एक फ़ैसला
मालती अपने पति, सास, ससुर और अपने बेटे माधव के साथ रहती थी, बस यही मालती का छोटा सा परिवार था। मालती बचपन से ही कृष्ण को बहुत मानती थी और एक छोटे से लडडू गोपाल भी उसके पास थे, तो मालती रोज़ उस लडडू गोपाल की सेवा किया करती, इसलिए उसने अपने बेटे का नाम भी कृष्ण के नाम से ही रखा, " माधव "। माधव के जन्म से ही मालती को ऐसा लगने लगा था, कि जैसे सच में कान्हा जी ही बेटे के रूप में मेरे घर आए है और इस वजह से भी मालती अपने माधव से बहुत प्यार करती, अपने लाडले बेटे में जैसे उसकी जान बसी हुई थी, कान्हा जी की सेवा पूजा के बाद पूरा दिन मालती अपने सास, ससुर, अपने पति की सेवा करती और अपने बच्चें की देखभाल में कहाँ समय बीत जाता, यह मालती को पता ही नहीं चलता। कान्हा जी की कृपा से मालती की ज़िंदगी हंसी खुशी चल रही थी।
लेकिन एक दिन वक्त ने करवट बदली, उसके पति को हार्ट अटैक आया और 52 साल की उम्र में वह चल बसे, माधव की शादी हो गई थी, वह जॉब करता था, मालती के पति के जाने के बाद पैसे की तकलीफ और ज़्यादा बढ़ने लगी, उसके सास, ससुर भी उम्र के हिसाब से बीमार रहने लगे, कुछ साल बाद वह दोनों भी गुज़र गए, अब घर में मालती उसका बेटा माधव, माधव की पत्नी और उसकी एक छोटी सी बेटी रश्मि थे, फिर भी घर का खर्चा चलाना बहुत ही मुश्किल हो रहा था, मालती घर का सारा काम निपटाकर कृष्ण भक्ति में लग जाती, रोज़ कृष्ण के मंदिर जाती, मंदिर में पूजारी जी को मंदिर के कामों में भी हाथ बताती, उसे कान्हा जी की सेवा करनी बहुत अच्छी लगती, कान्हा जी की सेवा के वक्त वह सब कुछ जैसे भूल जाती, बस वो और उसके कान्हा जी। कुछ महीनों बाद बहु और बेटे ने अपना रंग दिखाना शुरू कर दिया, नाहीं मालती को माधव अपने खर्चे के लिए पैसे देता और नाहीं कभी सीधे मुँह अपनी माँ से बातें करता, हर बात पर टोकते रहते, माँ यह मत करो और यह मत करो। यशोदा रोज़ के ताने सुनकर परेशान हो गई थी, दूसरों की तो छोड़ो, जब अपना ही बेटा ऐसा करे तो क्या करे, वह अपना मन कृष्ण भक्ति में लगाने लगी, अब उसको वहीं अच्छा लगता, वह अपने मन की सारी बातें अपने कृष्ण को कहती। कृष्ण मंदिर जाकर वहाँ कृष्ण की सेवा में अपना मन लगा लेती।
एक दिन माधव ने मालती से कह दिया, कि " अगर आपको मंदिर में कृष्ण की सेवा ही करनी हैं, तो आप घर आते ही क्यों हो, वहाँ अपने कृष्ण के साथ मंदिर में ही रहो, वहीं आपका खाना और रहना का इंतजाम भी देख ही लेंगे।" बेटे की यह बात मालती के दिल को छू गई। अब उसका मन अपने बेटे से उठ गया था, सब माया को भी अब उसने छोड़ दी, मालती ने उसी रात घर छोड़ने का फ़ैसला कर लिया। मालती ने रात को ही अपना सामान बांध लिया, सुबह होते ही मालती अपना नित्य कार्य कर के अपने कान्हा जी को अपने साथ लेकर चली गई, उस वक्त उसे पता नहीं था, कि आगे उसके साथ क्या होनेवाला हैं, बस अपने कान्हा जी का नाम लेते हुए मंदिर की ओर उसके कदम चल पड़े, आज सामान के साथ मालती को देखकर मंदिर के पंडित जी भी समझ गए, कि आख़िर मालती ने अपना घर छोड़ ही दिया।
पंडित जी ने कहा, " अच्छा किया यशोदा, जो तुम सामान लेकर ही यहाँ आ गई, अब यह मंदिर और कान्हा जी की सेवा आज से तुम को ही करनी है, इन दिनों मेरी भी कुछ तबियत ठीक नहीं रहती, आखिर इस उम्र में मुझ से इतना काम होता भी नहीं, अब तुम आ गई हो, तो में चैन की नींद ले सकता हूँ, मुझे हर पल यही चिंता सताए हुए थी, कि मेरे बाद इस मंदिर का क्या होगा, मंदिर की सेवा पूजा कौन करेगा ? लेकिन अब तुम आ गई हो, तो मुझे कोई चिंता नहीं, वह खोली में अपना सामान रख लो, आज से तुम यही रहोगी, मेरी बेटी तो नहीं है, इसलिए कान्हा जी ने तुम्हें मेरी बेटी बनाकर भेजा है। पंडित जी की बात सुनकर मालती की आँखों से आँसु बहने लगे, मालती ने पंडित जी के पैर छूकर उन्हें प्रणाम किया और अपना सामान खोली में रखने चली गई।
उसके बाद मालती ने मन लगाकर मंदिर में कान्हा जी की सेवा करनी शुरू कर दी, अब मालती ने मंदिर में हर सोमवार, गुरुवार को और अग्यारस को कृष्ण के भजन का कार्यक्रम भी रखा, मंदिर में समयसर आरती, भोग सब होने लगा, मंदिर में अब हर त्योहार घर की तरह ही मनाने लगे, लोग भी पहले से ज्यादा आने लगे, कुछ ही महीनों के बाद छोटा सा मंदिर अब " मुरलीधारी कान्हा जी का मंदिर" के नाम से जाना जाने लगा।
एक दिन कान्हा जी के सामने बैठकर मालती कान्हा जी से पूछ रही थी, कि " पता नहीं कान्हा जी मेरे किस जन्म का पाप आज मेरे सामने मेरा बेटा बनकर आया है और मुझे इतना दुःख दे रहा है, मैंने तो सपने में भी नहीं सोचा था, कि मेरा माधव मुझ से ऐसा बर्ताव करेगा और मुझे घर से जाने के लिए भी कह देगा, इतने सालों के प्यार का यही ईनाम मिला मुझे, मगर कोई बात नहीं, कर्म की गति न्यारी है, शायद मैंने ही किसी जन्म में अपने बेटे का दिल दुखाया होगा, उसको दर्द पहुँचाया होगा, बस इसी बात का बदला आज वह मुझसे ले रहा है, और तो क्या ? कान्हा जी, अब आप ही बताइए, कि मेरे घर छोड़ने का फ़ैसला बिलकुल सही था ना ? क्योंकि अगर मैंने घर नही छोड़ा होता, तो मुझे रोज़ रोज़ अपने बेटे और बहू के ताने सुनने पड़ते और मन ही मन दुःखी रहती और मैं आपकी सेवा भी इतनी नहीं कर पाती, अच्छा हुआ कान्हा जी, जो आपने मेरा हाथ थाम लिया और मैं आपकी शरण में आ गई, अब यह जीवन आपको समर्पण हैं। "
तो दोस्तों, ज़िंदगी में एक बात तो पक्की है, की अगर आप दिल से कृष्ण का नाम लो, उसकी भक्ति करो, तो आपके मुश्किल समय में वह आपका हाथ पकड़ने ज़रूर आएगा और आपको सही रास्ता भी वहीं दिखाएगा, इसलिए ज़िंदगी में चाहे कुछ भी हो जाए, कितनी भी परेशानी का सामना क्यों न करना पड़े, मगर उस वक्त भी एक कृष्ण पर भरोसा ज़रूर रखना क्योंकि उस से बड़ा दिलवाला और उसके जैसे साथ निभानेवाला इस दुनिया में और कोई नहीं।
Bela...
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