एक फ़ैसला
यशोदा जैसा नाम वैसे गुण और संस्कार, एक छोटा सा परिवार था, जिस में यशोदा उसके सास, ससुर, उसका पति और उसका बेटा जिसका नाम भी माधव ही रखा था, वह सब साथ में रहते थे, यशोदा अपने माधव से बहुत प्यार करती, अपने लाडले बेटे में जैसे उसकी जान बसी हुई थी, पूरा दिन अपने सास, ससुर, अपने पति की सेवा करना और अपने बच्चें को संभालना, उसके अलावा अपनी जिंदगी में उसने कुछ नही किया।
लेकिन एक दिन वक्त ने करवट बदली, उसके पति को हार्ट अटैक आया और 47 साल की उम्र में चल बसे, माधव की शादी हो गई थी, वह जॉब करता था, यशोदा के पति के जाने के बाद पैसे की तकलीफ और ज्यादा बढ़ने लगे, उसके सास, ससुर भी उम्र के हिसाब से बीमार रहने लगे, कुछ साल बाद वह दोनों भी गुज़र गए, अब घर में यशोदा उसका बेटा माधव, माधव की पत्नी और उसकी एक छोटी सी बेटी रश्मि थे, फिर भी घर का खर्चा चलाना बहुत ही मुश्किल हो रहा था, यशोदा कृष्ण भक्ति में लगने लगी, कुछ महीनों बाद फिर बहु और बेटे ने अपना रंग दिखाना शुरू कर दिया, नाही यशोदा को माधव अपने खर्चे के लिए पैसे देता और नाही कभी सीधे मुंह बातें करता, हर बात पर टोकते रहते, मां यह मत करो और यह मत करो। यशोदा रोज के ताने सुनकर परेशान हो गई थी, दूसरों की तो छोड़ो, जब अपना ही बेटा ऐसा करे तो क्या करे, वह अपना मन कृष्ण भक्ति में लगाने लगी, अब उसको वहीं अच्छा लगता, वह अपने मन की सारी बातें अपने कृष्ण को कहती। कृष्ण मंदिर जाकर वहां कृष्ण की सेवा में अपना मन लगा लेती।
एक दिन माधव ने यशोदा से कह दिया, कि " अगर आपको मंदिर में कृष्ण की सेवा ही करनी हैं, तो आप घर आते ही क्यों हो, वहां अपने कृष्ण के साथ मंदिर में ही रहो, वहीं आपका खाना और रहना का इंतजाम भी देख ही लेंगे।" बेटे की यह बात यशोदा के दिल को छू गई। अब उसका मन अपने बेटे से उठ गया था, सब माया को भी अब उसने छोड़ दी, यशोदा ने उसी रात घर छोड़ने का फ़ैसला कर लिया। यशोदा ने रात को ही अपना सामान बांध लिया, सुबह होते ही यशोदा अपना नित्य कार्य कर के अपने कान्हा जी को अपने साथ लेकर चली गई, उस वक्त उसे पता नहीं था, कि आगे उसके साथ क्या होनेवाला हैं, बस अपने कन्हाजी का नाम लेते हुए मंदिर की ओर उसके कदम चल पड़े, आज समान के साथ यशोदा को देखकर मंदिर के पंडित जी भी समझ गए, कि आखिर यशोदा ने अपना घर छोड़ ही दिया। पंडित जी ने कहा, " अच्छा किया यशोदा, जो तुम सामान लेकर ही यहां आ गई, अब यह मंदिर और कान्हा जी की सेवा आज से तुम को ही करनी हैं, इन दिनों मेरी भी कुछ तबियत ठीक नहीं रहती, आखिर इस उम्र में मुझ से इतना होता भी नही, अब तुम आ गई हो, तो में चैन की नींद ले सकता हूं, मुझे हर पल यही चिंता सताए हुए थी, कि मेरे बाद इस मंदिर का क्या होगा, मंदिर की सेवा पूजा कौन करेगा ? लेकिन अब तुम आ गई हो, तो मुझे कोई चिंता नहीं, वह खोली में अपना सामान रख लो, आज से तुम यही रहोगी, मेरी बेटी तो नहीं हैं, इसलिए कान्हा जी ने तुम्हें मेरी बेटी बनाकर भेजा है। पंडित जी की बात सुनकर यशोदा की आंखों से आँसु बहने लगे, यशोदा ने पंडित जी के पैर छूकर उन्हें प्रणाम किया और अपना सामान खोली में रखने चली गई।
उसके बाद यशोदा ने मन लगाकर मंदिर में कान्हा जी की सेवा करनी शुरू कर दी, अब यशोदा ने मंदिर में हर सोमवार, गुरुवार को और अग्यारस को कृष्ण के भजन का कार्यक्रम भी रखा, मंदिर में समयसर आरती, भोग सब होने लगा, मंदिर में अब हर त्योहार घर की तरह ही मनाने लगे, लोग भी पहले से ज्यादा आने लगे, कुछ ही महीनों के बाद छोटा सा मंदिर अब "यशोदा के कान्हा जी का मंदिर" के नाम से जाना जाने लगा।
एक दिन कान्हा जी के सामने बैठकर यशोदा कान्हा जी से पूछ रही थी, कि " मेरे घर छोड़ने का फ़ैसला बिलकुल सही था ना ? क्योंकि अगर मैंने घर नही छोड़ा होता, तो मुझे रोज रोज अपने बेटे और बहू के ताने सुनने पड़ते और मन ही मन दुःखी रहती और मैं कान्हा जी की सेवा भी इतनी नही कर पाती, अच्छा हुआ कान्हा जी, जो आपने मेरा हाथ थाम लिया और मैं आपकी शरण में आ गई, अब यह जीवन आपको समर्पण हैं। "
स्वरचित
एक फ़ैसला
Bela...
Comments
Post a Comment