपने पति की सेवा करती और अपने बच्चें की देखभाल में कहाँ समय बीत जाता, यह मालती को पता ही नहीं चलता। कान्हा जी की कृपा से मालती की ज़िंदगी हंसी खुशी चल रही थी।
         लेकिन एक दिन वक्त ने करवट बदली, उसके पति को हार्ट अटैक आया और 52 साल की उम्र में वह चल बसे, माधव की शादी हो गई थी, वह जॉब करता था, मालती के पति के जाने के बाद पैसे की तकलीफ और ज़्यादा बढ़ने लगी, उसके सास, ससुर भी उम्र के हिसाब से बीमार रहने लगे, कुछ साल बाद वह दोनों भी गुज़र गए, अब घर में मालती उसका बेटा माधव, माधव की पत्नी और उसकी एक छोटी सी बेटी रश्मि थे, फिर भी घर का खर्चा चलाना बहुत ही मुश्किल हो रहा था, मालती घर का सारा काम निपटाकर कृष्ण भक्ति में लग जाती, रोज़ कृष्ण के मंदिर जाती, मंदिर में पूजारी जी को मंदिर के कामों में भी हाथ बताती, उसे कान्हा जी की सेवा करनी बहुत अच्छी लगती, कान्हा जी की सेवा के वक्त वह सब कुछ जैसे भूल जाती, बस वो और उसके कान्हा जी। कुछ महीनों बाद बहु और बेटे ने अपना रंग दिखाना शुरू कर दिया, नाहीं मालती को माधव अपने खर्चे के लिए पैसे देता और नाहीं कभी सीधे मुँह अपनी माँ से बातें करता, हर बात पर टोकते रहते, माँ यह मत करो और यह मत करो। यशोदा रोज़ के ताने सुनकर परेशान हो गई थी, दूसरों की तो छोड़ो, जब अपना ही बेटा ऐसा करे तो क्या करे, वह अपना मन कृष्ण भक्ति में लगाने लगी, अब उसको वहीं अच्छा लगता, वह अपने मन की सारी बातें अपने कृष्ण को कहती। कृष्ण मंदिर जाकर वहाँ कृष्ण की सेवा में अपना मन लगा लेती।
         एक दिन माधव ने मालती से कह दिया, कि " अगर आपको मंदिर में कृष्ण की सेवा ही करनी हैं, तो आप घर आते ही क्यों हो, वहाँ अपने कृष्ण के साथ मंदिर में ही रहो, वहीं आपका खाना और रहना का इंतजाम भी देख ही लेंगे।" बेटे की यह बात मालती के दिल को छू गई। अब उसका मन अपने बेटे से उठ गया था, सब माया को भी अब उसने छोड़ दी, मालती ने उसी रात घर छोड़ने का फ़ैसला कर लिया। मालती ने रात को ही अपना सामान बांध लिया, सुबह होते ही मालती अपना नित्य कार्य कर के अपने कान्हा जी को अपने साथ लेकर चली गई, उस वक्त उसे पता नहीं था, कि आगे उसके साथ क्या होनेवाला हैं, बस अपने कान्हा जी का नाम लेते हुए मंदिर की ओर उसके कदम चल पड़े, आज सामान के साथ मालती को देखकर मंदिर के पंडित जी भी समझ गए, कि आख़िर मालती ने अपना घर छोड़ ही दिया।                 
       पंडित जी ने कहा, " अच्छा किया यशोदा, जो तुम सामान लेकर ही यहाँ आ गई, अब यह मंदिर और कान्हा जी की सेवा आज से तुम को ही करनी है, इन दिनों मेरी भी कुछ तबियत ठीक नहीं रहती, आखिर इस उम्र में मुझ से इतना काम होता भी नहीं, अब तुम आ गई हो, तो में चैन की नींद ले सकता हूँ, मुझे हर पल यही चिंता सताए हुए थी, कि मेरे बाद इस मंदिर का क्या होगा, मंदिर की सेवा पूजा कौन करेगा ? लेकिन अब तुम आ गई हो, तो मुझे कोई चिंता नहीं, वह खोली में अपना सामान रख लो, आज से तुम यही रहोगी, मेरी बेटी तो नहीं है, इसलिए कान्हा जी ने तुम्हें मेरी बेटी बनाकर भेजा है। पंडित जी की बात सुनकर मालती की आँखों से आँसु बहने लगे, मालती ने पंडित जी के पैर छूकर उन्हें प्रणाम किया और अपना सामान खोली में रखने चली गई। 
         उसके बाद मालती ने मन लगाकर मंदिर में कान्हा जी की सेवा करनी शुरू कर दी, अब मालती ने मंदिर में हर सोमवार, गुरुवार को और अग्यारस को कृष्ण के भजन का कार्यक्रम भी रखा, मंदिर में समयसर आरती, भोग सब होने लगा, मंदिर में अब हर त्योहार घर की तरह ही मनाने लगे, लोग भी पहले से ज्यादा आने लगे, कुछ ही महीनों के बाद छोटा सा मंदिर अब " मुरलीधारी कान्हा जी का मंदिर" के नाम से जाना जाने लगा। 
          एक दिन कान्हा जी के सामने बैठकर मालती कान्हा जी से पूछ रही थी, कि " पता नहीं कान्हा जी मेरे किस जन्म का पाप आज मेरे सामने मेरा बेटा बनकर आया है और मुझे इतना दुःख दे रहा है, मैंने तो सपने में भी नहीं सोचा था, कि मेरा माधव मुझ से ऐसा बर्ताव करेगा और मुझे घर से जाने के लिए भी कह देगा, इतने सालों के प्यार का यही ईनाम मिला मुझे, मगर कोई बात नहीं, कर्म की गति न्यारी है, शायद मैंने ही किसी जन्म में अपने बेटे का दिल दुखाया होगा, उसको दर्द पहुँचाया होगा, बस इसी बात का बदला आज वह मुझसे ले रहा है, और तो क्या ? कान्हा जी, अब आप ही बताइए, कि मेरे घर छोड़ने का फ़ैसला बिलकुल सही था ना ? क्योंकि अगर मैंने घर नही छोड़ा होता, तो मुझे रोज़ रोज़ अपने बेटे और बहू के ताने सुनने पड़ते और मन ही मन दुःखी रहती और मैं आपकी सेवा भी इतनी नहीं कर पाती, अच्छा हुआ कान्हा जी, जो आपने मेरा हाथ थाम लिया और मैं आपकी शरण में आ गई, अब यह जीवन आपको समर्पण हैं। "
          तो दोस्तों, ज़िंदगी में एक बात तो पक्की है, की अगर आप दिल से कृष्ण का नाम लो, उसकी भक्ति करो, तो आपके मुश्किल समय में वह आपका हाथ पकड़ने ज़रूर आएगा और आपको सही रास्ता भी वहीं दिखाएगा, इसलिए ज़िंदगी में चाहे कुछ भी हो जाए, कितनी भी परेशानी का सामना क्यों न करना पड़े, मगर उस वक्त भी एक कृष्ण पर भरोसा ज़रूर रखना क्योंकि उस से बड़ा दिलवाला और उसके जैसे साथ निभानेवाला इस दुनिया में और कोई नहीं। 

Bela...

            
                   12 )    मेरी अम्मा 
          केरला के क़रीब कोची स्टेशन के एक प्लेटफार्म पर एक बुढ़िया औरत सिकुड़कर पड़ी हुई थी, उसकी लाठी उसकी बगल में पड़ी हुई नज़र आ रही थी, अक्सर उस प्लेटफार्म पर ट्रेन के आने से लोगों की भगदड़ मची रहती है, कई लोग तो ज़ल्दबाज़ी में उस बुढ़िया औरत के ऊपर से चढ़कर गुज़र जाते, तो कई लोग सँभल कर भी जाते, कई लोगों का पाव भी उस बुढ़िया के अंग पर लग जाता, लेकिन उस बुढ़िया को तो कुछ भी समझ नहीं, बिखरे हुए से बाल, फटे पुराने से कपड़े, उस बुढ़िया को देखने से तो लगता, कि जैसे कई दिनों से नहाई भी नहीं होगी, बेजान सी एक ही जगह पर बस यूंही पड़ी रहती, वह सिर्फ़ ढूंढ़ला ढूंढला सा देख पाती, उसे पल भर देखने से लगता, कि " वह ज़िंदा भी है या मर गई है, कौन जाने ?" ऐसी उस बुढ़िया की हालत थी। ट्रेन के जाने के बाद, थोड़ा सा भीड़ धक्का कम होने के बाद, एक पेपर की दुकान पर काम कर रहा एक लड़का, जो कब से उस बुढ़िया को देख रहा था, उस लड़के को उस बुढ़िया की हालत पर तरस आ गया और उस लड़के ने बुढ़िया को हल्के हाथ से खींच कर अपनी दूकान की ओर ले आया और एक बेंच पर बैठाते हुए बुढ़िया से कहता है, कि " अम्मा, यहाँ पर तुम आराम से बैठो।" 
         अम्मा शब्द सुनते ही बुढ़िया कुछ पल उस लड़के को बहुत ध्यान से देखती रही, थोड़ी देर बाद वह बुढ़िया फिर से आंखें मिंच कर वहींं पर सो गई। दोपहर में जब खाने का वक्त हुआ, तब वह लड़का जिसका नाम किशोर था, वह अम्मा के लिए खाना अपने साथ लेकर आया और उस बुढ़िया औरत से पूछा, " अम्मा, कुछ खाना खाओगे क्या ? "  इस बात पर बुढ़िया ने लड़के को गले लगा लिया और दूसरे ही पल स्टीवन कर के जोर से चिल्लाई और मलयाली भाषा में चिल्लाने लगी,  चिल्लाते चिल्लाते फिर से वह औरत थक कर आंख बंद कर के जैसे सो गई।
            किशोर अब सोचने लगा, कि बात क्या हो सकती है ? इतना तो उसे समझ में आ गया था, कि बुढ़िया केरल की ही होगी और स्टीवन नामक लड़के को वह ढूंढ रही है। किशोर ने सोचा की ऐसा क्या किया जाए, जिस से इस बुढ़िया का थोड़ा बहुत दुःख कम हो जाए, सोचते हुए किशोर उस बुढ़िया को अपने साथ अपनी चाली में ले गया, फिर उसने उस बुढ़िया को जलपान करवाया और किशोर ने उस बुढ़िया की दिल से इतनी सेवा की, कि एक दो दिन में वह बुढ़िया में जैसे ताकत आ गई हो और अब वह अच्छे से देख भी सकती थी।
        बुढ़िया ने किशोर से कहा, कि " तू तो मेरा स्टीवन है ही नहीं, तो फिर तू है कौन ? " किशोर ने फिर अपना नाम कहा और टूटी फूटी इंग्लिश में केहने लगा, कि " आपको समझ में आ रहा है ना अम्माजी " और उसने अपना सिर झुकाकर अम्माजी से आशीर्वाद लिया। फिर अम्मा ने अंग्रेजी शब्दों में कहा, कि " वह केरला से है और उसकी बातों से लगा, की वह काफी एजुकेटेड भी है और बात करते करते वह बुढ़िया औरत अपनी ज़िंदगी के १८ साल पीछे चली गई और कहने लगी, कि " स्टीवन जब ७ साल का था, तब उसके पिताजी ऑटोरिक्सो चलाते थे और एक दिन अचानक से उनका एक्सीडेंट हो गया और स्टीवन ने अपने पिताजी को हमेशा के लिए खो दिया और मैंने मेरे पति को भी खो दिया, लेकिन उस बुरे वक्त में भी मैंने हिम्मत नहीं हारी, क्योंकि मुझे अपने स्टीवन के लिए जीना था, उसके पिताजी के जाने के बाद में ही स्टीवन की हिम्मत बनी, स्टीवन को पढ़ाया, लिखाया, educate किया, उसे ज़िंदगी में कभी किसी चीज़ की कमी नहीं होने दी। लेकिन वो कहते है ना, कि " ज़िंदगी में हर दिन खुशी का नहीं होता।" वैसा ही कुछ हमारी ज़िंदगी में भी हुआ, स्टीवन ने एक दिन अपने दोस्तों के साथ बीच पर जाने की जिद्द की, मैंने उसे बहुत समझाने की कोशिश की, बहुत रोका, मगर स्टीवन उस वक्त नहीं रुका, केरला के कॉलम बीच पर अक्सर एक्सीडेंट होते रहते थे, इसी वजह से मैं उसे अपने दोस्तों के साथ जाने को मना कर रही थी, तभी स्टीवन और उसके दोस्तों के साथ भी ऐसा ही कुछ हुआ, इतफ़ाक की बात तो यह है, कि स्टीवन के सभी दोस्तों की बॉडी मिल गई मगर स्टीवन का कुछ पता नहीं चला, उसके बाद से मैं अपने स्टीवन को इधर से उधर, दरबदर भटक कर ढूंढ रही हूँ, क्योंकिं कोई चाहे जो भी कहे मुझे ऐसा लगता है, कि मेरा बेटा स्टीवन आज भी ज़िंदा है और एक ना एक दिन वह मुझे ज़रूर मिल जाएगा।"
         एक चर्च के father, जहाँ मैं अक्सर जाया करती थी, उस Father ने भी मुझे समझाने की बहुत कोशिश कि, फिर एक सुबह मैंने वकील को बुलाया और अपना घर और सब कुछ चर्च को देकर, वहाँ से भी चल निकली, मैंने अपना घर भी छोड़ दिया और मुझे कुछ भी पता ही नहीं की मुझे कहाँ जाना है और कहाँ नहीं ? मैं अपने बेटे को कहाँ और कैसे ढूंढू ? बस तब से मैं अपने स्टीवन को ढूंढने के लिए इधर से उधर भटकती रहती हूँ, क्योंकि मेरा दिल कहता है, कि एक ना एक दिन मेरा बेटा मुझे ज़रूर मिल ही जाएगा। " 
      उसके बाद मेरी अम्मा ने किशोर को देखते हुए कहा, कि " तू भी मेरा स्टीवन जैसा ही है, मगर फ़िर भी मेरी अम्मा कहते कहते रो पड़ी, कि मेरा स्टीवन मुझे ढूंढ के दो। "
              असलियत में स्टीवन के साथ क्या हुआ था ? और उसके दोस्तों के साथ क्या हुआ था ? यह कोई नही जान पाया। लेकिन एक दिन समंदर किनारे एक लड़का बेहोश पड़ा हुआ था, वहाँ पर रहते मछुआरे ने उसे देखा और उसका इलाज करवाया, एक दो दिन में उस लड़के को होश आ गया, जब उस लड़के से पूछा गया, कि वह कहाँ से है ? और उसका नाम क्या है ? तब उसने बताया कि, "वह केरला से है, उसका नाम स्टीवन है और उसे अपनी माँ के पास वापस जाना है, अब स्टीवन वापस केरला आकर अपनी माँ को ढूंढ रहा है, स्टीवन अपने घर जाता है, लेकिन घर पर ताला लगा हुआ था, पड़ोसी को पूछा, तो उनको भी अम्मा के बारे में कुछ पता नहीं, उन्होंने सिर्फ़ इतना ही कहा, कि तुम्हारे जाने के बाद से तुम्हारी अम्मा तुझे ढूंढ रही थी, उसे इस बात पर भरोसा नहीं हो रहा था, कि तू मर गया है, उसका भरोसा सच साबित हुआ, देख उसका स्टीवन आ भी गया, तेरे जाने के बाद अम्मा कुछ दिन उस चर्च मैं ही ज्यादा वक्त गुजारती थी, उसके बाद अचानक से वह कहाँ चली गई, कुछ पता नहीं। यह सुनते ही स्टीवन अपनी अम्मा को ढूंढते हुए चर्च के Father के पास जाता है, वहाँ उसे पता चलाता है, कि " उसकी माँ ने अपना घर चर्च को दे दिया और अपने स्टीवन को पागलों की तरह ढूंढ रही होगी। " 
        यह सुनते ही स्टीवन की आंखों में आंसू आ गए, स्टीवन को वह दिन याद आ गया, जब उसकी माँ ने उसे दोस्तों के साथ बीच पर जाने को मना किया था, कि शायद उस दिन मैंने अपनी अम्मा की बात मान ली होती तो, आज उसकी अम्मा उसके साथ होती और उसके दोस्त भी शायद ज़िंदा होते, मगर होनी को कौन टाल सकता है ? 
        अब स्टीवन की ज़िंदगी का एक ही मक़सद था, कुछ भी कर के अपनी मेरी अम्मा को ढूंढना। स्टीवन ने अपनी अम्मा को ढूंढने के लिए दिन रात एक कर दिए, हर गली, हर चौराहे पर वह गया, आते जाते सब लोगों को अपनी अम्मा की तसबीर दिखाकर पूछता रहता, कि " आपने मेरी अम्मा को कहीं पर देखा है ?" मगर हर रोज़ वह निराश हो जाता और फिर रात को थक हार कर घर वापस चला आता, चर्च के father ने स्टीवन की परेशानी समझते हुए उसे अपना घर वापस दे दिया और यह दिलासा दिया, कि उसकी अम्मा एक न एक दीन उसे ज़रूर मील जाएगी।
         उस तरफ किशोर मेरी अम्मा को अपने साथ अपने घर लेकर गया और मेरी अम्मा का अपनी माँ की तरह अच्छे से ख़्याल रखने लगा, वह अपने घर में अकेला ही था, इसलिए अब किशोर मेरी अम्मा को ही अपनी माँ समझने लगा। एक दिन किशोर को अपनी पड़ोस में रहते दोस्त की शादी में जाना था, मगर वह अकेला जाना नही चाहता था, इसलिए उसने मेरी अम्मा को अपने साथ शादी में आने के लिए कहा, लेकिन पहले तो मेरी अम्मा ने बहुत मना किया, कि " उसे कहीं भी जाने का मन नहीं है, वैसे तुम बच्चों के बीच में मैं बुढ़िया क्या करूंगी, तू आराम से अपने दोस्त की शादी में जा और जल्दी लौट आना। " मगर किशोर ने अम्मा की एक न सुनी, किशोर जिद्द कर के अम्मा को अपने साथ शादी में लेकर ही गया।
          और उस तरफ स्टीवन के जो नए दोस्त थे, उनको भी कहीं शादी में जाना था, उन्होंने भी स्टीवन की एक बात न सुनी और जिद्द कर के स्टीवन को अपने साथ शादी में लेकर ही गए। 
         इतफ़ाक से यह जगह वही थी, जहाँ पर किशोर भी अपनी मेरी अम्मा को साथ लेकर आया था, मगर दोनों को पता नहीं था, कि आज वह दोनों मिलने वाले है। स्टीवन की आंखें अब भी उस भीड़ में भी अपनी मेरी अम्मा को ही ढूंढ रही थी और उस तरफ मेरी अम्मा भी हर जवान लड़के में अपने खोए हुए बेटे को ढूंढ रही थी।
          अम्मा एक कोने में कुर्सी पर बैठकर हर आते जाते को गौर से देखती रहती, शादी ख़तम होते ही किशोर अम्मा के पास आता है और उसे खाने के लिए चलने को कहता है, मेरी अम्मा ने खाने को मना करते हुए कहने लगी, कि उसे भूख नहीं है और उसकी तबियत भी कुछ ठीक नहीं लग रही, तू जल्दी से खाना खा ले, फिर हम वापस घर चलते है, ना जाने क्यों मुझे बड़ी थकान सी मेहसूस हो रही है, "  कहते कहते ही मेरी अम्मा की सास अचानक से फूलने लगी और वहीं कुर्सी पर बैठे बैठे ही अम्मा की आंखें बंद होने लगी, वह कुर्सी पर से गिरने ही वाली थी, कि किशोर ने उसे सँभाल लिया, अपने दोस्तों को मदद के लिए बुलाया, थोड़ी देर में वहां सब लोग इकट्ठा हो गए, भीड़ जमा होने लगी, यह जानने के लिए की क्या हुआ होगा ? स्टीवन भी इतफाक़ से उस वक्त वहीं पर था, इसलिए लोगों की भीड़ देखकर वह भी उस भीड़ की ओर जाता है, लोगों के बताने से उसको पता चलता है, कि " एक किशोर नाम के लड़के की माँ ज़रा बेहोश हो गई, डॉक्टर भी वहीं पर थे, तो वह उस बुढ़िया को देख रहे थे, " यह सुनकर स्टीवन को अपनी अम्मा फिर से याद आने लगी, और मन ही मन उसने pray किया, कि " वह जो भी औरत हो उसे जल्दी से ठीक कर दो। एक बेटा और माँ के अलग होने का दर्द क्या होता है, यह मैं अच्छे से जानता हूँ। "
            डॉक्टर ने सब से कहा, कि " अम्मा को सास लेने में दिक्कत हो रही है, यहाँ से भिड़ कम करो और हवा आने दो, अम्मा का सिर्फ ब्लड प्रेशर हाई हो गया हैं और कुछ नहीं, थोड़ी देर में वह ठीक हो जाएगी। " डॉक्टर की बात सुनकर सारे जमा हुए लोग धीरे धीरे वहाँ से हटने लगा, स्टीवन भी वहाँ से जा ही रहा था, कि उसको एक बार ख्याल आया, कि वह औरत कौन हैं, एक बार देख तो लू, सोचते हुए स्टीवन उस औरत की ओर जाता हैं, अब भी किशोर अम्मा का हाथ पकड़े उसे सहला रहा था, वह अम्मा के चेहरे की और झुका हुआ था, इसलिए स्टीवन अम्मा का चेहरा ठीक से देख नहीं पाया और बिना चेहरा देखे ही स्टीवन घूम कर वापस जाने लगा, तभी अम्मा बेहोशी की हालत में स्टीवन स्टीवन कर के चिल्लाने लगी, आवाज सुनते ही स्टीवन वहीं पर रुक गया और पीछे मुड़ कर उस औरत की तरफ़ आगे बढ़ता हैं, जो अब भी स्टीवन कर के चिल्ला रही थी, स्टीवन ने अब बिना सोचे वहाँ पर बैठे किशोर को धीरे से धक्का दे दिया और सामने अपनी माँ को देखकर स्टीवन की आंखें भर आई, अम्मा और स्टीवन की खुशी का ठिकाना ही ना रहा, माँ और बेटे को साथ में देखकर किशोर की आंखें भी भर आई, किशोर ने मन ही मन भगवान से माँ और बेटे को मिलाने के लिए धन्यवाद किया। 
        अम्मा ने इशारे से किशोर को अपने पास बुलाकर कहा, कि " अच्छा हुआ, की आज तू मुझे जिद्द कर के यहाँ लेकर आया, वरना मेरा बेटा स्टीवन मुझे आज भी नही मिलता और आज से मेरे एक नहीं दो बेटे हैं, किशोर और स्टीवन। अब मुझे अपने बेटों से कोई अलग नहीं कर सकता।" 
      और अम्मा ने स्टीवन को किशोर के बारे में सब कुछ बतलाया, कि जब तुम नही थे, तब किशोर ने मेरा बहुत ख्याल रखा था और उसी की वजह से आज मैं तुम से फिर से मिल पाई हूँ।            किशोर भी अम्मा और स्टीवन के गले लग गया। स्टीवन ने कहा, कि " हा माँ, मेरे दोस्त भी अगर मुझे जिद्द कर के यहाँ नहीं लेकर आए होते, तो आज भी मैं आप से नहीं मिल पाता, आज से हम सब साथ में रहेंगे और मैं अब तुझे छोड़कर कहीं नही जाऊंगा, तेरा हर कहा मानुगा।" 
         फिर मेरी अम्मा, स्टीवन और किशोर तीनों साथ में खुशी खुशी रहने लगे।
        तो दोस्तों, बस ऐसे ही एक माँ का भरोसा जीत गया और उसका बेटा उसे वापिस मिल गया।
         दोस्तों मैंने इस कहानी का दूसरा अंत भी लिखा है, और यह दोनों में से आपको कौन सा अंत अच्छा लगा यह मुझे ज़रूर बताएगा।

Bela...
       मेरी अम्मा कहानी का दूसरा भाग
       
          यह सुनते ही स्टीवन की आँखों में आँसू आ गए, स्टीवन को वह दिन याद आ गया, जब उसकी माँ ने उसे दोस्तों के साथ बीच पर जाने को मना किया था, कि शायद उस दिन मैंने अपनी माँ की बात मान ली होती तो, आज उसकी माँ उसके साथ होती और उसके दोस्त भी शायद ज़िंदा होते, मगर होनी को कौन टाल सकता हैं ? अब स्टीवन के जीवन का भी एक ही मक़सद था, अपनी माँ को ढूँढना। स्टीवन ने तै कर दिया, कि चाहे कुछ भी हो जाए, वह अपनी माँ को ढूँढ के ही रहेगा। स्टीवन भी अपनी माँ के लिए दरबदर भटकने लगा, इस शहर से उस शहर, इस स्टेशन से उस स्टेशन। स्टीवन दिन ब दिन कमज़ोर होने लगा, उसे नाहीं कुछ खाने पीने का होश था और नाही किसी और बात का, देखते ही देखते एक महीना और गुज़र गया। 
            एक दिन स्टीवन अपनी माँ को ढूँढते ढूँढते उस स्टेशन पर पहुँच गया, जहाँ उसकी माँ को आखरी बार किशोर ने संभाला था, इतफ़ाक़ से स्टीवन थका हारा, किशोर की दुकान पर जाकर वहाँ बेंच पर बैठकर रोने लगा, किशोर की नज़र स्टीवन पर पड़ी, पहले तो किशोर कुछ देर तक स्टीवन को देखता रहा, फिर उसके पास जाकर पूछा, कि " साहेब, आपको क्या चाहिए।" स्टीवन अब भी अपनी माँ की याद में खोया हुआ था, उसने सिर्फ इतना ही कहा, कि मेरी अम्मा को ढूँढ के दो।" यह सुनते ही किशीर की आँखें भर आई, एक पल के लिए किशोर को ऐसा ही लगा, कि यह बुढ़िया औरत का बेटा स्टीवन तो नहीं ? " किशोर ने एक पल का भी विलंब किए बिना उसे उसका नाम पूछा और वह कहाँ से आया हैं, वह पूछा। स्टीवन ने सब कुछ सच सच बता दिया, कि वह अपनी मेरी अम्मा को ढूँढ रहा हैं। तब किशोर ने स्टीवन को गले लगाकर कहा, कि" सच में आज एक माँ का विश्वास और बेटे का प्यार जीत गया। " स्टीवन की समझ में कुछ नहीं आया, की किशोर क्या कहना चाहता था, उसके पुछने पर किशोर ने उसकी माँ के बारे में सब बताया, तब स्टीवन की आँखों से आँसू रुकने का नाम नहीं ले रहे थे, स्टीवन ने आखिर में इतना ही कहा, कि " अब मेरी अम्मा कहा हैं ? " 
           किशोर ने कहा, कि " अब तक मैंने अम्मा को समझा बुझाकर मेरे घर पर रोक रखा था, मगर वह रोज़ एक ही रत लगाए रखी थी, कि मेरे बेटे को मुझे ढूँढना हैं, मैं यहाँ ऐसे नहीं रह सकती, भगवान से लड़ना पड़े तो मैं लड़ लूँगी, मगर मेरे बेटे को मैं ढूँढ कर ही रहूंगी और वह बिना मुझे बताए कुछ दिन पहले रात को चुपके से घर से चली गई, सुबह मैंने उनको हमारे अगल बगल बहुत ढूंढ़ा, लेकिन वह मुझे कहीं नहीं मिली। "                  स्टीवन ने कहा, कि " आपकी बहुत बहुत महेरबानी की आपने मेरी अम्मा को इतने दिनों तक संभाला, आपका यह कर्ज मैं कभी नहीं भूलूंगा, अब तो मुझे पक्का यकीन हो ही गया हैं, कि अब मेरी अम्मा मेरे बहुत करीब हैं और वह मुझे मिल ही जाएगी, अब मुझे सिर्फ उसको ढूँढना हैं और मैं अपनी मेरी अम्मा को ढूँढ कर ही रहुंगा। "  कहते हुए किशोर को एक बार अपने गले लगाकर उसका धन्यवाद करते हुए स्टीवन फिर से अपनी अम्मा को ढूंढने निकल पड़ता हैं। 
          चलते चलते बस कुछ ५ किलोमीटर की दूरी पर दूर एक मंदिर नज़र आता हैं, स्टीवन को जैसे लगा कि उसकी माँ उसके बहुत करीब हैं,  स्टीवन भागते हुए मंदिर की तरफ़ जाता हैं, मगर जैसे जैसे वह मंदिर की ओर जाता हैं, वैसे वैसे उसे मंदिर के बाहर भीड़ जमा हुई दिखाई देती हैं, यह देखकर स्टीवन और घबरा जाता हैं, उसके दिल की धड़कन तेज होती जा रही हैं। भीड़ के करीब जाकर उसको लोगों की बातों से पता चलता हैं, कि कोई बुढ़िया औरत वहाँ मर गई हैं और उसका कोई नहीं हैं, यह सुनते ही स्टीवन की आँखों में आँसू आने लगे। वह उस बुढ़िया औरत को देखने के लिए भीड़ में अपनी जगह बनाकर अंदर घुस जाता हैं। बुढ़िया औरत के शरीर पर फटी पुरानी साड़ी, कमज़ोर शरीर, रूखा सुखा चेहरा, जैसे कई दिनों से नहाए नहीं और नाही कुछ खाया हो, बिखरे हुए बाल, जिस से अब भी  चेहरा ढका हुआ सा था, स्टीवन के दिल की धड़कन और तेज होने लगी, स्टीवन ने अपने कापते हाथों से उस बुढ़िया औरत के चेहरे से उसके बाल को हटाकर उसके चेहरे को देखने लगा, वह औरत उसकी अम्मा ही थी, स्टीवन अपनी अम्मा को देखकर ज़ोर ज़ोर से चीख कर चिल्लाने और रोने लगा, थोड़ी देर बाद मंदिर के पुजारी जी आए और कहने लगे, " कैसा नालायक बेटा हैं तू, तेरी अम्मा ने कितने दिनों से खाना पीना भी छोड़ दिया था, यहाँ इसी मंदिर की चौखट पर अपना सिर पटक कर भगवान से अपने बेटे को मांगती रही और तू अब आया हैं, भगवान ऐसा नालायक बेटा किसी को ना दे, जो अपनी अम्मा को यूँ दरबदर भटकने को छोड़ देता हैं।" 
           कहते हुए पुजारी जी वापस मंदिर के अंदर जाने लगे और यह बात स्टीवन के दिल को छू गई, उसे सच में लगने लगा, कि उसी की वजह से उसकी अम्मा की यह हालत हुई हैं और उसी की वजह से उसकी जान भी गई हैं, स्टीवन ने भी वहीं रोते रोते अपनी अम्मा की गोदी में अपना सिर रख दिया और उसने अपने प्राण त्याग दिए, वहां पर खड़े सब लोग देखते ही रह गए। क्योंकि स्टीवन और उसकी अम्मा के बीच के रिश्तें को कोई नहीं जानता था, सब स्टीवन को ही दोषी ठहरा रहे थे। मगर अब क्या सच और क्या झूठ ? आखिर बेटे ने अपनी अम्मा को ढूंढ ही लिया।
         कुछ ही पल में माँ और बेटा कहीं दूर आसमान में बादलों के बीच जाकर एक दूसरे को प्यार से देख रहे थे, एक दूसरे को गले लगाकर रो रहे थे, स्टीवन अपनी माँ से एक ही बात कहे जा रहा हैं, कि " मैं आपका नालायक बेटा नहीं हूँ, मैं आपसे बहुत प्यार करता हूँ, मैं अब आपका कहाँ कभी नहीं तालूंगा और आपके साथ ही रहूंगा, मुझे माफ कर दो अम्मा और सिर्फ़ इस जन्म मैं ही नहीं हर जन्म में आप ही मेरी अम्मा बनकर आना। "
        माँ अपने बेटे को गले लगाकर रोते हुए कहती हैं, " दुनिया चाहे जो भी कहे, लेकिन मैं ही जानती हूँ, कि मेरा बेटा कितना अच्छा हैं, अब हर जन्म तू ही मेरा बेटा बनकर आना, आख़िर तूने अपनी अम्मा को ढूंढ ही लिया। "
         कहते कहते माँ और बेटा आसमान में बादलों के बीच में छुप जाते हैं।
         तो दोस्तों, अगर सच्चा प्यार हो और अगर सच्चे मन से किसी को ढूंढने की कोशिश करो, तो वह अवश्य मिल ही जाता है, स्टीवन को अपनी माँ को ढूंढने में देर हुई, मगर माँ के अंतिम दर्शन उसने किए और एक दूसरे से अगले जन्म मिलने का वादा भी तो किया, तो यह कोई मिलन से कम भी नहीं।
  Bela...

                   13 )   एक तूफ़ान

          रीटा और रवि अपने बेटे अभय और बेटी रूपा के साथ बहुत ही खुशनुमा जिंदगी गुज़ार रहे थे, उनको अपनी ज़िंदगी से जैसे कोई शिकायत ही नहीं थी, कान्हा जी की कृपा से सब कुछ ठीक चल रहा था, भले ही घर थोड़ा छोटा था, रवि की महीने की कमाई इतनी थी, कि उससे बस सब का गुजारा चल जाता था, फिर भी सब बहुत खुश थे, सारे त्यौहार सब साथ मिलके मनाते थे। मगर पता नहीं, रीता के परिवार को ना जाने किस की नज़र लग गई, कि एक ही दिन में उनका हस्ता खेलता परिवार एक दम से जैसे चूप हो गया, अभय का कार एक्सीडेंट हो गया और उसने वहीं पर अपना दम तोड दिया, अचानक से एक तूफ़ान आया और जैसे अपने साथ सब कुछ लेकर चला गया। रीता के घर की सारी खुशियां भी उस तूफ़ान के साथ चली गई। अभय के जाने के बाद घर में जैसे एक सन्नाटा सा छा गया था, अपने ही घर में रवि, रीता और उसकी बेटी रूपा एक दूसरे से जैसे मुँह छिपाते थे, एक दूसरे को हिम्मत देने की भी किसी में हिम्मत नहीं थी, कुछ वक्त के बाद रूपा की शादी हो गई, अब घर में रवि और रीता रह गए, रवि तो रोज़ ऑफिस चला जाता था, ऐसे वक्त में घर खाने को दौड़ता था, रवि को अपने बच्चों से कुछ ज्यादा ही लगाव था, मगर उसने अपना दर्द अपने दिल के अंदर दबा रखा, पूछने पर भी कुछ कहते नहीं, अब रीता की उम्र 47 साल की और रवि 50 साल के हो चुके थे, अब इस उम्र में दूसरे बच्चे को लेकर अपनी ज़िंदगी में लाना, यह रीता को बहुत मुश्किल लग रहा था, मगर रवि ज़िद्द पर अड़े रहे, रवि की खुशी के लिए रीता ने IVF भी करवाया, मगर उस से कोई फायदा ना हुआ, डॉक्टर ने कहा, कि उम्र के बढ़ जाने से शायद अब बच्चा होना मुश्किल है, इसलिए रीता ने तो यह बात स्वीकार कर ली, कि अब ज़िंदगी यूंही एक दूसरे के सहारे ही गुजारनी है, मगर रवि का मन नहीं माना, रवि को अंदर ही अंदर अकेलापन खाए जा रहा था, या कहूं तो अभय के चले जाने का दर्द उसे खाए जा रहा था, इसलिए शायद रवि का बर्ताव दिन ब दिन बदलने लगा, बात बात पर रीता पर गुस्सा करता, बात बात पर उसे भला बुरा भी सुनाया करता, अपने ऑफिस का गुस्सा भी कभी कभी रीता पर ही निकालता, रीता रवि को समझने की, उसकी परेशानी समझने की कोशिश करती रहती, इसलिए चूप रहती, मगर कब तक वह सहती रहती, कभी कभी गुस्से में आकर रीता भी रवि को सुना देती, फिर रवि के ऑफिस जाने के बाद अकेले में रोया करती, बेटा सिर्फ रवि ने ही नहीं, उसने भी तो खोया था। मगर यह बात रवि कैसे समझे ? और तो और रवि को रीता के बिना चलता भी नहीं, वह रीता को नाही उसके मायके जाने देता और नाही किसी दोस्त के घर जाने देता, नाही उसे बाहर जाकर नौकरी करने की इजाज़त और नाही वह अपने मन का कुछ कर सकती, क्योंकि रवि को वह जब ऑफिस से घर आए तो उसे रीता उसके सामने ही चाहिए। कभी कभी रवि रीता की बहुत ज़्यादा परवाह करता, तो कभी उस से सीधे मुँह बात भी नहीं करता, कभी कभी रवि रात को रीता को गले लगाकर सो जाता, तो कभी मुँह पलटकर सो जाता, जैसे की उसके बगल में कोई है ही नहीं, जैसे की वह अकेला ही सो रहा हो। कभी रवि अपनी पत्नी रीता के लिए दवाई लाता तो कभी सब्जी, तो कभी अपने आप को एक कमरे में बंद कर देता और कहता, कि " कोई उसे परेशान न करे, वह नॉवेल पढ़ रहा है। " ऐसा लगता जैसे रवि के मन में एक बहुत बड़ा तूफान चल रहा हो, जैसे उस तूफान में वह खुद डूब रहा है और अपने साथ साथ अपनी पत्नी रीता को भी खींचे जा रहा है, शायद रवि को अब रीता के खोने का भी डर लग रहा है, उसने अपने बेटे को तो खो दिया, जो उसे अपनी जान से भी प्यारा था, मगर अब वह रीता को नहीं खोना चाहता, रवि कुछ भी कहता नहीं, लेकिन उसके बर्ताव से सब पता चलता है। कभी कभी रीता अपने पति रवि को हर तरफ़ से समझाने की कोशिश करती, मगर सब नाकाम। एक तरफ रीता को भी अब अकेलापन खाए जा रहा था और दूसरी तरफ़ रवि का अजीब बर्ताव, जो कभी कभी उसकी समझ के बाहर ही था। 
           तो दोस्तों, यह प्यार है या एकदूसरे को खोने का डर ? अब इस उम्र के पड़ाव में जब एक दूसरे के साथ की, एक दूसरे को समझने की ज़्यादा ज़रूरत होती है, तभी सब सूझबूझ जैसे की खो बैठे है, अब यह ज़िंदगी एक बोझ लगने लगी है, बस जिए जा रहे है, रीता अपने आपको तो जैसे तैसे संभाल रही है, मगर आख़िर कब तक ऐसा चलता रहेगा ? उसके अंदर भी तो एक तूफान चल रहा है, वह एक ना एक दिन जरूर फटेगा और  सब कुछ तबाह कर देगा। तो इस हालत में रीता को अब क्या करना चाहिए, क्या आप बता सकते है ? 

Bela...

                  14)   पहला प्यार

          बात उन दिनों की है, जब निधि १८ साल की उम्र की हुआ करती थी, निधि के घर के सामने वाले घर में अभी कुछ दिन पहले ही दो लड़के rent पे रहने आए थे। दोनों दिखने में हैंडसम और खानदानी घर के लगते थे, दोनों  मुंबई इंजिनयरिंग की पढाई के लिए आए थे। उन में से एक लड़के का नाम निशित और दूसरे का नाम समीर था। निशित पढाई करने अपनी खिड़की के पास ही रोज़ बैठता था और निधि के कमरे की खिड़की के सामने ही उसकी खिड़की थी, तो कभी-कभी निधि उसे देखा करती थी। ये बात निशित ने कुछ दिनों बाद महसूस की, कि निधि उसे यूँ चूप के से रोज़ देखा करती। 

      एक दिन निशित अपनी खिड़की पर पूरा दिन नहीं दिखा, तब निधि का जी मचलने लगा, उसे रोज़ देखने की अब उसकी आदत जो हो गई थी। उस दिन निधि के मम्मी-पापा और भैया तीनों शादी में गए हुए थे, निधि की एग्जाम शुरू होने वाली थी, तो निधि ने जाने से इंकार कर दिया, कि उसे आज रात पढ़ना है। तो ये मौका अच्छा है मिलने का, ये सोच निधि सीधे उसके घर चली गई। 

     निधि ने निशित के घर का बेल बजाया। पहले तो समीर ने दरवाज़ा खोला, निधि ने घर के अंदर इधर-उधर झाकने की कोशिश की, मगर कहीं भी निशित दिखाई नहीं दिया। तब निधि से रहा नहीं गया, निधि ने समीर से सीधे ही पूछ लिया, कि " तुम्हारा दोस्त कहाँ है ? आज कहीं वो दिख नहीं रहा ? " समीरने कहा, " वह अंदर ही है, उसकी तबियत कुछ ठीक नहीं है, इसलिए वह सो रहा है, डॉक्टरने उसे आराम करने को कहा है। "निधि ने कहा,  " ओह्ह, तो ये बात है, क्या मैं उस से एकबार मिल सकती हूँ ? " समीर ने कहा, " हाँ, हाँ क्यों नहीं ? आइऐ ना। " कहते हुए समीर निधि को निशित के कमरें  में ले गए, निशित सच में अपने बिस्तर पर लेटा हुआ था, निशित को बुखार था और ठण्ड के मारे उसका बदन काँप भी रहा था। निधि ने समीर से कहा, " इसे तो बहुत तेज़ बुखार है। " समीर ने कहा, " हाँ,  दवाई तो पिलाई है, मगर बुखार कम नहीं हो रहा। " 

    निधि ने समीर के पास एक बाउल मैं ठन्डे बर्फ का पानी और रुमाल माँगा, निधि कुछ देर तक निशित के सिर पर ठन्डे पानी की पट्टी लगाती रही, इस से उसका बुखार कम हो गया, निशित के पास कोई कम्बल भी नहीं था, तो अपने घर से कम्बल लाकर निधि ने उसे ओढ़ाया, ताकि उसे ज़्यादा ठण्ड न लगे और वह आराम से सो सके, बिना किसी बात का सोच-विचार किए निधि पूरी रात उसकी सेवा करती रही, तब जाके सुबह को उसका बुखार कम हुआ और उसे थोड़ा अच्छा लगा, निशित ने निधि का शुक्रिया भी किया, फ़िर निधि अपने घर जाने लगी, तभी सामने से  निधि के मम्मी-पापा की कार भी आई, निधि के मम्मी-पापा ने निधि को निशित के घर से इतनी सुबह-सुबह बाहर निकलते हुए देख लिया, तो पापा का गुस्सा आसमान पर था, उन्होंने निधि से बिना कुछ बात किए, उसे गलत समझकर कुछ दिन उसके कमरे में बंद कर दिया, मगर पापा को कहाँ पता था, कि वह दोनों आमने-सामने खिड़की में से एक-दूजे को देखा करते है। निशित ने इशारे से खिड़की में से फ़िर से निधि को कल रात के लिए THANK YOU कहा। निधि उसे मन ही मन चाहने लगी थी, मगर कभी बता ना सकी। बस खिड़की में से कभी-कभी एक दूजे से बातें कर लेते और मुस्कुराया करते। निधि का उसके साथ एक दिल का रिश्ता बन गया था। निधि के पापा उसूलों के बहुत पक्के थे, उन्होंने  निधि की शादी कहीं ओर तय कर दी। इस बात को कुछ महीने गुज़र गए। 

          एक दिन किसी कॉफ़ी शॉप में निधि बैठ के अपनी दोस्त के इंतज़ार में थी, वही इत्फ़ाक से निशित भी आया हुआ था, दोनों ने एकदूसरे को देखा, पहले तो दोनों के बीच चुप्पी छाई रही। कुछ देर बाद निशित ने निधि से पूछा, "  तुम कैसी हो ? यहाँ  कैसे ? " निधि ने कहाँ, " मैं अपनी दोस्त के इंतज़ार में हूँ, वह आज मुझ से यहाँ मिलने आनेवाली है, मगर पता नहीं, अब तक आई क्यों नहीं ? ओह्ह, same here, मेरा भी एक दोस्त मुझ से मिलने आनेवाला है, अब तक आया नहीं। अच्छा, तो हम दोनों ही बात कर लेते है। निधि ने कहा, " हाँ, ज़रूर ! क्यों नहीं ? " 

    निशित ने कहा, " अच्छा चलो बताओ, तुम्हारे पति,  तुम्हारे घरवाले सब कैसे है ? तुम ख़ुश तो हो ना ? "

    निधि निशित की बात सुनकर चौंकी। निधि ने कहा, " शादी और मेरी ? "

    निशित ने कहा, " हां, उस रोज़ तुम्हारी शादी थी ना ?" निधि ने कहा,  " हांँ,  बारात भी आई थी, मगर उसी रोज़ बारात आने से पहले मैं घर छोड़कर वहां से भाग गई थी, क्योंकि  मेरे पापा ने पैसो की ख़ातिर मेरी शादी मुझ से १० साल बड़े लड़के से तय की थी, जिसका एक छोटा बच्चा भी था, मगर ये बात मुझे मंज़ूर नहीं थी। इसलिए मैंने घर छोड़ दिया। मेरी सहेलीने मुझे अपने घर चंडीगढ़ में कुछ महीने के लिए आसरा दिया। फ़िर मैंने जॉब शुरू कर दी और खुद का घर ले लिया, मगर तुम ?

      निशित ने कहा, बस मेरे साथ भी कुछ ऐसा ही हुआ, मेरी शादी पापा ने ज़बरदस्ती करवा दी, मगर सुहाग रात में लड़की ने कहा, कि मैं किसी और को चाहती हूँ, उससे मैं बहुत प्यार करती हूँ और उसी से शादी भी करना चाहती थी। तब मैंने अपनी पत्नी शीला के बॉय फ्रेंड के बारे में पता किया, वह लड़का सच में बहुत अच्छा था, शीला से प्यार भी बहुत करता था, इसलिए मैंने शीला को उसके बॉय फ्रेंड सुनील से मिला दिया, दोनों की शादी करवा दी और जॉब के लिए यहाँ आ गया, वैसे भी मैं उस से प्रेम नहीं करता था, तो ऐसे रिश्तों के साथ जीने से तो बेहतर अकेले रहना मुझे ठीक लगा। क्योंकि मैंने जब से तुमको देखा, मैनें सिर्फ़ और सिर्फ़ तुम से ही प्यार किया, फ़र्क सिर्फ़ इतना है, कि ये बात कभी मैं अपनी ज़ुबान पे ला ना सका। मुझे लगा तुम्हारे पापा ने तुम्हारी शादी कहीं ओर तय कर दी, तो तुम्हारी डोली उठने से पहले ही मैं वहांँ से चला गया, मैं तुझे किसी ओर की होते हुए नहीं देख सकता था और उस वक़्त मुझ में इतनी हिम्मत नहीं थी, कि मैं तुम्हारे पापा से अपने प्यार के बारे में बात कर सकूँ। उस वक़्त मेरे मन की बात मन में ही रह गई, मगर मैंने अपनी ज़िंदगी में पहला प्यार तो तुम से ही किया था । मैंने तो तुम्हारी शादी के बाद तुम से मिलने की उम्मीद ही छोड़ दी थी, मगर आज तुम्हारा सच जानने के बाद, आज मैं तुम से कहना चाहता हूँ, कि मैं आज भी तुम से उतना ही प्यार करता हूँ, जितना पहले करता था, क्या तुम मेरे साथ अपनी बाकि की ज़िंदगी बिताना चाहोगी ? " 

          निधि तो उस वक़्त ख़ुशी के मारे आसमान में उड़ने लगी, मैंने भी तुम से कभी मिलने की उम्मीद छोड़ ही दी थी, मगर जहाँ दिल का रिश्ता इतना गहरा हो, तब दो दिल चाहे जितने भी दूर हो, मगर एक ना एक दिन तो मिल ही जाते है। ये दिलों का रिश्ता ही ऐसा है। इसी तरह तक़दीर ने निधि और निशित को मिला दिया। 

     मगर उसी वक़्त निधि की सहेली यानी मैं और रितेश का दोस्त यानी समीर, हम दोनों तालियाँ बजाते हुए उनके सामने आए क्योंकि हम दोनों ने मिल के निधि और निशित को मिलाने का ये प्लान किया था, क्योंकि हम दोनों ये बात जानते थे, कि निधि और निशित एक दूसरे से बहुत प्यार करते है। 

         उसके बाद निधि और निशित दोनों ने शादी भी कर ली, अब दोनों साथ में ही रहते है, जॉब भी दोनों साथ में करते है, उनका एक बच्चा भी है और वह दोनों आज बहुत खुश भी है।  

        तो दोस्तों, आपके नसीब में पहला प्यार लिखा हो और रिश्ता अगर दिल से दिल का हो तो बिछड़े प्रेमी एक ना एक दिन, किसी ना किसी तरह, किसी ना किसी रास्ते मिल ही जाते है। 

                                           Bela... 

                        

                 15)  एक फ़ैसला अपने लिए

         
           शीला का पति सुरेश कोरॉना में चल बसा, उसकी ज़िंदगी में जैसे अंधेरा सा छा गया था। उसका एक बेटा और बहू थी, जिसकी अभी दो साल पहले ही शादी हुई थी और एक लड़की थी, जिसकी भी शादी हो गई थी, और वह भी अपने ससुराल में अपने पति और बच्चों के साथ खुश थी। बेटा और बहू दोनों जॉब करते थे, तो सुबह टिफिन लेकर चले जाते, शाम को आते, दोनों खाना खाकर बाहर walk करने चले जाते, या तो कभी कभी अपने दोस्तों के साथ घूमने चले जाते, शीला का बेटा अपनी मम्मी को भी साथ आने को कहता, मगर शीला समझदार थी, वह अपने बेटे और बहू की ज़िंदगी के बीच नहीं आना चाहती थी, उनकी अब उम्र है, घूमने फिरने की, इसलिए वह कोई बहाना बनाकर घर पर ही रुक जाती, शीला के बेटे का एक छोटा सा बेटा भी था, तो उसको संभालने में उसका वक्त बीत जाता, मगर आखिर कब तक ऐसा चलता रहता। उसको कुछ भी अच्छा नहीं लगता था, अकेलापन उसे खाए जाता था, बाहर से शीला सब के साथ हंसकर बातें करती मगर अंदर से वह टूट चुकी थी, ऐसे ही जैसे तैसे कर के दो साल तो गुज़र गए।
          सतीश के जाने के बाद शीला रोज मंदिर जाती, उसकी मुलाकात राजेश नाम के लड़के से हुई, जो तकरीबन उसी की उम्र का था और उसके साथ भी वहीं हुआ था, जो शीला के साथ हुआ था, राजेश की पत्नी भी कोरोना में चल बसी थी और वह बिलकुल अकेला हो गया था, अपना अकेलापन दूर करने के लिए दोनों कृष्ण के मंदिर में आते और सारी फ़रियाद वहीं करते, तब धीरे धीरे दोनों में बातें शुरू होने लगी, एक दूसरे का साथ दोनों को अच्छा लगने लगा, सोचा कि कृष्णा के मंदिर में हम दोनों मिले है और उनकी भी यहीं मर्ज़ी होगी, ऐसा सोचते हुए, अपना अपना अकेलापन दूर करने के लिए दोनों ने शादी करने का फ़ैसला कर लिया। मगर दोनों के बच्चों को अब यह रिश्ता मंजूर नहीं था, कहते थे, " इस उम्र में शादी करेंगे, तो लोग क्या कहेंगे ? " इसलिए पहले तो राजेश और शीला ने एकदुसरे से अलग होने का सोच लिया, दोनों ने मंदिर जाना भी बंद कर दिया, मगर फिर भी दोनों को अकेलापन खाए जा रहा था।
            एक दिन फोन पर बात कर के शीला और राजेश दोनों ने अपने अपने घर में एक चिठ्ठी लिखी, जिस में लिखा कि " हम दोनों शादी कर रहे हैं और आपको परेशानी ना हो, इसलिए हम यह शहर ही छोड़कर कहीं दूर चले जाएंगे, कोई पूछे तो आप बता देना, कि हम लंबी यात्रा पर चले गए हैं और अब वहीं हरद्वार में ही रेहने का इरादा कर लिया हैं, अगर आप सब को ठीक लगे तो, कभी कभी फोन कर के हम आप से बातें भी कर लिया करेंगे, आप सब अपनी ज़िंदगी में खुश रहो, हमें और कुछ नहीं चाहिए, हम अपना देख लेंगे। " ऐसा कहते हुए शीला और राजेश ने भागकर शादी कर ली और शहर से कहीं दूर चले गए और अपनी एक नई दुनिया बसा ली, जिस में अब सिर्फ वह दोनों ही थे। शीला को सिलाई का काम आता था, तो फ्री टाइम में उसने मशीन लेकर वह काम शुरू कर दिया और राजेश कॉलेज में टीचर था, तो उसने यहां भी एक अच्छे से कॉलेज में जॉब शुरू कर दी, रात को दोनों साथ में खाना खाते और घूमने जाते और कभी खाना बनाने का मन ना हो तो बाहर ही चाट पूरी का मजा ले लेते और फ़िर बातें करते करते उन दोनों का वक्त कहां बीत जाता पता ही नही चलता, घर आकर पुराने गाने सुनते सुनते दोनों सो जाते। अभी दोनों की इतनी उम्र भी तो नहीं थी, शीला तकरीबन 44 की थी और राजेश तकरीबन 46 के थे, अब इतनी छोटी उम्र में साथी तो चाहिए ही ना ! एकदूसरे का अकेलापन दूर करने के लिए दोनों ने एकदुसरे का हाथ थामने का फ़ैसला कर लिया।
    एक दिन शीला ने अपनी बीती हुई ज़िंदगी याद करते हुए कहा, कि " हमारा घर छोड़ना और शादी करने का फैसला बिलकुल सही था, अगर हम ऐसा नहीं करते तो आज हम अपने बच्चों के टुकड़ों पर ज़िंदगी जीते रेहते, उनके एहसान तले दबे रहते, अपने मन की कभी कुछ कर ही नहीं सकते, अपने तरीके से ज़िंदगी जी नही सकते। "            राजेश ने कहा, " तुम सही कह रही हो, लोगों का क्या है, उनका तो काम ही बातें करना हैं, जिंदगी तो अकेले हमें जीनी पड़ती और हम अपनी नहीं बल्कि उनकी दी गई ज़िंदगी जीते, पहले हमने अपने अपने बच्चों को बड़ा किया, अब उनके बच्चे संभालने में ज़िंदगी गुज़ार देते, ऐसा नहीं की हम अपने बच्चों को और अपने अपने पति पत्नी को भूल गए, उनका साथ, उनका प्यार भूल गए, मगर ज़िंदगी में कभी कभी कुछ फ़ैसले हमें अपने लिए भी लेने पड़ते हैं, कब तक हम यूहीं अपने बच्चों के बारे में सोचते रहेंगे ? उनकी भी अपनी ज़िंदगी हैं, अपने बीवी बच्चें है, उनके साथ वह खुश रहे, अब बोझ क्यों बन कर रहे ? हमारा साथ रहने का फ़ैसला एकदम सही था। 
        माना कि यह फ़ैसला लेना और इस उम्र में अपने बच्चों से रिश्ता तोड़कर नई ज़िंदगी शुरू करना इतना आसान भी नहीं, मगर कभी कभी दूसरों के बारे में नहीं बल्कि हमारे अपने बारे में सोचना भी जरूरी हो जाता है। और तो और यह भी नसीब की बात हैं, कि इस उम्र में कोई अच्छा  साथ निभाने वाला मिलना भी मुश्किल ही हैं, जिस पर हम आँखें बंद कर भरोसा कर सके, हम तो यहीं कहेंगे, कि ज़िंदगी में सब को एक साथी मिल जाए, जो उसे समझे, उसके प्यार को समझे, जिस के साथ ज़िंदगी आराम से बीत जाए। "
        तो दोस्तों, शीला और राजेश ने अपने अपने बच्चों के खिलाफ़ जाकर शादी कर के नई जिंदगी शुरू करने का फ़ैसला लिया, वह सही था या गलत ? 

Bela...

                   16 )   दर्द      
         ये कैसा दर्द दिया पिया तूने मोहे ?

      मनोज ज़ोर से आवाज़ लगाता है, " माया, चलो भी अब, तुम्हें तैयार होने में कितनी देर लगती है ? शादी में मेरे सारे दोस्त पहुँच गए है और उन सब का फ़ोन आ रहा है, कि " तुम कब आओगें ? मेरे दोस्त की बारात भी वहांँ से निकल गई है और हम अब तक घर में ही है। "
      माया ने ऊपर के कमरें से आवाज़ लगाकर कहा, कि " हांँ, बस ५ मिनिट। मुन्नी को दूध पीला दिया और दवाई भी पीला दी है, आज उसे थोड़ा बुखार लग रहा है और छोटे को होमवर्क भी करा दिया है, उन की स्कूल यूनिफार्म भी मैंने प्रेस कर दी है, मुन्नी अभी बस अब सो ही जाएगी, उसे अच्छे से सुलाकर ही हम जाएंगे, वार्ना मुझे अपने पास ना पाकर वह बहुत रोएगी, उसके बाद हम निकलते है, आप को तो पता ही है, कि मेरे बिना उसे नींद नहीं आती, मैं बस मुन्नी को सुलाकर अभी आई, तब तक तुम नीचे  t.v देखो। "
         माया की बात सुनकर मनोज बड़बड़ाता है, " इसका तो हर वक़्त यही बहाना रहता है, कहीं भी जाना हो तो मुन्नी को ये और मुन्ना का ये। मेरे बारे में तो कभी सोचती ही नहीं। वहांँ शादी में मेरे सब दोस्त मेरा इंतज़ार कर रहे है और शादी में सब मज़ा कर रहे होंगे। चलो आज माया को अपने मुन्ना और मुन्नी को सँभालने दो, मैं अकेला ही शादी में चला जाता हूँ, वार्ना माया के इंतज़ार में वहाँ मेरा दोस्त घोड़ी पे चढ़कर शादी भी कर लेगा और मैं यहीं का यहीं रह जाऊंँगा। सब माया के बारे में पूछेंगे, तो सब को बता दूंँगा, कि मुन्नी और माया की तबियत ठीक नहीं है, इसलिए वे दोनों शादी में नहीं आ पाए, वैसे भी वहांँ माया किसी से कुछ खास बात तो करती नहीं, बस चूप चाप खड़े रहकर सब को देखती रहती है। " ऐसा सोचते हुए मनोज अकेले ही शादी में चला जाता है। 
        इस तरफ कुछ देर बाद माया अपनी मुन्नी को सुलाकर शादी में जाने के लिए अच्छे से तैयार होकर नीचे आती है, नीचे ड्राइंग रूम में t.v तो चल रहा था, मगर मनोज वहांँ नहीं थे, माया ने मनोज को आवाज़ लगाई, इधर-उधर, रसोई में, वाश-रूम में हर जगह देखा, मगर मनोज कहीं नहीं दिखे, फ़िर माया ने मनोज को कॉल किया, ये जानने के लिए, कि वो कहाँ है ? माया के तीन-चार कॉल का मनोज ने कोई जवाब नहीं दिया। जब मनोज ने फ़ोन नहीं उठाया, तो माया मनोज के लिए परेशांन होने लगी। माया मन ही मन सोचने लगी, कि " क्या बात होगी, मनोज यूँ अचानक से कहीं बिना बताए चले गए ? चाहे मनोज जैसे भी हो, उसने आज तक ऐसा तो कभी नहीं किया, मनोज आवाज़ लगाकर मुझे कह कर ही जाते, मगर आज ऐसे कैसे ? उन्हें कुछ हुआ तो नहीं ? मनोज ठीक तो होंगे ना ? " माया मनोज के बारे में सोचकर ऐसे ही जटपटाने लगी। 
        बस कुछ ही देर मनोज के ना दिखने से और उनका फ़ोन ना लगने से माया के मन में अजीब-अजीब ख्याल आने लगे। उस तरफ़ मनोज अकेले ही अपने दोस्त की शादी में चला गया और उसने दोस्तों से ये कहाँ की माया और मुन्नी दोनों की तबियत आज कुछ ठीक नहीं, इसलिए माया शादी में ना आ पाई और शादी में दोस्तों के साथ मस्ती करने लगा और अच्छे से शादी वाला मज़ेदार खाना भी खाया। 
        इस तरफ़ माया मनोज को लगातार फ़ोन लगा रही थी, तब मनोज ने माया को मैसेज किया, कि " मैं यहाँ अपने दोस्त की शादी में आ गया हूँ, अब बार-बार फ़ोन कर के मुझे परेशान मत करो, तुमने तैयार होने में बहुत देर कर दी, अब तुम मुन्नी के साथ ही सो जाओ, मैं रात को देर से आऊँगा। "
     मनोज का मैसेज पढ़ते ही माया की जान में जान आई, कि चलो मनोज ठीक तो है ! लेकिन दूसरे ही पल माया के दिल में ये ख्याल आया, कि " ऐसी भी क्या जल्दी जाने की, मैं अपने बच्चों की वजह से ही तो लेट हुई थी, क्या मनोज मेरा इतना भी इंतज़ार ना कर पाए ? क्या मुन्ना और मुन्नी सिर्फ और सिर्फ मेरे बच्चे है ? बच्चों की ज़िम्मेदारी सिर्फ मेरी ही ज़िम्मेदारी है ? क्या बच्चों की ओर उनकी कोई ज़िम्मेदारी नहीं ? शादी से पहले तो कितनी बातें बनाते थे ! तू जिस गली ना हो, उस गली से हम गुज़रेंगे भी नहीं ? और भी ना जाने क्या क्या ? अब क्या हुआ ? "
      सोचते हुए माया ऊपर अपने कमरें में जाकर अपने आप को आईने में देर तक, बस एक तक तकती ही रह गई। तभी माया के मोबाइल में फिर से मैसेज आया, उसने नोटिफिकेशन में देखा, तो मनोज ने अपने दोस्त के साथ की फोटो इंस्टाग्राम पे पोस्ट की थी, जिस में वह अपने दोस्तों के साथ बहुत ही खुश नज़र आ रहा था और इस तरफ माया का दिल दर्द से रो रहा था, क्योंकि ये आज की बात नहीं, मनोज को अब दर्द देने की आदत सी हो गई थी और माया की दर्द सहने की हिम्मत दिन-ब-दिन टूटती जा रही थी। आज माया की आँखों में अब नींद कहाँ ? माया पूरी रात अपने दोनों बच्चों को देखते हुए, मनोज का इंतज़ार करती रही, कि " आज तो मैं मनोज से पूछ के ही रहूंँगी, कि " बच्चों की तरफ उसकी कोई ज़िम्मदेरी है भी या नहीं ? वह मुझे यहाँ यूँ अकेले छोड़ कर कैसे जा सकते है ? " वैसे आज तक माया ने मनोज से नाहीं कोई सवाल किया और नाहीं कभी मनोज के साथ ऊँची आवाज़ में बात की। चाहे मनोज जितना भी गुस्सा हो या चिल्लाए। माया अपने अंदर कई सवालों की पोटली बनाए जा रही थी। इन्हीं सब कसमकस के बीच कब सुबह हो गई, माया को पता ही नहीं चला और 
        सुबह होते-होते माया के मोबाइल में मनोज का फ़िर से एक और मैसेज आया, जिस में लिखा था, कि " माया, मैं तुम से ठक गया हूँ, अब मुझे तुमसे डिवोर्स चाहिए।  "
    ऐसा मैसेज पढ़ते ही, माया के पैरो तले से ज़मीन ही खिसक गई। वह सोचने लगी " इतनी सी देरी के लिए इतनी बड़ी सज़ा ? या मैं इतनी बुरी हूँ ? या मैं सूंदर नहीं हूँ ? या मैंने अपनी ज़िम्मेदारी ठीक से नहीं निभाई ? बच्चों से प्यार करना और उनकी देखरेख करना, उनको पढ़ाना-लिखाना, उनकी हर छोटे से छोटी ज़रूरत का ख्याल रखना, क्या ये मेरी गलती है ? या फिर आज तक मैं चूप रही और मैंने मनोज से अपने हक़ के लिए कभी कुछ नहीं माँगा, ना कहा, या ये मेरी गलती है ? डिवोर्स ? मुझ से ? आखिर क्यों ? " 
       डिवोर्स की बात ने माया को सब से बड़ा दर्द पहुंँचाया था। माया अपने बिस्तर से खड़ी होकर आईने के सामने खड़ी रहती है, अब तक माया ने अपने कपड़े भी नहीं बदले थे, जो उसने शादी में जाने के लिए पहने हुए थे। माया की आँखो के सामने उसका गुज़रा हुआ पल आने लगता है, कुछ साल पहले 
      जैसे, कि " माया के पापा माया को समझा रहे थे, कि " बेटा, पहले अपनी पढाई पूरी कर दो, बाद में आराम से शादी के बारे में सोचेंगे, तेरे लिए तेरी मनपसंद के लड़कों की मैं लाइन लगा दूंँगा। हाँ, मगर मनोज मुझे कुछ ठीक नहीं लग रहा। "
    मगर उस वक़्त मायाने अपने पापा की बात को नज़रअंदाज़ किया और मायाने मनोज के साथ भाग के चुपके से शादी कर ली। माया के पापा ने ऐसा सोचा भी नहीं था, कि उसकी बेटी ऐसा करेगी। इस तरफ़ पहले-पहले तो सब ठीक रहा, मगर बाद में मनोज और माया दोनों पर ज़िम्मेदारी बढ़ने लगी। माया घर के कामो में और बच्चे सँभालने में व्यस्त रहने लगी और मनोज को फ़िर से अपना दिल बहलाने के लिए लड़की की ज़रूरत पड़ने लगी, मनोज देर रात तक अपनी गर्ल फ्रेंड से फ़ोन पर बातें करता, माया दरवाज़े के पीछे छुप के सब सुन लिया करती, मगर मनोज से कभी इस बार में सवाल न कर पाई, बात और बढ़ने लगी, अब तो वह रात को घर से चला जाता और सुबह आता, या तो कभी-कभी सुबह जल्दी निकल जाता और रात को देर से आता। मनोज का माया पर जैसे ध्यान ही नहीं, कि " माया घर में क्या कर रही है और कैसी होगी ? " माया बार-बार मनोज को फ़ोन किया करती मगर तब भी मनोज माया के १० कॉल में से एक कॉल का ही जवाब देता और इस बीच अगर कभी बच्चें कोई गलती करे तो भी मनोज माया को ही सुनाता, " आखिर आज तक तूने बच्चों को सिखाया ही क्या है ? पूरा दिन तुम आखिर घर में करती ही क्या हो ? मुफ़त की रोटियांँ ही तो तोड़ती हो और तो और तुम्हारे लाड-प्यार में दोनों बच्चें बिगड़ गए है, देखो, कैसे सब के सामने शैतानी करते रहते है और अब तो मेरे सामने मुँह पे जवाब भी देना सिख गए है, ये सब तुमने ही तो सिखाया है ना, दोनों को ?" माया ग़म में डूबी रह जाती, कि क्या सच में इस में भी मेरी ही गलती है ? मैंने बच्चों को कुछ नहीं सिखाया ? और माया हर बार की तरह चूप रह जाती, माया का शरीर दो पल के लिए ठंडा पड़ जाता और उसके हाथ पैर भी कांपने लगते, उसके पास मनोज के सवाल का उस वक़्त कोई जवाब नहीं होता था। "
            माया की पढाई भी इस प्यार के चक्कर में अधूरी रह गई। माया पहले से ही बहुत शांत स्वाभाव की थी, उसने किसी से झगड़ा करना या किसी से ऊँची आवाज़ में बात करना सीखा ही नहीं था, छोटी-छोटी बात पे मनोज गुस्सा हो जाता, तब भी माया चूप रह जाती। ऐसी और भी कई बातें जो माया के दिल को दर्द पहुँचाती रही। 
           लेकिन आज तो माया का दिल एक दम से टूट ही गया, उसके इतनी कोशिश के बावजूद भी मनोज उस से दूर ही रहता। माया के अंदर  जैसे युद्ध चल रहा था, इतने सालो में उसने मनोज के लिए क्या कुछ नहीं किया ? एक के बाद एक सब याद आने लगा, जो दर्द माया ने इतने साल सहा। 
           मैंने तो सोचा था,
"तेरे साथ चलते-चलते ज़िंदगी की राह आसान हो जाएगी। " मैंने तो तुम से बिना किसी शर्त बेपनाह प्यार किया, मगर " ये कैसा दर्द दिया पिया तूने मोहे। " अभी तो माया का दर्द कम भी नहीं हुआ था, कि मनोज ने आज तो बदतमीज़ी की सारी हदे पार कर दी। आज तो मनोज अपने साथ एक लड़की को घर लेकर आया और माया और बच्चों के सामने ही उसी के बिस्तर पे बैठ जाता है, माया उसी वक़्त अपने दोनों बच्चों को लेकर अपना सामान लिए घर छोड़कर अपने पापा के घर चली जाती है। 
       माया ने अपने पापा के घर का दरवाज़ा खटखटाया। माया के पापा ने दरवाज़ा खोला, सामने दो बच्चों और सामन के साथ अपनी बेटी की ऐसी हालत देखकर माया के पापा ने अंदाज़ा लगा लिया, कि माया सच में तकलीफ में है, इसलिए उन्होंने माया को घर के अंदर आने दिया।         माया ने अपने पापा के पांव पकड़ लिए और कहाँ, " पापा, मुझे माफ़ कर दो, मुझ से बहुत बड़ी गलती हो गई है, आप सच ही कहते थे, कि मनोज अच्छा लड़का नहीं है, लेकिन मैं उस वक़्त उसके प्यार में अंधी हो गई थी, जो आप के लाख समझाने पर भी मैं नहीं मानी, मैंने आपका बहुत दिल दुखाया है। मुझे प्लीज माफ़ कर दीजिए, पापा। 
     माया के पापा ने अपनी बेटी माया को गले से लगा लिया और कहा, " पहले तो तुम रोना बंद करो, तुम्हें पता है, ना कि मैं तुम्हारी आँखों में आंँसू नहीं देख सकता, इसी बात पे कई बार मेरा तुम्हारी माँ से भी झगड़ा हो जाता था। और रही माफ़ करने की बात, तो माफ़ तो मैंने तुम्हें कब का कर दिया था, मगर तुम उसके बाद कभी आई ही नहीं और नाहीं हमें मिलने की तुमने कभी कोशिश की। तो हमने सोचा, तुम मनोज के साथ खुश होगी। मगर इतने साल बाद आज अचानक क्या हुआ ? "
        माया ने कहा, " क्या कुछ नहीं हुआ ? आप को मैं अपनी तकलीफ़ नहीं बताना चाहती थी और कहती भी तो क्या मुँह लेकर, मैंने आपकी मर्ज़ी के खिलाफ जो शादी की थी।  तो मैंने सोचा, कि जो भी करना है, अब बस मुझे ही करना है, इसलिए मैंने मनोज को समझाने और सुधारने की अपनी और से बहुत कोशिश की, मग़र अब बस, अब पानी सर से ऊपर पहुँच गया है, अब उसकी बदतमीज़ी मैं और नहीं सेह सकती। इसलिए आप के पास चली आई और जाती भी तो कहाँ ? आप दोनों के अलावा मेरा इस दुनिया में है ही कौन ? बस कुछ ही दिन पापा, उसके बाद में अपने और अपने बच्चों के लिए रहने का इंतेज़ाम कर ही लूँगी। "
      माया के पापा ने कहा, " ऐसा क्यों कहती हो ? ये अब भी तुम्हारा अपना ही तो घर है। बहुत अच्छा किया बेटी, जो तू यहाँ चली आई। आखिर हम तुम्हारे माँ-बाप है और माँ-बाप अपने बच्चों का साथ कभी नहीं छोड़ते, माँ-बाप का दिल बहुत बड़ा होता है, वह किसी भी हाल में अपने बच्चों को माफ़ कर ही देते है। अब तुम्हें फ़िक्र करने की कोई ज़रूरत नहीं, तुम अब से हमारे साथ ही रहोगी और रही बात तुम्हारे और मनोज के रिश्तें की तो जहाँ तक मैं तुम्हें जानता हूँ, वहांँ तक तुम ऐसी कोई गलती कर ही नहीं सकती, जिस से की मनोज गुस्सा हो, गलती ज़रूर उसी नालायक़ की ही होगी।  
       माया के पापा ने माया को अपनी पढाई पूरी करने को कहा, डिस्टन्स लर्निंग से माया ने अपनी पढाई पूरी कर ली। उसे अब अच्छी जॉब भी मिल गई, माया की माँ बच्चों का ख्याल रख लेती। उस दरमियाँ माया के पापा ने मनोज को माया को डिवोर्स देने की नोटिस भेज दी, मगर वह डिवोर्स देने के लिए इतनी जल्दी नहीं माना, क्योंकी दो बच्चों के साथ डिवोर्स देने में माया के पापा ने उससे बच्चों की पढाई के पैसे और माया का खर्चा उठाने को कहा, तब मनोज डर गया और माया को फ़ोन कर के परेशान करने लगा, माया से अपनी गलती की माफ़ी भी माँगने लगा, मगर माया के पापा को पता था, कि ये सब वह पैसे बचाने के लिए कर रहा है, इसलिए इस बार माया के पापा ने माया को समझा दिया, कि मनोज सुधरने वालों में से नहीं है, उसे सुधरना होता तो वह कब का सुधर गया होता, अब तुम ही सोच लो, कि अब तुम्हें क्या करना है, फ़िर से उसी के साथ रहना है, या अपनी ज़िंदगी अपने हिसाब से जीना है ? " आज भी जैसा तुम चाहोगी, वैसा ही होगा। 
       इस बार अब माया को अपने पापा की बात सच लगी, इसलिए वह अपने फैसले पे लगी रही। देर से ही सही लेकिन आख़िर मनोज को डिवोर्स पेपर्स पे दस्तख़त करने ही पड़े, वह भी माया की सारी शर्त मानते हुए। 
        वैसे तो माया पहले से ही बहुत सुंदर, सुशील और संस्कारी लड़की थी, इसलिए आज भी उस के लिए अच्छे रिश्तें आते रहे, लेकिन अब माया का भरोसा प्यार से उठ चूका था, इसलिए उसने अपनी बाकि की ज़िंदगी अपने बच्चों की परवरिश करने में और अपने माँ-पापा की सेवा में गुज़ारना पसंद किया।  
    अब मनोज माया की ज़िंदगी से पूरी तरह चला गया था, मगर फ़िर भी अकेले में माया को अक्सर अपना बिता हुआ पल ना चाहने पर भी आँखों के सामने आ ही जाता और कुछ आँसू आँखों से पानी की तरह बह जाते। वो कहते है ना, कि " हर एक की ज़िंदगी में कुछ बातें ऐसी होती है, जिसे वह भूलना चाहे तो भी भुला नहीं पाते। "
       
       तो दोस्तों, ये सिर्फ एक माया की कहानी नहीं है, आज भी दुनिया में कई ऐसी औरतें है, जो शायद ऐसे दर्द से हर रोज़ गुज़रती है। हर दर्द सेहती ही, चूप रहती है, अपने घर वालों की हांँ में हाँ मिलाती रहती है, चाहने पर भी कुछ कह नहीं पाती। अपना अपमान उसे पल-पल याद आता रहता है, मगर फ़िर भी बच्चों और परिवार वाले और माँ-बाप की वजह से वह चूप रह जाती है। हर ग़म हर दर्द सेह जाती है। मगर आखिर कब तक ? 
 
Bela... 

          
    
                    17 ) ससुराल में दरज्जा 
      
        शीला की पढाई के बाद उसने अपने मम्मी-पापा की मर्ज़ी से उनके पसंद के लड़के के साथ शादी कर ली, शीला के मम्मी-पापा ने भी शीला के लिए बहुत ही अच्छा घर और लड़का देखा था और तो और पैसो की भी कोई कमी नहीं थी, समाज में शीला के ससुराल वालों का नाम और रूड़बा भी बहुत अच्छा था। 
         शीला के ससुराल में उसके सास, ससुर, बड़े भाई-भाभी, छोटी नन्द, जो अभी कॉलेज में पढ़ती थी, वह सब साथ में रहते थे, शीला के पति सुशांत और उसके बड़े भाई एक ही कंपनी में काम करते थे, इसलिए वह दोनों  साथ में ही टिफ़िन लेकर ऑफिस चले जाते और छोटी नन्द भी अपना टिफ़िन लेकर कॉलेज चली जाती, घर में शीला, उसकी जेठानी और उसकी सास, ससुर रह जाते, घर का सारा काम मिल-जुलकर कर लेते, उसके साथ-साथ शीला को लिखने का और नॉवेल पढ़ने का भी बहुत शौक था। शीला को जब भी वक़्त मिलता तो नॉवेल पढ़ लेती या अपनी डायरी और पेन लेकर कुछ लिखने बैठ जाती। यह बात उसके पति सुशांत को भी पता थी, मगर इस बात से सुशांत को कोई तकलीफ नहीं थी, कभी-कभी वह अपने शायरी, कविता या कहानी अपने पति सुशांत को भी सुनाया करती। सुशांत को भी उसकी कविता और कहानी अच्छी लगती, वह उसकी तारीफ़ करता। शीला ने एक किताब लिखी थी, जो सुशांत को भी नहीं पता था, लेकिन एक दिन अपनी अलमारी से फाइल ढूंँढते वक़्त सुशांत के हाथों में शीला की वह डायरी आ गई, सुशांत ने डायरी के पहले दो पन्ने उसी वक़्त पढ़ लिए, जो बहुत ही दिलचस्प लगे, इसलिए सुशांत ने वह डायरी अपने पास रख ली और वह उसे ऑफिस ले गया, जैसे ही सुशांत को थोड़ा सा वक़्त मिलता, वह शीला की डायरी पढ़ने लगता, ऐसे कर के कुछ ही दिनों में उसने वह डायरी पढ़ ली और सच में वह एक बहुत अच्छी प्रेम कहानी थी। जिस में जैसे शीला के दिल की हर एक बात हो, ऐसा सुशांत को डायरी पढ़ के लगा, तब सुशांत के मन में ख्याल आया, कि क्यों ना इस डायरी को ही किताब का नाम दिया जाए और ये प्रेम कहानी सब को सुनाई जाए, इसलिए अपने मम्मी-पापा और भैया-भाभी से बात कर के उनकी इजाज़त लेकर, बिना शीला को इस डायरी के बारे में कुछ बताए चूपके से सुशांत ने वह डायरी को एक अच्छे से पब्लिकेशन में देकर उस शीला।की लिखी प्रेम कहानी को किताब का रूप दे दिया। 
          फ़िर कुछ दिनों बाद शीला की सालगिरह पर सुशांत ने उसी की लिखी हुई डायरी, किताब के रूप में उसे देते हुए कहा, कि अब तुम्हारे पास एक साल और है, अपनी नई किताब लिखने का, हम सब को तुम्हारी ये प्रेम कहानी बहुत पसंद आई है, तो अब दूसरी किताब लिखना भी शुरू कर दो। 
     ये बात सुनते ही शीला के तो होश ही उड़ गए, क्योंकि उस किताब के बारे में उसने कभी किसी को नहीं बताया था, उसे यह किताब सुशांत के हाथों कैसे लगी ये भी नहीं पता था, तभी घर के बाकि लोग भी तालियांँ बजाते हुए शीला को मुबारक बाद देने लगे, उसने सोचा भी नहीं था, कि ससुराल में उसके लिखने की कला को इतना मान-सम्मान दिया जाएगा, क्योंकि मायके में तो जब भी वह लिखने बैठती तो वह लोग कहते, कि तुम्हारी शायरी और किताब ससुराल में कोई नहीं पढ़ेगा, बल्कि चपाती गोल बनी या नहीं, सब्जी स्वादिष्ट बनी या नहीं, ससुराल में यही सब देखा जाएगा। 
         यह सब याद आते ही शीला की आँखों से ख़ुशी के आँसू बहने लगे, क्योंकि शीला एक बहुत सिंपल सी लड़की थी, जैसा उसने आज तक ससुराल के बारे में सुना या देखा था, उस से बिलकुल उल्टा उसका ससुराल और उस घर के लोग थे। यहाँ जो जो देखा, सुना था, उस से उल्टा ही हो रहा था, शीला के ससुराल वाले शीला की बहुत तारीफ करते और जहाँ भी जाते सब के पूछने पर बड़े गर्व से कहते, कि हमारी शीला हाउस वाइफ के साथ-साथ एक बहुत अच्छी लेखिका भी है और ये कविता और कहानी बहुत ही अच्छी लिख लेती है।     
      तो दोस्तों, हर बार ससुराल वाले गलत ही हो, ये भी सही नहीं, कई घर में आज कल बहु को बेटी का दरज्जा दिया जाता है, मगर ये बात भी सच है, कि बहु को भी ससुराल में सब को मान-सम्मान देना चाहिए, तभी वह उनके दिल में अपनी जगह बना सकती है, क्योंकि ताली एक हाथ से नहीं बजती, वैसे ही अगर ससुराल में आपको मान-सम्मान चाहिए तो पहले सब को मान-सम्मान देना भी सीखना होगा। 
     
Bela... 

             18 )  रोशनी की उम्मीद 

           रीता आज हस्ते-हस्ते रोने लगी, बात करते-करते उसका गला भर आया। मैं समझ गई, कि वह आज फ़िर से टूट के बिखर गई है, मगर हर बार की तरह वह बताएगी कुछ भी नहीं। इसलिए मैंने आज उससे कह दिया, कि " देखो रीता तुम जब बहुत हस्ती हो ना, तब मुझे पता चल जाता है, कि तुम अंदर से बहुत परेशान और दुःखी हो। मुझे पता है, कि तुम यह किसी को बताना नही चाहती, लेकिन तुम्हें मुझे कुछ भी बताने कि जरूरत ही नही है, तुम्हारी ये झूठी हँसी और तुम्हारी आँखें मुझे तुम्हारे दिल का हाल सुना जाती है और वैसे भी मैं तुम्हारे घर सिर्फ़ एक दिन के लिए ही आई हुँ और मुझे तुम्हारे पति रवि और तुम्हारी सासुमा का रवैया अच्छे से पता चल गया है, चाहे तुम जितना भी छिपा लो, मगर आँखें सच्चाई बयांँ कर ही देती है क्योंकि मैं तुम्हें अच्छे से जानती हूंँ, तुमने कभी अपने बारे में सोचा ही नहीं, हमेशां अपने अपनों के बारे में ही सोचती रहती हो।"
         ऐसा सुनते ही रीता मेरे गले लगकर रोने लगी और कहने लगी, " क्या करू, मुझे कुछ भी समझ नहीं आ रहा, रवि सब के सामने बात-बात पर मेरा अपमान किया करते है, सुबह से लेकर शाम तक घर का सारा काम करने के बावजूद भी घर आकर यही कहते है, कि "पूरा दिन तुम घर में करती क्या हो, कुछ काम तो होता नहीं, बस बैठी रहती हो और फोन पर दोस्तों के साथ गप्पे लगाया करती हो। " उनको कहीं भी जाना हो तो मुझे उनके साथ जाना ही पड़ता है, मगर मैं अपनी सहेली के साथ कहीं नहीं जा सकती, नाहीं कोई किटी पार्टी, नाहीं कोई क्लब में जाना, अगर कभी मैं दोस्तों के साथ बाहर चली भी गई, तब मुँह पर कुछ नहीं कहते, लेकिन बाद में मौका मिलते ही ऐसी जली कटी सुनाते है, कि सुनकर लगता है, कि इस से अच्छा तो मैं कहीं नहीं जाती, घर पर ही रहती तो अच्छा होता और तो और रात को तो उनको साथ में सोना चाहिए ही, चाहे मेरी मर्जी हो या ना हो, मेरा बदन दर्द करे या फिर सिर दर्द करे, उनको उस से क्या ? उनके बगैर तो उनको चलता ही नही और सासुमा दिन भर झूले पर बैठकर ऑर्डर करती रहती है, खुद तो कुछ काम होता नहीं और मुझ में गलतियाँ निकालती रहती है, जब देखो तब सुनाती रहती है, कि " तुम्हारी माँ ने तुम्हें कुछ भी सिखाया नहीं ।" अब तुम ही बतलाओ अब इस में मेरी माँं की क्या गलती ? "
       मैंने रीता से कहा, कि " अगर तुम से यह सब सहन नहीं होता तो तुम आवाज उठाओ, क्यों इतना दर्द सहती रहती हो ? अपने मायके में माँ को बताया या नहीं ? "
      रीता ने कहा, " अरे नहीं, अब इस उम्र में उनको क्या परेशान करना, मेरा तो सब से लाडला मेरा बेटा था। मैं उस से सारी बातें किया करती थी, वह था, तो वह मेरी साइड लेता था, रवि और सासुमा के ताने से वहीं मुझे हर बार बचाता था, मेरे लिए तो वह कभी-कभी अपने पापा से भी लड़ पड़ता था, फ़िर मैं ही उसको चूप रहने को कहती थी, वह था तो जैसे एक हिम्मत बनी रहती थी, मगर उसकी मौत के बाद मैं एकदम से टूट गई हूँ, एक दम अकेली पड़ गई हूँ, सोचती हूँ, कि " उस दिन मैंने मेरे एक लौटे बेटे को कार में जाने ही क्यों दिया, अगर वह नहीं गया होता, तो उसका कार एक्सीडेंट नहीं हुआ होता और वह आज मेरे साथ होता, अब तो मुझे भी बस उसके पास जाने का इंतजार है, रोज़ मैं उसकी फोटो देखकर उसको यही कहती रहती हूँ, कि जाना ही था, तो तू अकेला क्यों चला गया, मुझे साथ लेकर क्यों नही गया ? लेकिन वह कोई जवाब नहीं देता, बस मुझे तस्वीर में से देखा करता है। "
        मैंने रीता से कहा, " तो फ़िर कब तक ऐसा चलता रहेगा, तुम्हें भी खुश रहना का अधिकार है, तुम्हें भी तो अपने मन की करने का अधिकार है, तुम्हें भी तो दोस्तों के साथ बाहर जाने का अधिकार है, इतनी सारी पाबंदियां क्यों ? तुम्हारी जगह मैं होती, तो मैं तो यह सब सह नहीं पाती और तो और रात को ऐसे पति को तो मैं अपने पास भी ना आने दूँ, तुम उनके बारे में इतना सोचती हो, कि " बेटा जाने के बाद उनको भी इस बात का बहुत दुःख है और उसी वजह से वह चिढ़ से गए है, लेकिन तुमने भी तो अपना बेटा खोया है, उसका कुछ नही ? उसके जाने के बाद दूसरे बच्चे के लिए भी तुम दोनों ने बहुत कोशिश की, IVF भी करवाया, फ़िर भी उम्र के हिसाब से नहीं हुआ, तो उसमें तुम्हारी क्या गलती ? और इन सब चक्कर में तुम्हारे शरीर और मन पर कितना असर हुआ, उसका भी उनको अंदाज़ा तक नहीं। " HEADS OF YOU " ऐसी परिस्थिति में सिर्फ़ तुम ही उसे बर्दाश्त कर सकती हो, ओर कोई नहीं। मैं बहुत सालों बाद तुमसे मिलने आई, तुम्हारे साथ फोन पर कभी कबार बात होती रहती थी, तब भी तुमने मुझ से ठीक से बात नहीं की, तभी तुम्हारी आवाज़ से मुझे पता चल गया था, कि ज़रूर कुछ बड़ी बात होगी, इसीलिए बहाना बनाकर सारे काम छोड़कर मैं यहांँ तुमसे मिलने आई हूंँ, मगर आज यहांँ आकर सब कुछ जानने और देखने के बाद मैंने यह सोच लिया है, कि आज से तुम यहांँ नही रहोगी, मेरे साथ चलोगी, मेरे घर नहीं तो मेरे पड़ोस में एक फ्लैट खाली है, वहांँ रहोगी, खुद की मर्जी से जीओगी, अपने लिए कुछ करोगी, जो पसंद है वह काम करोगी, आज तक जो भी नही किया, वह सब तुम अब करोगी, अपने पैरों पर खड़ी रहोगी, रवि और अपने घर वालों को अकेला छोड़ दो, उनको अपनी मर्जी से जीने दो, तभी उनको आटे डाल का भाव पता चलेगा, तुम्हें किसी को कोई सफाई देने की ज़रूरत नहीं, तुम मेरे साथ चल रही हो, मैं सारा इंतजाम कर लूँगी, तुम्हें अब यहांँ रहने की कोई ज़रूरत नहीं हैं। "
      रीता ने मुझे गले लगाकर कहा, " तुमने मेरे बारे में इतना सोचा, वहीं मेरे लिए बहुत है, अब इस उम्र में घर और पति को छोड़ना भी तो सही नहीं है, मेरी मांँ यह सुनकर जीते जी मर जाएगी और पापा का सिर शर्म के मारे झुक जाएगा, मैं उनको इस उम्र में और तकलीफ़ देना नहीं चाहती, वैसे भी मेरे बेटे के जाने के बाद मांँ को मेरी फ़िक्र लगी रहती है, रोज़ फोन कर के मेरा हाल पूछती है, मगर मैं हंसकर बात टाल देती हूँ, अब मैंने सब मेरे कान्हा जी पर छोड़ दिया है, वह जैसा मुझ को रखेंगे, वैसे ही मैं रहुंँगी, दिन भर उनका ही नाम लिया करती हूंँ, जो भी कहना हो, अपने कान्हा जी को ही कहती हूंँ, इसलिए तुम मेरी फ़िक्र मत करो, मैं अपने आप को संँभाल लूंगी। "
           रीटा की बात सुनकर मेरा अब वहाँ ज़्यादा देर रुकने का मन नहीं किया, इसलिए मैने रिटा से कहा, कि " जैसा तुम्हें ठीक लगे, लेकिन जब भी तुम्हें मेरी ज़रूरत हो, बिना किसी हिचकिचाहट से मुझे बुला लेना, मैं पहले भी तुम्हारे साथ थी, साथ हूँ और तुम्हारे साथ ही रहूंगी। 
        घर जाते-जाते सारे रास्ते में मैं आज यही सोचती रही, कि आख़िर औरत अपने बारे में सोचना कब शुरू करेगी ? मेरा घर, मेरा बेटा, मेरा पति, मेरे सास ससुर, मेरी मां, मेरे पापा, मगर इन सब में वह खुद है कहांँ ? कहीं भी नहीं, औरत खो गई है अंधेरों में कहीं, या तो उसने खुद अपने आप को बंद कर दिया है इन्हीं अंधेरों में जहाँ से रोशनी आने की उम्मीद लगाए बैठी हुई है, कि काश किसी रोज़ तो घरवालों को उनकी कद्र होगी और रोशनी की किरण खिड़की में से सीधे उसके कमरे में ही आ जाएगी, लेकिन उनकी यह उम्मीद शायद ही किसी की सच होती है और उन्हींं अंधेरों  में औरत एक दिन कहीं खो जाती है।

Bela...
           
                   19 )   एहसास 

           डॉली ने अपनी कॉलेज से मुझे फ़ोन किया, मैं सामने से कुछ कह पाऊं, उस से पहले ही डॉली ने बात करना शुरू कर दिया," हेलो, पापा ! कल आपको मेरे कॉलेज के कन्वोकेशन सेरेमनी में आना ही है, चाहे कुछ भी हो जाए। "

          मैंने कहा, कि " मैं समझता हूँ बेटा, कि तुम्हारे लिए ये सेरेमनी कितना ज़रूरी और आवाश्यक है। मगर बेटा, तुम मुझे भी समझने की कोशिश करो, मेरी कल एक बहुत ही ज़रूरी मीटिंग है, जो मैं कैंसल नहीं कर सकता, वार्ना मेरा बहुत नुकसान हो जाएगा, please बेटा, मेरी बात समझने की कोशिश करो। "

         डॉली ने कहा, कि " मैं इन सब में कुछ नहीं जानती, आपको आना है, तो आना ही है, वार्ना मैं आप से कभी भी बात नहीं करुँगी, आप चाहे कितना भी मनाओ, मैं नहीं मानने वाली। "

       कहते हुए डॉली ने रूठते हुए फ़ोन ऱख़ दिया। इस तरफ़ मेरे लिए यह मीटिंग करना बहुत ही ज़रूरी था, विदेश से कुछ क्लायंट सिर्फ़ एक दिन के लिए ही और सिर्फ़ इस डील के लिए ही आनेवाले है और वे लोग वहांँ से निकल भी गए है, अब मैं उन्हें कैसे रोकूँ या मना करूँ, कि " कल मेरी बेटी के कॉलेज में कन्वोकेशन सेरेमनी के लिए जाना है। " मैंने अपने चश्मे अपनी आँखों से उतारे और अपनी कुर्सी पर सिर रख आँख बंद कर कुछ सोचने लगा।

       दूसरे दिन सुबह फिर से डॉली ने मुझे याद कराते हुए कहा, कि " आप को याद है ना पापा, कि आज शाम ठिक ५ बजे आपको हमारी कॉलेज आना है, मैं अपने दोस्तों के साथ जल्दी कॉलेज जाने वाली हूँ, आप बाद में आ जाना, मैं आपका इंतज़ार करुँगी।" 

      कहते हुए डॉली ने फोन रख दिया। मैं फिर से नाश्ता करते-करते सोच में पड़ गया, कि आज शाम को मैं क्या करूँ, डॉली के कॉलेज चला जाऊँ या मीटिंग में ? 

       आख़िर वो पल आ ही गया। कॉलेज का पूरा हॉल स्टूडेंटस और पेरेंट्स से भरा हुआ था, सब लोग बहुत खुश दिखाई दे रहे थे। डॉली बार-बार अपनी बगल वाली कुर्सी, जो उसने अपने पापा के लिए जगह रखी हुई थी उस कुर्सी को और दरवाज़े की तरफ़ देखे जा रही थी, ये जानने के लिए, कि उसके पापा कब आएँगे ? एक के बाद एक सब बच्चों को स्टेज पर बुलाया जा रहा था, सब को काला कोट, काली टोपी और हाथ में एक सर्टिफिकेट दिया जा रहा था, सब तालियाँ बजा रहे थे, डॉली के दिल की धड़कन और तेज़ होने लगी, जब उसका नाम पुकारा गया, "डॉली अग्रवाल"। तब डॉली ने फिर से एक बार दरवाज़े की और देखा, उसकी आँखें अब भी उसके पापा को ढूँढ रही थी, वो चाहती थी, कि उसे स्टेज पर काळा कोट और काली टोपी के साथ उसके पापा उसे देखे। जैसे उसके हर दोस्त के पेरेंट्स उनको देख रहे थे। तभी दूसरी बार डॉली का नाम पुकारा गया, तब डॉली मायूस होकर स्टेज की ओर आगे बढ़ने लगी, उसने सोच लिया, कि " छोड़ो, आज उसके पापा नहीं आनेवाले। "

     मगर जैसे ही टीचर डॉली के हाथों में उसका सर्टिफिकेट देने जा रहे थे, तभी दर्शकों में पीछे से तालियों की आवाज़ सुनाई देने लगी, सब ने मूड कर पीछे की तरफ़ देखा, तो डॉली के पापा तालियांँ बजाते हुए अपनी बेटी डॉली की तरफ़ गर्व से देखते हुए आगे आ रहे थे। डॉली की ख़ुशी का तो ठिकाना ही ना रहा, डॉली ने तो अपने पापा के आने की उम्मीद ही छोड़ दी थी। डॉली भागति हुई स्टेज से उतरकर अपने पापा की तरफ़ जाती है और अपने पापा को गले लगाकर कहती है, " थैंक यू, थैंक यू, थैंक यू, सो मच पापा, की आप आज आ गए, आपको पता नहीं, कि मैं आज कितनी खुश हूँ । " 

        मैंने कहा, "मैं भी आज बहुत ही खुश हूँ । अब स्टेज पर जाओ भी और अपनी ट्रॉफी लेकर आओ।"

     डॉली उछलते-कूदते फिर से स्टेज पर जाती है, टीचर्स उसे सर्टिफिकेट देते है, काला कोट और कैप पहनाते है और उसके फर्स्ट प्राइज के लिए उसे ट्रॉफी भी देते है, उस पल मेरे हाथ न तो तालियांँ बजाते हुए रुके और नाहीं मेरी आँखों से ख़ुशी के आंँसू बहते रुके। चेहरे पर ख़ुशी और आँखों में आंँसू ये कैसा अनोखा संगम है, तालियाँ बजाते हुए मैं खुद उस पल ये समझ नहीं पा रहा था।

      सोचते-सोचते मैं कुछ पल के लिए अपने ही बचपन में चला गया, जब मैंने पहली बार स्टेज पर गाना गाया था, जब मैंने स्टेज पर गिटार बजाया था, जब मैंने स्पोर्ट्स डे के दिन स्कूल मैं ट्रॉफी जीती थी, जब मैंने राइटिंग कॉम्पिटशन में ट्रॉफी जीती थी, जब मैंने साइकिल रेसिंग में, जब मैंने फुटबॉल में, जब मैंने पढाई में, जब मैंने अपनी कॉलेज के आखरी एग्जाम में टॉप किया था और मुझे ट्रॉफी मिलने वाली थी, तब-तब मेरी नज़र भी यूँही दरवाज़े पर अपने मम्मी-पापा को ढूँढ रही थी, सब मुझे बधाइयाँ देते थे, मगर में तब अपने आप को भीड़ में भी अकेला महसूस करता था। क्योंकि उस वक़्त मेरे मम्मी-पापा मेरी ख़ुशी में कभी सामिल नहीं हो सके, उनके लिए उनकी मीटिंग्स और उनका बिज़नेस ज़रूरी था, मेरे दादू जो घर में फ्री ही रहते थे, तो उनको भेज दिया करते और रात को घर आकर मेरे हाथ में नया खिलौना देकर, मुझे बहुत-बहुत बधाई देकर मुझे खुश कर दिया करते, मगर उनको क्या पता, कि मुझे उस वक़्त उस खिलौने की नहीं, मगर उनकी ज़रूरत थी, मेरे सारे दोस्त के पेरेंट्स आते थे, सिर्फ़ मेरे पापा और मम्मी ही नहीं आते थे, फिर रात को मैं अपने दादू के गले लगकर रो कर सो जाया करता, और सुबह जब उठता, तो कभी-कभी मम्मी और पापा शहर से बाहर किसी मीटिंग्स के लिए जा रहे होते थे, मैं दौड़कर खिड़की की तरफ़ भागता और उनको आवाज़ लगाता, " मम्मी-पापा, मम्मी-पापा, रुको, मुझे आप से कुछ कहना है, कुछ सुनना है, कुछ सुनाना है, कुछ देखना है, कुछ दिखाना है। " मगर मेरी आवाज़ उन तक नहीं पहुँच पाती और वे लोग मुझ से कई दूर चले जाते।  मैं अपने दादू के पास जाकर मुँह फुलाकर बैठ जाता, दादू समझ जाते, इसलिए मुझे बातों में लगा लेते और हंसा दिया करते। " 

       तभी कॉलेज के हॉल में अचानक से गिटार बजने की आवाज़ सुनाई पड़ती है। मैं होश में आता हूँ, स्टेज पर देखता हूँ, तो मेरी बेटी, डॉली जो, मुझे अपनी जान से भी प्यारी है, वह हाथ में गिटार लिए बजा रही है और उसका दोस्त उसी की धुन पर गाना गा रहा है, डॉली की नज़र बार-बार मुझ पर आकर रुक जाती, मैं अपनी आँखों के आंँसू छुपा दिया करता और अपने हाथ उठाकर अपना थंब दिखाकर उसे चीयर-उप करने की कोशिश करता। आज मैं बहुत खुश हूँ, कि जो मेरी बेटी बचपन से मेरे साथ हर छोटी-बड़ी बात पे सवाल उठाती और आर्गुमेंट करती रहती, वह आज खुद एक वकील बन गई है। मेरी छोटी सी गुड़िया अब सिर्फ़ मेरे साथ ही नहीं, बल्कि पूरी दुनिया के साथ सच्चाई के लिए आवाज़ उठाएगी, हर औरत की तकलीफ़ को समझेगी, हर किसी को इन्साफ़ दिलाएगी, मेरी छोटी सी गुड़िया, आज बड़ी हो गई। 

     डॉली स्टेज से उतरकर फिर से मेरे गले लग जाती है, कॉलेज के कमरें में तालियों की आवाज़ अब भी सुनाई देती है। डॉली ने कहा, " पापा अगर आज आप के साथ माँ होती, तो मुझे ऐसे ट्रॉफी लेते देखकर वो भी कितना खुश होती ना ? "

       मैंने कहा, " हांँ, बेटी, तुम्हारी माँ, होती तो शायद आज तुम वकील के काले कोट में नहीं बल्कि शादी के जोड़े में होती। " 

      मेरी बात सुनकर डॉली मुस्कुराकर बड़ी ज़ोरों से हँसने लगी, " क्या पापा, आप भी, मैं तो सोच रही थी, कि अपने लिए अब मैं नई मम्मी ढूँढना शुरू कर दूँ। " 

          हम दोनों ज़ोर-ज़ोर से हँसने लगे। 

    तो दोस्तों, मैं देवेन्द्र अग्रवाल अपने मम्मी-पापा का एकलौता बेटा या कहूंँ तो उनकी ज़मीन, ज़ायदाद और बिज़नेस का एक लौटा वारिस हूँ, जो आज भी अपने पापा का बिज़नेस सँभाल रहा हूँ, जो आज का बहुत बड़ा बिज़नेस मेन है और जो बचपन से अपने पापा और मम्मी के साथ सिर्फ़ वक़्त गुज़ारना चाहता था, मुझे उनका सब कुछ मिला मगर वक़्त ही ना मिला। इसलिए आज कल मैंने अपने जीवन में अपने आप पे ही एक किताब लिखनी शुरू की है, ये मेरे ही जीवन का एहसास, ये मेरी ही किताब का, मेरे ही जीवन का एक छोटा सा सच था, जो मैं आप सब के साथ बाँटना चाहता हूँ।    

       दुनिया की सारी ख़ुशी एक तरफ़ और बेटी की खुशी एक तरफ़। मेरी नज़र से देखो तो, अपने बच्चों को स्टेज पर ट्रॉफी लेते देखना और उसे कामियाब होते हुए देखना, यह एक पिता के बड़े गर्व की बात है।

       हाँ दोस्तों, उस ख़ुशी के आगे और कुछ भी नहीं, इस पल के आगे और कुछ भी नहीं, मीटिंग्स फिर कभी हो सकती है, पैसा फिर कभी कमाया जा सकता है, शॉपिंग फिर कभी हो सकती है, दोस्तों के साथ गप्पे फिर कभी लगाए जा सकते है, लेकिन यह पल फिर नहीं आएगा, यह एहसास फ़िर नहीं होगा। इसलिए दोस्तों, अपने बच्चों की ख़ुशी में शरीफ रहकर भी आप जता सकते हो, कि आप के लिए उन से ज़रूरी और कोई काम या और कोई बात हो ही नहीं सकती। 

  Bela... 


                      20 )  ज़िंदगी 

          आज मैंने गाजर का हलवा बनाया था, तो सोचा हेमा आंटी को जाकर दे आती हूँ, वह हमारे पड़ोस में ही रहती हैं और उनसे मेरा रिश्ता एक माँ-बेटी के रिश्ते जैसा ही है। इसी बहाने उनसे मिल भी लूँगी, दो दिन से ऑफिस के काम की वजह से उनसे मिल ही नहीं पाई। मैं उनके घर की डोर बेल बजाने ही वाली थी, कि अंदर से किसी के रोने की आवाज़ सुनाई दी। मैं मन ही मन बड़बड़ाई, " ये देखो, आंटीजी फिर से रोने लगी पता नहीं, आज फ़िर से अकेले में बैठे हुए उन्हें क्या याद आ गया होगा ? " लेकिन सोचते-सोचते मैंने बेल बजा ही दिया, बेल बजते ही अंदर से रोने की आवाज़ बंद हो गई। तब मैंने दूसरी बार बेल बजाया, तब जाकर आंटीजी ने दरवाज़ा खोला। 

        मैंने आंटीजी से कहा,  "आंटीजी आप क्या कर रही हैं ?  मैं कब से डोर बेल बजा रही हूँ, मैंने आज गाजर  का हलवा बनाया है, वही देने आई हूँ, सोचा इसी बहाने आप से बातें भी हो जाएँगी ज़रा चख़ के तो बताइए कैसा बना है गाजर का हलवा ? " ( आंटी जी को गाजर के हलवे का डिब्बा देते हुए ) 

         लेकिन हेमा आंटी तो मेरी बात सुनकर फिर से फूट-फूट कर रोने लगी। उनको हँसाने के लिए मैंने हेमा आंटी से फ़िर से कहा, " क्या हुआ आंटी जी ? क्या आपको गाजर का हलवा पसंद नहीं ? आपको कुछ और चाहिए था ? मुझे क्या  पता ? अच्छा चलो, ठीक है, इसे कचरे के डिब्बे में फेंक देती हूँ । 

        मेरी बात सुनते ही हेमा आंटी ने मेरे हाथ से डिब्बा छीन लिया और कहा, " अरी पगली किस ने कहा तुझसे, कि मुझे गाजर का हलवा पसंद नहीं है ? " कहते हुए आंटी जी रोते-रोते हँसने लगे और डिब्बे में से हलवा खाने लगी और हलवा खाते-खाते कहने लगी कि बहुत अच्छा बना है हलवा और दूसरे ही पल हँसते हँसते फ़िर से रोने लगी । उनको रोते हुए देख, मेरी भी आँखें भर आई और मैंने उनको गले लगा लिया। कुछ पल के लिए मैं उनका दर्द महसूस करने की कोशिश करती रही, मगर जिसका दर्द हो वही जाने। आंटी जी का चेहरा अपने हाथों में लेते हुए मैंने उनसे कहा, क्या हुआ आंटी जी ? आज फ़िर से क्यों अकेले में रो रहे थे ? आपको कुछ चाहिए था ? या आप से किसी ने कुछ कहा क्या ? मगर कुछ देर तक आंटी जी बस रोती ही रही, बहुत समझाने के बाद उन्होंने कहा, कि बेटी, " अब तुम से क्या छुपाना ? तुम्हारे अंकल के जाने के बाद मैं तो जैसे बिल्कुल अकेली पड़ गई हूँ। वो थे तो उनके लिए चाय बनाना, खाना बनाना, कपड़े धोना, मंदिर जाना, बाहर घूमने जाना, इधर-उधर की बातें करना, कभी रुठना-तो कभी मनाना, कभी लड़ना-कभी झगड़ना, कभी खरी-खोटी भी सुनाना, ये सब करते थे और अच्छा भी लगता था। वो थे तो पूरे घर में कितनी रौनक थी, अब एक सन्नाटा सा छा गया है, मुझे कुछ भी अच्छा नहीं लगता। मेरी बेटी नैना की शादी यहाँ से दूर बंगलोर शहर में हुई है और वह जाइंट फेमली में रहती है। फ़ोन पर रोज़ बातें हो जाती हैं, मैं चाहकर भी उसके साथ नहीं रह सकती और वो चाहकर भी मेरे पास नहीं आ सकती। तुम्हारे अंकल के बिना पूरा दिन मेरा कैसा भारी सा जाता है, तुम्हें पता नहीं, मैं घर संभालती थी तो वो बाहर का सारा काम, मतलब की बैंक का काम, उनका ऑफिस, बिल भरना, lic का पेमेंट, म्यूच्यूअल फण्ड का पेमेंट, पैसों का सारा हिसाब किताब और भी बहुत कुछ वही सँभालते थे, मुझे उन्होंने कभी कुछ भी नहीं बताया, मुझे जब भी जितने भी पैसों की ज़रूरत होती, बिना कोई सवाल किए मेरे हाथ में रख देते थे। बैंक में जाती हूँ, तो कहते हैं कि आप ऑनलाइन भी सब कुछ कर सकती हैं अब इस ऑनलाइन के ज़माने में मेरी कुछ समझ में नहीं आ रहा, कि कैसे करूँ सब ? आंटी जी कहते-कहते बस सिर्फ़ रोए जा रही थी।  

           मैं समझ सकती थी, कि हेमा आंटी ज़्यादा पढ़ी-लिखी नहीं थी और ऊपर से इस ऑनलाइन के ज़माने में एक अकेली औरत के लिए ये सब कुछ कितना मुश्किल हो जाता है इसलिए मैंने उनको दिलासा देने की कोशिश करते हुए कहा, कि ओफ्फो आंटी ! बस इतनी सी बात और इतनी सी बात के लिए आप इतना रो रही हो, मुझसे कह दिया होता, क्या मैं आपकी बेटी नहीं हूँ ? क्या अंकल जी मुझे अपनी बेटी से कम समझते थे ? 

          मेरी बात सुनकर आंटी जी ने कहा, नहीं ऐसी बात नहीं है बेटी, तुम्हारा अपना भी तो घर है, पति है, ऊपर से तुम ऑफिस भी तो जाती हो, कितनी सारी ज़िम्मेदारी है तुम्हारे ऊपर तो और ऊपर से मैं तुम्हारी ओर तक़लीफ़ बढ़ाना नहीं चाहती।

        मैंने कहा, तक़लीफ़, उस में क्या तक़लीफ़ ? मैं तो ये चुटकी बजाते कर लेती हूँ। तभी उनकी आँखें, मेरी ओर शर्म से फ़िर झुक जाती है, मैं तुरंत ही उनकी परेशानी समझ गई और कहा, कि " मेरे कहने का मतलब ये है, कि अगर मैं ये सब आसानी से कर लेती हूँ, तो आप भी तो ये सब कुछ कर ही लेंगे ना, उस में कौन सी बड़ी बात है, मैं आपको सब कुछ सिखा दूँगी। "

        तब आंटी जी ने कहा, कि " मगर बेटी मुझे तो अंग्रेजी आती भी नहीं है। " 

        मैंने कहा, " तो क्या हुआ ? आप नहीं जानते मोबाइल में आप हिंदी में सब लिख-पढ़ सकते हो। "

  आंटी जी ने कहा, " क्या सच में ऐसा होता है ? "

       मैंने कहा , " क्यों नहीं ? आज कल सब कुछ घर बैठे ही हो जाता है, आपको किसी चीज़ के लिए बाहर जाने की ज़रूरत नहीं। "

      आंटी जी ने कहा कि " मगर मुझे फ़िर भी बहुत डर लग रहा है, गलती से अगर कुछ गड़बड़ कर दी, मैंने तो ? "

      मैंने कहा, " तब भी कुछ नहीं होगा, अगर कुछ ऐसा-वैसा हो गया तो मैं देख लूँगी। अब आपको सब कुछ सिखाने की ज़िम्मेदारी मेरी। "

        आंटी जी ने कहा, " मगर बेटी, तुम अब भी समझ नहीं रही हो, मेरे लिए यह सब बहुत मुश्किल है। "

         मैंने कहा, "  मैं सब समझ रही हूँ, आप क्या कहना चाहती हैं लेकिन आप कोशिश तो कर ही सकती है ना ? अगर नहीं आया, तब भी कोई बात नहीं, हम कुछ और सोचेंगे, मगर आप शुरू तो करो। "

      आंटी जी ने कहा, "  मगर बेटी... "

       मैंने कहा, " अगर मगर कुछ नहीं, देखिए आंटी जी, मैं आपको समझाती हूँ, जैसे कि मेरे लिए ऑफिस का काम करना, या ऑनलाइन मोबाइल पर सब कुछ करना जितना आसान है, उतना ही आसान आप के लिए खाना बनाना है, है ना ? मुझे भी शादी से पहले कहाँ खाना बनाना आता था। धीरे-धीरे सब सीख लिया। फ़िर भी अब भी मुझ से आप के जितना अच्छा खाना बनाना और आप को जितनी dishes बनानी आती है, मुझे नहीं आती। आप जैसा घर सँभालती आई है, वह सब मेरे लिए आज भी मुश्किल ही है, मगर जैसे-तैसे कर ही लेती हूँ, इसी बजह से कई बार मेरे और रितेश के बीच में झगड़ा भी हो जाता है, but its ok, हो जाता है। दूसरे दिन हम दोनों एकदूसरे को सॉरी भी बोल देते है। तो आप भी तो ये सब सीख ही सकती है, ना ? ज़्यादा नहीं तो थोड़ा बहुत समझ में तो आएगा। इस से आपको बार-बार किसी और पर निर्भर भी नहीं रहना पडेगा, अगर आप अपना सब कुछ जब खुद सँभालने लगेंगे, तब आप को भी बहुत अच्छा लगेगा, देख लेना। अब रोना बंद कीजिए और बताइए हलवा कैसा बना है ? वैसे सच बताना। "

        आंटी ने कहा, " हलवा सच में अच्छा बना है, मगर इस में थोड़ी शक्कर ज़्यादा हो गई है और अगर इस में तुम मावे के साथ थोड़ी मलाई भी डालती तो इसका स्वाद और भी अच्छा आता, लेकिन ये भी चलेगा। "

   कहते हुए आंटी के चेहरे पर मुस्कान आ गई। 

        मैंने कहा, " देखा ना, आंटी, आप खाने के बारे में कितना अच्छे से जानती हो, आपको हलवा चखते ही पता चल गया, कि हलवे में मैंने मलाई नहीं डाली। तो वैसे ही आप भी सब कुछ सीख जाओगी। मुझे तो शायद इतना वक़्त ना मिले मगर मेरी एक पहचान में रूपा आंटी है, जो आप ही की तरह हाउस वाइफ है, मगर उसे यह सब कुछ उसके पति ने ही सिखाया है, तो मैं उनसे कह दूँगी, वो दोपहर को या जब भी उनको वक़्त मिले यहाँ आकर आप को सब सिखा देंगे।  इसी बहाने आपका वक़्त भी थोड़ा कट जाएगा और आप की एक नई दोस्त भी बन जाएगी। वैसे भी वह रूपा आंटी भी बहुत अच्छी है और वह बातें तो मुझ से भी ज़्यादा अच्छी करती है। " 

        मेरे कहे मुताबिक रूपाने आंटी जी से कुछ ही दिनों में दोस्ती कर ली और आंटी जी को ऑनलाइन सब कुछ मोबाइल में सिखा भी दिया, माना कि उनको यह सब सिखाने और समझाने में बहुत ज़्यादा वक़्त लग गया और उनसे कई बार ग़लतियाँ भी हो जाती हैं मगर सीखना भी तो ज़रूरी है। अंकल जी के पेंशन से उनका घर चल जाता है और अंकल जी ने म्यूच्यूअल फण्ड में भी आंटी के नाम बहुत पैसे जमा कर रखे हैं, घर भी आंटी जी के नाम ही है, तो अब आंटी जी पूरा दिन घर में न रहकर घर का काम ख़तम कर मंदिर जाती है, पास-पड़ोस में सब की हेल्प भी करती है, योगा और मैडिटेशन क्लास ज्वाइन कर लिया है, ऑनलाइन सब पेमेंट भी कर लेती हैं अकेले हैं, मगर खुश रहते हैं, सब की मदद करती हैं । 

       ये तो अच्छा हुआ, कि धीरे-धीरे हेमा आंटी ने वक़्त रहते सब कुछ सीख लिया, मगर इस दुनिया में और भी कई ऐसी औरतें होंगी जिन्हें इन सब के बारे में कुछ पता नहीं और वह इस बात को लेकर शर्मिंदगी महसूस करती होगी और यह सब कुछ नहीं आने की वजह से उनको अपनी ज़िंदगी में कितनी मुसीबतों का सामना करना पड़ता होगा। मैं ये अच्छे से समझ सकती हूँ, कि यह सब एक औरत के लिए बहुत ही मुश्किल है, मगर वक़्त रहते सब कुछ सीख लेना ही समझदारी है। क्योंकि किसी के चले जाने से हमारी ज़िंदगी तो रूकती नहीं, हमें तो अपनी आगे की ज़िंदगी उन्हीं बीती हुई यादों के सहारे गुज़ारनी ही पड़ती है। चाहे हम चाहे या ना चाहे।     

         तो दोस्तों, इस कहानी से मैं बस सिर्फ़ यही कहना चाहती हूँ, कि इस बदलते ज़माने में या कहूँ तो मोबाइल और ऑनलाइन के ज़माने में हर एक को ये सब सीख लेना बहुत ज़रूरी है, पता नहीं क्या कब हो जाए ? पता नहीं कौन, कब अपना रंग बदल दे ? इसलिए किसी और के लिए नहीं तो अपने लिए वक़्त रहते सब कुछ सीख ही लेना चाहिए। 

Bela... 

       


                  
                     21 )  नौक झौंक

        मेरे दादा और दादी, इन के जैसा इस दुनिया में ना कोई है और ना कोई होगा। वैसे देखा जाए तो दोनों सुबह से लेकर शाम तक सिर्फ एक दूसरे से झगड़ते ही रहते है, उन दोनों के बीच मीठी नौक ज़ौंक चलती ही रहती है, सुबह से मेरा चश्मा कहा है, मेरी दवाई कहा है, पूजा की थाली में आज फूल नहीं तो कल दिया नही है, चाय में शक्कर कम क्यों है, घुटनों में दर्द है, चला नही जा रहा फिर भी मंदिर तो जाना ही है, शाम को दोस्तों से मिलना तो है ही। सुबह हुई नहीं और दादा और दादी की नाैक झौंक शुरू। मैं अपनी किताब में मुँह छुपाकर दोनों की नौक़ झौंक देख सुन लिया करती और मन ही मन मुस्कुराया करती। एक तरफ मेरे मम्मी और पापा को ऑफिस जाने की जल्दी होती है, तो वह भी चिल्लाया करते, मम्मी और पापा दोनों बहुत टेंशन में रेहते, उन दोनों के बीच नौक झौंक नहीं बल्कि झगड़ा होता रहता फिर दादा जी आवाज लगाकर दोनों को चूप करा देते, फिर दोनों मुँह फुलाकर ऑफिस चले जाते।
           लेकिन आज सुबह से घर का माहौल कुछ ओर ही है, नाहीं कोई नौक झौंक नाहीं कोई आवाज़। सुबह से आज दादी लाल साड़ी पहने, लाल चूड़ी, गले में बड़ा मंगलसूत्र, माथे पे लाल बिंदी, हाथों में मेंहदी, बालों में वेणी, सज धज के दादी तैयार होकर मंदिर जा रही थी, दादा जी भी अपने नए कुर्ते में जच रहे थे, मुझ से रहा नहीं गया, आख़िर मैंने पूछ ही लिया, " क्या बात है दादीजी, आज आप इतने तैयार क्यों हुए हो, आज कुछ है क्या ? " दादी थोड़ा मुस्कुराई, पीछे से दादाजी ने मेरी बात सुन ली और कहा कि, " हा बेटा, आज तो बहुत बड़ा दिन है, आज तेरी दादी ने कड़वा चौथ का व्रत जो रखा है, मेरी लंबी उम्र के लिए, पता नहीं और कितना जीना पड़ेगा तेरी दादी के साथ ? कुछ दिनों से वैसे भी इसकी तबियत कुछ ठीक नहीं है, इसलिए मैंने कहांँ इस बार व्रत मत रखो, लेकिन यहाँ पर मेरी सुनता कौन है ? इतने सालों से जो कर रहे है, वह करना ही है, फिर चाहे जो भी हो जाए। " कहते हुए दादाजी दादी को देखने लगे ।
     उस तरफ़ दादी जी ने कहा, "आपको तो मैं कुछ भी करु, पसंद ही नहीं, हर बात में रोकना और टोकना, आपकी आदत ही है।"
       दादाजी ने कहा, " हा, और हर बार अपने मन की ही करना, तुम्हारी भी तो आदत हो गई है। "
      मुझे दोनों की बात सुनकर मन ही मन हसी आ रही थी । मैंने बात को संँभालते हुए कहा, " चलो कोई बात नहीं,अब व्रत रख ही लिया है, तो हँसी खुशी करते है, आज कोई नौक झौंक नही। " दादा और दादी भी मेरी बात सुनकर हस पड़े, वैसे तो दोनों को एक दूसरे के बिना बिलकुल नहीं चलता, दोनों में इतना प्यार है, लेकिन कभी भी जताएंँगे नही।
       देखते ही देखते रात हो गई, पूजा की सारी तैयारी दादी ने कर ली थी, चांँद को देखा और फिर चरनी में से दादा जी को, मुस्कुराते हुए देखा, फिर दादाजी ने दादी को पानी पिलाया और दादी ने दादा जी को। दादी ने कहा, " चलो अब साथ मिलके खाना खा लेते है, सब आपकी पसंद का खाना बनाया है, मेरे साथ सुबह से आपने भी तो कुछ नही खाया है, फ़िर  दोनों ने पहला निवाला एक दूसरे को खिलाया फिर मुस्कुराते हुए खाना खाया, ऐसा प्यार था मेरे दादा और दादी का। 
      आज कई सालों बाद मैं अपने मोबाइल में उनकी वीडियो देख रही थी, जो मैंने कड़वा चौथ के दिन दादा और दादी की बनाई थी। देखकर ऐसा लगा, कि जैसे आज भी दादा-दादी और उनका प्यार और प्यार भरी नौक झौंक मेरे पास, मेरे साथ ही है, अब तो वह दोनों नहीं रहे मगर उनके जैसा प्यार मैंने आज तक कहीं देखा या सुना नहीं। दिल कहता है, वह दोनों जहाँ भी हो साथ हो, खुश हो।

Bela...

                 22 )   तेरी माँ

      ज़िंदगी में कई रिश्तें ऐसे होते हैं, जिनके अचानक से यूँही दूर चले जाने के बाद भी, जैसे हम हर पल उन्हीं के साथ रहते हैं और फ़िर ज़िंदगी जीने के लिए उनकी प्यार भरी यादें ही हमारे पास रह जाती हैं और बस अब उन्हीं यादों के सहारे जिंदगी गुज़ार देनी पड़ती हैं।
      ( रमा का २१ साल का बेटा, जो अचानक से एक कार एक्सीडेंट में गुजर जाता है, उसको गुज़रे हुए आज 5 साल बीत गए, मगर उस लड़के की माँ को आज भी उसके आने का इंतजार है, ज़िंदगी तो चल रही है, मगर उसकी माँ का वक्त आज भी वहीं थम सा गया है। उस माँ की आँखों में जैसे आज भी फरियाद है।)
       अगर तू आज भी मेरे पास होता, मेरे साथ होता, तो ज़िंदगी कुछ और ही होती, मगर खैर, तू नहीं तेरी यादें ही सही, इस बार तेरी माँ ने तुझे आज़ाद किया हर बंधन से, इस जन्म नहीं तो अगले जन्म, ये सवाल मेरा रहेगा, " आखिर तू मुझे छोड़कर गया ही क्यों ? "
          तेरी माँ के लिए एक बार आजा, जिसकी आँखें आज भी तुझे ही ढूँढ रही, अपने घर के दरवाजे पर, जैसे तू अभी घर आएगा और अपनी माँ को आवाज़ लगाएगा, " माँ मुझे बहुत भूख लगी है, खाने में क्या बनाया है ? " क्योंकि घर में जब भी कुछ अच्छा बनता था, तब सब से पहले वह तू ही चख कर बतलाता था, " माँ, क्या गज़ब खाना बनाती हो आप, आप के हाथों में तो जादू है जादू। " फ़िर तेरे कपड़े इधर उधर बिखरे पड़े होते हैं, उसे समेटते जाना और बड़बड़ाना, " अपनी चीज़ें कब तू संभाल कर रखना सीखेगा, घर पर आते ही सारा घर उलट सुलट कर देता है, फ़िर आवाज लगाता रहता है, माँ मेरा चश्मा कहां है, मेरे जूते कहां है, मेरा हेडफोन कहां है ? " अब तो वह आवाज़ लगाने वाला भी कोई नहीं, तेरी ही आवाज मेरे कानों में जैसे गूंजती रहती हैं। प्यार से जब तू अपनी माँ को गले लगाता है, अपनी माँ को परेशान करता है, अपनी माँ के लिए पापा से भी लड़ जाता है, अपनी बहन को चिढ़ाता रहता है, कहते हुए कि " माँ तुझ से ज़्यादा मुझ से प्यार करती है, तुझे तो एक दिन अपने ससुराल भेज देगी, मगर मैं तो माँ के पास और माँ के साथ ही रहूँगा, तुझे तो एक दिन जाना ही है, फ़िर तू क्यों चला गया मुझे छोड़कर? " 
     होली, दिवाली, गणपति या नवरात्रि सब त्योहार हम आज भी मनाते हैं और हाँ हर त्योहार में घर का सारा सामान लाना, सारा काम तू ही तो संभालता था, अब वह सब भी मुझ अकेली को ही करना पड़ता है, तुम्हारे पापा तो पहले से ही कम बातें करते थे, अब तो तेरे जाने के बाद और भी ज़्यादा कम बोलते है, जब भी वक्त मिले कोई नॉवेल पढ़ने बैठ जाते है और ऊपर से कह देते है, " जब मैं नॉवेल पढ़ने बैठु, मुझे डिस्टर्ब मत किया करो। " और तो और कहीं पर जाना हो, तो क्या पहनू और क्या नहीं ? वह भी तू ही तो बतलाता था। तेरे पापा की समझ में कुछ आता नहीं और वह कुछ बतलाते भी नहीं, ऐसे में अब तू ही बता, किस से पूछूं और किस से में अपने मन की बात कहूँ ? तेरी बहन ने जैसे तैसे अपने आप को संभाले रखा है, अब तो वह ही मेरी हिम्मत बनकर मुझे संभाल लेती है,  मेरी हर तरफ़ बस तू ही तू था, मेरी जिंदगी भर की पूंजी भी तू ही था, मेरे जीने का सहारा भी तू ही था,          
       " मेरी जिंदगी के दो किरण, तू और तेरी बहन, जैसे एक मेरा दिल और एक धड़कन, जिस के लिए था जीना, मगर लगता है अब तो जैसे दिल से धड़कन जुड़ा हो गई है, बस जीने के लिए जी रहे हैं। कभी आँखों में सजाए थे ढ़ेर सारे सपने मगर अब तो इन पलकों में तेरे बिना नींद ही कहाँ ?  तब रात को अकेले में तेरी तस्वीर से लड़ लेती हूँ। इसलिए तेरे बगैर सब त्योहार फीके से लगते हैं, रंगों से भरी हमारी ज़िंदगी तेरे जाने के बाद बेरंग सी हो गई है, सब कुछ है जिंदगी में बस एक तू ही नहीं, ऐसा क्यों ? दुनिया का हर ग़म में सह जाऊँ, मगर बस एक यही मेरी बर्दास्त के बाहर है, कुछ भी छीन ले भगवान, तेरी माँ कोई शिकायत नहीं करती, सब चुपचाप सह जाती, मगर, खैर की भगवान के आगे किस की चलती है ? तेरा मेरा साथ इस जन्म में इतना ही होगा, मगर अब भी जो आधी बात या मुलाकात रह गई, वह हम पूरी करेंगे जरूर, इस जन्म नहीं तो कोई और जन्म, मुझे पक्का यकीन है,  हम मिलेंगे जरूर, कहीं किसी रोज़, कहीं किसी डगर, राह चलते। इस बार मुझे तुम्हारी गोदी में सिर रख कर सोना है, एक बार गले लगाना है, तुझ से शिकायत करनी है, कि आख़िर " एक बार भी तूने हमारे बारे में नहीं सोचा बेटा, कि तेरे जाने के बाद हमारा क्या होगा ? बिन तेरे हम कैसे जिंदगी जिएँगे ? तेरे लिए मैं भगवान से भी इस बार लड़ जाती, मगर तूने तो मेरे आने का इंतजार भी नहीं किया और मुझ से बिना मिले, बिना बातें किए चला गया और तू तो कहता था, हर पल मेरे साथ रहेगा, तो अब क्या हुआ ? "
    माना कि बरसात के मौसम में छाते के बिना घर से निकलेंगे तो भीगना तो पड़ेगा ही, मगर मेरा मन तो तेरी यादों की बारिश में हर पल भीगा रहता है, उसका मैं क्या करूँ ? 
   फिर भी तेरी माँ दिल से आज भी तेरे लिए यही प्रार्थना करती है, " तू जहाँ भी रहे खुश रहे। " 
      तेरी माँ जो आज भी तेरे इंतजार में आरती की थाली लिए, आँखों में ढेर सारे सपने सजाए, घर के दरवाज़े पर खड़ी है, कि शायद आज तू आ जाए। इसलिए लोग मुझे कई बार कहते हैं पागल ! मगर इस पगली माँ को तेरे लिए पगली कहलाना भी मंजूर है, अगर तू एक बार आ जाए।

मौलिक
Bela...

                   
                    23 ) अरमान ज़िंदगी के

          आज मेरी शादी की पांचवी सालगिरह है, सब लोग मुझे शादी की सालगिरह की बधाइयां दे रहे है मेरे वॉट्स अप, फेसबुक, इंस्टा पर भी सभी दोस्त और रिश्तेदारवालों के मैसेज आ रहे है, बस मैं इसी मैसेज और लोगों की बधाई सुनकर खुश हो जाया करती, लेकिन आख़िर पता नहीं कब तक ऐसा चलता रहेगा, कब तक अपने मन को मैं बस यूहीं मनाती रहूंगी, आखि़र कब तक ? तभी मेरे पति कमरें में आते है, एक नज़र उन्होंने मुझे सिर्फ़ देखा, या अनदेखा किया और अलमारी में से अपनी फाइल लेकर ऑफिस के लिए जाने लगे, मैं बस उन्हें जाता देखती रह गई, जाते वक्त उन्होंने सिर्फ़ इतना ही कहा, कि " मैं ऑफिस जा रहा हूँ, रात को देर से आऊंगा, मेरा खाने के समय इंतजार मत करना, मैं बाहर खाकर आऊँगा। "
           बस इतना सुनते ही मेरे पैरों के नीचे से ज़मीन ही सरक गई। क्योंकि देर से आने का मतलब आज वह फ़िर से अपने दोस्तों के साथ शराब पीकर आऐंगे, अपने बीते हुए कल और अपने दर्द को भुलाने के लिए, मगर ये सिर्फ़ मैं ही जानती हूँ, कि चाहे वह अपने बीते हुए कल को भुलाने की कितनी भी कोशिश कर ले, मगर ये कभी नहीं होगा, कि वह अपनी पहली पत्नी को भुला पाए, जो शादी के एक साल बाद ही कैंसर की वजह से भगवान के पास चली गई और यहीं पत्नी किसी ज़माने में उनकी प्रेमिका भी हुआ करती थी।
          आप सोच रहे होंगे, कि तो फ़िर इस प्रेम कहानी में, मैं यहां क्या कर रही हूँ ? गरीब घर की सुंदर, सुशील और संस्कारी लड़की, जो अपने पिता का बोझ कम करने के लिए शादी के लिए राज़ी तो हो गई मगर शादी की सुहाग रात की रात ही मुझे मेरे पति ने के कह दिया, कि " तुम्हें मेरे घर में किसी चीज़ की कोई कमी नही होंगी, तुम्हें हर वह हक मिलेगा जिसकी तुम हकदार हो, मगर यह शादी मैंने सिर्फ़ और सिर्फ़ अपनी माँ की खुशी के लिए ही की है, उसको तुम इस बात का एहसास कभी मत होने देना की हम दोनों के बीच पति पत्नी जैसा कोई रिश्ता नहीं है, बस उसको तुम खुश रखने की कोशिश करना, मैं अपनी पत्नी धारा से बहुत प्यार करता था और करता रहूंगा, इसलिए मैं तुम्हें अपनी पत्नी का दरज्जा शायद ही कभी दे पाऊं, बस मैं जो हूँ, जैसा भी हूँ, तुम्हारे सामने हूँ, मैं तुमसे सच नही छुपाऊंगा। "
        बस इतना सुनते ही मेरे अपनी ज़िंदगी के सारे अरमान चकनाचूर हो गए, मेरी ज़िंदगी के सारे सपने काँच के टूटे हुए शीशे की तरह टूट के बिखर गए, बस तब से एक बेटी का फर्ज़ निभा रही हूँ, जिसकी और भी दो बहनें है, जिसकी अब शादी हो जाएगी, जिस शादी का सारा ख़र्चा मेरे पति उठा लेंगे। मेरे माँ और बाबा का सारा खर्चा भी मेरे पति ही उठाते है, बिना कहे, बिना मांगे ज़रूरत का हर सामान मेरे घर पहुँच जाता है। बस यही सोचकर खुश हो जाती हूँ, कि कोई बात नहीं, मेरी वजह से मेरी बहन और माँ-बाबा तो खुश है।
        अपनी शादी और अपने पति को लेकर एक लड़की के कितने अरमान होते है, ये तो हर कोई जानता ही है, मगर मेरे अरमान पूरे नही हुए तो क्या हुआ, मेरी बहन तो आज खुश है। इस से आगे मुझे और कुछ नहीं चाहिए, यही सोचकर मैं खुश रहती हूँ और हां, घर में अब माँ को उनके पोते का अब इंतजार है, तो मैंने और मेरे पति ने एक अनाथ बच्चे को गोद ले लिया, माँ को हम ने समझा बुझाकर इस बात के लिए भी मना लिया, मगर माँ तो आख़िर माँ ही है, उसके आगे कहा कुछ छुप सकता है, उसे इस बात का अंदाजा भी लग गया, कि हमारे बीच पति पत्नी का कोई रिश्ता नहीं, फिर भी उम्मीद लगाए हुए है, कि किसी दिन यह रिश्ता भी बन ही जाएगा। मैं भी इसी उम्मीद लगाए उस दिन के इंतज़ार में बैठी हुई हूँ, कि " एक ना एक दिन उनको भी मुझ ग़रीब पर प्यार आ ही जाएगा, औरों की तरह हम भी किसी रोज़ झिल के किनारे बैठ कर एक दूजे का हाथ पकड़कर प्यार भरी बातें करेंगे और किसी रोज़ मेरे भी दिल के सारे अरमान सच हो जाएंगे, कहीं किसी रोज़, किसी किनारे। " 

मौलिक कहानी 
 Bela...
 
 


 













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