#एहसास
डॉली ने अपने पापा को फ़ोन लगाया, डॉली के पापा सामने से कुछ कह पाते, उस से पहले ही डॉली ने बात करना शुरू कर दिया," हेलो, पापा ! कल आपको मेरे कॉलेज के कन्वोकेशन सेरेमनी में आना ही है, चाहे कुछ भी हो जाए। "
डॉली के पापा यानी मैंने कहा, कि " मैं समझता हूँ बेटा, कि तुम्हारे लिए ये सेमिनार कितना ज़रूरी और आवाश्यक है। मगर बेटा, तुम मुझे भी समझने की कोशिश करो, मेरी कल एक बहुत ही ज़रूरी मीटिंग है, जो मैं कैंसल नहीं कर सकता, वार्ना मेरा बहुत नुकसान हो जाएगा, मेरी बात समझने की कोशिश करो। "
डॉली ने सामने से कहाँ, कि " वो इन सब में कुछ नहीं जानती, आपको आना है, तो आना ही है, वार्ना मैं आप से कभी भी बात नहीं करुँगी, आप चाहे कितना भी मनाओ, मैं नहीं मानने वाली। "
कहते हुए डॉली ने रूठते हुए फ़ोन ऱख़ दिया। इस तरफ़ मेरे लिए ये मीटिंग करना बहुत ही ज़रूरी था, विदेश से कुछ क्लायंट सिर्फ एक दिन के लिए ही और सिर्फ इस डील के लिए ही आनेवाले है और वे लोग वहांँ से निकल भी गए है, अब मैं उन्हें कैसे रोकूँ या मना करूँ, कि " कल मेरी बेटी के कॉलेज में कन्वोकेशन सेरेमनी के लिए जाना है। " मैंने अपने चश्मे अपनी आँखों से उतारे और अपनी कुर्सी पर सिर रख आँख बंद कर कुछ सोचने लगा।
दूसरे दिन सुबह फिर से डॉली ने मुझे याद कराते हुए कहा, कि " आप को याद है ना पापा, कि आज शाम ठिक ५ बजे आपको हमारी कॉलेज आना है, मैं अपने दोस्तों के साथ जल्दी कॉलेज जाने वाली हूँ, आप बाद में आ जाना, मैं आपका इंतज़ार करुँगी।"
कहते हुए डॉली अपने कमरें में चली गई। मैं फिर से नाश्ता करते-करते सोच में पड़ गया, कि आज शाम को मैं क्या करूँ, डॉली के कॉलेज चला जाऊँ या मीटिंग में ?
आखिर वो पल आ ही गया। कॉलेज का पूरा हॉल स्टूडेंटस और पेरेंट्स से भरा हुआ था, सब लोग बहुत खुश दिखाई दे रहे थे। डॉली बार-बार अपनी बगल वाली कुर्सी, जो उसने अपने पापा के लिए जगह रखी हुई थी उस कुर्सी को और दरवाज़े की तरफ़ देखे जा रही थी, ये जानने के लिए, कि उसके पापा कब आएँगे ? एक के बाद एक सब बच्चों को स्टेज पे बुलाया जा रहा था, सब को काला कोट, काली टोपी और हाथ में एक सर्टिफिकेट दिया जा रहा था, सब तालियाँ बजा रहे थे, डॉली के दिल की धड़कन और तेज़ होने लगी, जब उसका नाम पुकारा गया, "डॉली अग्रवाल"। तब डॉली ने फिर से एक बार दरवाज़े की और देखा, उसकी आँखें अब भी उसके पापा को ढूँढ रही थी, वो चाहती थी, कि उसे स्टेज पर काळा कोट और काली टोपी के साथ उसके पापा उसे देखे। जैसे उसके हर दोस्त के पेरेंट्स उनको देख रहे थे। तभी दूसरी बार डॉली का नाम पुकारा गया, तब डॉली मायूस होकर स्टेज की ओर आगे बढ़ने लगी, उसने सोच लिया, कि " छोड़ो, आज उसके पापा नहीं आनेवाले। "
मगर जैसे ही टीचर डॉली के हाथों में उसका सर्टिफिकेट देने जा रहे थे, तभी दर्शकों में पीछे से तालियों की आवाज़ सुनाई देने लगी, सब ने मूड कर पीछे की और देखा, तो डॉली के पापा तालियांँ बजाते हुए अपनी बेटी डॉली की तरफ़ गर्व से देखते हुए आगे आ रहे थे। डॉली की ख़ुशी का तो ठिकाना ही ना रहा, डॉली ने तो अपने पापा के आने की उम्मीद ही छोड़ दी थी। डॉली भागति हुई स्टेज से उतरकर अपने पापा की तरफ़ जाती है और अपने पापा को गले लगाकर कहती है, " थैंक यू, थैंक यू, थैंक यू, सो मच पापा, की आप आज आ गए, आपको पता नहीं, कि मैं आज कितनी खुश हूँ । "
मैंने कहा, "मैं भी आज बहुत ही खुश हूँ । अब स्टेज पर जाओ भी और अपनी ट्रॉफी लेकर आओ।"
डॉली उछलते-कूदते फिर से स्टेज पर जाती है, टीचर्स उसे सर्टिफिकेट देते है, काला कोट और कैप पहनाते है और उसके फर्स्ट प्राइज के लिए उसे ट्रॉफी भी देते है, उस पल मेरे हाथ न तो तालियांँ बजाते हुए रुके और नाहीं मेरी आँखों से ख़ुशी के आंँसू बहते रुके। चेहरे पे ख़ुशी और आँखों में आंँसू ये कैसा अनोखा संगम है, तालियाँ बजाते हुए मैं खुद उस पल ये समझ नहीं पा रहा था।
सोचते-सोचते मैं कुछ पल के लिए अपने ही बचपन में चला गया, जब मैंने पहली बार स्टेज पे गाना गाय था, जब मैंने स्टेज पे गिटार बजाया था, जब मैंने स्पोर्ट्स डे के दिन स्कूल मैं ट्रॉफी जीती थी, जब मैंने राइटिंग कॉम्पिटशन में ट्रॉफी जीती थी, जब मैंने साइकिल रेसिंग में, जब मैंने फुटबॉल में, जब मैंने पढाई में, जब मैंने अपनी कॉलेज के आखरी एग्जाम में टॉप किया था और मुझे ट्रॉफी मिलने वाली थी, तब-तब मेरी नज़र भी यूँही दरवाज़े पर अपने मम्मी-पापा को ढूँढ रही थी, सब मुझे बधाइयाँ देते थे, मगर में तब अपने आप को भीड़ में भी अकेला महसूस करता था। क्योंकि उस वक़्त मेरे मम्मी-पापा मेरी ख़ुशी में कभी सामिल नहीं हो सके, उनके लिए उनकी मीटिंग्स और उनका बिज़नेस ज़रूरी था, मेरे दादू जो घर में फ्री ही रहते थे, तो उनको भेज दिया करते और रात को घर आकर मेरे हाथ में नया खिलौना देकर, मुझे बहुत-बहुत बधाई देकर मुझे खुश कर दिया करते, मगर उनको क्या पता, कि मुझे उस वक़्त उस खिलौने की नहीं, मगर उनकी ज़रूरत थी, मेरे सारे दोस्त के पेरेंट्स आते थे, सिर्फ मेरे पापा और मम्मी ही नहीं आते थे, फिर रात को मैं अपने दादू के गले लगकर रो कर सो जाया करता, और सुबह जब उठता, तो कभी-कभी मम्मी और पापा शहर से बाहर किसी मीटिंग्स के लिए जा रहे होते थे, मैं दौड़कर खिड़की की तरफ़ भागता और उनको आवाज़ लगाता, " मम्मी-पापा, मम्मी-पापा, रुको, मुझे आप से कुछ कहना है, कुछ सुनना है, कुछ सुनाना है, कुछ देखना है, कुछ दिखाना है। " मगर मेरी आवाज़ उन तक नहीं पहुँच पाती और वे लोग मुझ से कई दूर चले जाते। मैं अपने दादू के पास जाकर मुँह फुलाकर बैठ जाता, दादू समझ जाते, इसलिए मुझे बातों में लगा लेते और हंसा दिया करते। "
तभी कॉलेज के हॉल में अचानक से गिटार बजने की आवाज़ सुनाई पड़ती है। मैं होश में आता हूँ, स्टेज पे देखता हूँ, तो मेरी बेटी, डॉली जो, मुझे अपनी जान से भी प्यारी है, वह हाथ में गिटार लिए बजा रही है और उसका दोस्त उसी की धुन पे गाना गा रहा है, डॉली की नज़र बार-बार मुझ पे आकर रुक जाती, मैं अपनी आँखों के आंँसू छुपा दिया करता और अपने हाथ उठाकर अपना थंब दिखाकर उसे चीयर-उप करने की कोशिश करता। आज मैं बहुत खुश हूँ, कि जो मेरी बेटी बचपन से मेरे साथ हर छोटी-बड़ी बात पे सवाल उठाती और आर्गुमेंट करती रहती, वह आज खुद एक वकील बन गई है। मेरी छोटी सी गुड़िया अब सिर्फ मेरे साथ ही नहीं, बल्कि पूरी दुनिया के साथ सच्चाई के लिए आवाज़ उठाएगी, हर औरत की तकलीफ को समझेगी, हर किसी को इन्साफ दिलाएगी, मेरी छोटी सी गुड़िया, आज बड़ी हो गई।
डॉली स्टेज से उतरकर फिर से अपने पापा के गले लग जाती है, कॉलेज के कमरें में तालियों की आवाज़ अब भी सुनाई देती है। डॉली ने कहा, " पापा अगर आज आप के साथ माँ होती, तो मुझे ऐसे ट्रॉफी लेते देखकर वो भी कितना खुश होती ना ? "
मैंने कहा, " हांँ, बेटी, तुम्हारी माँ, होती तो शायद आज तुम वकील के काले कोट में नहीं बल्कि शादी के जोड़े में होती। "
मेरी बात सुनकर डॉली मुस्कुराकर बड़ी ज़ोरों से हँसने लगी, " क्या पापा, आप भी, मैं तो सोच रही थी, कि अपने लिए अब मैं नई मम्मी ढूँढना शुरू कर दूँ। "
हम दोनों ज़ोर-ज़ोर से हँसने लगे।
तो दोस्तों, मैं देवेन्द्र अग्रवाल अपने मम्मी-पापा का एकलौता बेटा या कहूंँ तो उनकी ज़मीन, ज़ायदाद और बिज़नेस का एक लौटा वारिस हूँ, जो आज भी अपने पापा का बिज़नेस सँभाल रहा हूँ, जो आज का बहुत बड़ा बिज़नेस मेन है और जो बचपन से अपने पापा और मम्मी के साथ सिर्फ वक़्त गुज़ारना चाहता था, मुझे उनका सब कुछ मिला मगर वक़्त ही ना मिला। आज कल मैंने अपने जीवन में अपने आप पे ही एक किताब लिखनी शुरू की है, ये मेरे ही जीवन का एहसास, ये मेरी ही किताब का, मेरे ही जीवन का एक छोटा सा सच था, जो मैं आप सब के साथ बाँटना चाहता हूँ।
दुनिया की सारी ख़ुशी एक तरफ़ और बेटी की खुशी एक तरफ़। अपने बच्चों को स्टेज पर ट्रॉफी लेते देखना और उसे कामियाब होते हुए देखना।
हाँ दोस्तों, उस ख़ुशी के आगे और कुछ भी नहीं, इस पल के आगे और कुछ भी नहीं, मीटिंग्स फिर कभी हो सकती है, पैसा फिर कभी कमाया जा सकता है, शॉपिंग फिर कभी हो सकती है, दोस्तों के साथ गप्पे फिर कभी लगाए जा सकते है, लेकिन ये पल फिर नहीं आएगा, ये एहसास फ़िर नहीं होगा। इसलिए दोस्तों, अपने बच्चों की ख़ुशी में शरीफ रहकर भी आप जता सकते हो, कि आप के लिए उन से ज़रूरी और कोई काम या और कोई बात हो ही नहीं सकती।
स्व-रचित
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Bela...
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