WAQT KAA KHEL

     #वक़्त अच्छा हो तो सब अपने नहीं तो सब पराए
                             वक़्त का ख़ेल  
  आधी रात को अपने ही बंगले के चारों ओर चक्कर लगाते हुए सौरभ अपनी ही धून में तेज़ दौड़ लगा रहा था। जैसे कि उसे किसी को हराना हो, उसकी आँखें गुस्से से आग बबूला हो रही थीं, उसे वक़्त और जगह का भी कोई होश नहीं था। तभी सौरभ की माँ उसे पीछे से आवाज़ लगाती है,
      " सौरभ बेटा, ये इतनी रात को क्यों दौड़ रहे हो ? अभी सुबह होने में बहुत देर है, घर में आकर सो जाओ। तुम्हें तो पता ही है, कि जब तक तुम नहीं सो जाओगे, मुझे नींद नहीं आती। "
          माँ की आवाज़ सुनते ही सौरभ दौड़ता हुआ वहीं रुक जाता है, उसकी साँसे भी फूल जाती है, उसका पूरा शरीर पसीने से लथपथ हो गया था। सौरभ हाँफते हुए अपनी माँ को जवाब देता है,"आया माँ, बस आप चलो। "        उसी वक़्त ऐसा कहते हुए सौरभ की नींद टूट जाती है और वह अपने आप को वहीं अपने छोटे से घर में अपने बिस्तर पे लेटा हुआ महसूस करता है और एक बार घडी की ओर देखता है, अभी तो रात के दो बजे हुए थे और सौरभ फ़िर से सोच में पड़ जाता है, " ये वक़्त भी कितना बेरहम है, कल वक़्त के साथ मैं चलता था और आज वक़्त ने ही मेरा साथ छोड़ दिया।  वक़्त के साथ-साथ बहुत कुछ बदल जाता है, लोग भी रास्ते भी, एहसास भी और कभी-कभी हम खुद भी। ज़िंदगी एक बात तो सिखा ही देती है, कि ज़िंदगी के सफर में अगर हमारा वक़्त अच्छा हो, तो सब अपने साथ होते है, अगर जो वक़्त ने हम से एक बार मुँह मोड़ लिया, तो हर कोई हम से भी मुँह मोड़ लेता है, अपने भी पराए होने लगते हैं, वहांँ गैरों से क्या शिकायत करें ? " 
       सौरभ की आवाज़ सुनते ही बगल वाले कमरे से सौरभ की माँ उस के पास आती है और सौरभ से पूछती है, " क्या हुआ बेटा ? तुमने मुझे आवाज़ लगाई क्यों ? तुम्हें कुछ चाहिए था ? तुम ठीक तो हो ना बेटा ? "
         अपनी माँ के सवाल सुनकर सौरभ की आँखें भर आती है, वह अपनी माँ को गले लगा कर पूछता है, कि " वक़्त ने हमारे साथ ही ऐसा मज़ाक क्यों किया ? मैं फीर से अपने पैरो पे कब चल सकूँगा ? कब दौड़ सकूँगा ? मुझे पापा की बहुत याद आ रही है, पापा हमें यूँ अकेला छोड़कर क्यों चले गए माँ ? उन्होंने एक बार भी नहीं सोचा, कि उनके जाने के बाद हम उनके बगैर कैसे जिएँगे ? "
          सौरभ की माँ ने सौरभ को समझाते हुए कहा, कि " उपरवाले की मर्ज़ी के आगे, भला किस की चली है ? कल वक़्त हमारा था, आज नहीं तो क्या हुआ ? कल ये वक़्त फ़िर से हमारा होगा, बस तू उम्मीद मत छोड़, जैसे वो वक़्त भी नहीं रहा, वैसे ही ये वक़्त भी नहीं रहेगा। हमारा वक़्त ज़रूर बदलेगा, तुम देख लेना और पहले की तऱह तुम अपने पैरो पे चल भी सकोगे और दौड़ भी सकोगे। ज़िंदगी से हम नहीं हारेंगे, ज़िंदगी को हमें हराना है। हर सुबह उम्मीद की एक नई किरण अपने साथ लेकर आती है, उसके साथ हमें भी उम्मीद बनाए रखनी है। "
          अपनी माँ की बात सुनते ही सौरभ को बड़ी हिम्मत मिलती, सौरभ की आँखों में उम्मीद की नई किरण जाग  उठती है । अब आगे... 
             सौरभ सुबह उठकर अपना लेपटॉप लेकर अपने काम में लग जाता है, सौरभ ने ऑनलाइन जॉब शुरू कर दी थी, ताकि वो घर बैठकर कुछ कर सके। तभी लेपटॉप में सौरभ की नज़र शालिनी की तस्वीर पर पड़ी और कुछ वक़्त के लिए सौरभ फ़िर से अपने बीते हुए वक़्त में चला जाता है, उसे जैसे याद आ रहा था, कि " कैसे उसने शालिनी को वैलेंटाइन डे के दिन शादी का प्रपोज़ किया था और कैसे धूम-धाम से दोनों की शादी हुई थी, शहर के हर रईस लोग उस शादी में आए हुए थे, क्योंकि ये शादी लखनऊ के सब से बड़े बिज़नेस मेन के एक लौटे बेटे सौरभ की शादी जो थी। "
        उस वक़्त शायद सौरभ का वक़्त बहुत अच्छा चल रहा था, मगर कहते है, ना कि, " ज़िंदगी का हर वक़्त एक सा हो, ऐसा हो नहीं सकता। " बस ऐसा ही कुछ सौरभ की ज़िंदगी में भी हुआ। 
          सौरभ और उसके पापा की ख़ुशहाल ज़िंदगी से सब जलते थे। सौरभ के पापा के दो और छोटे भाई भी थे, जिनका बिज़नेस भी सौरभ के पापा के साथ ही जुड़ा हुआ था। सौरभ के पापा उम्र में और तजुर्बे में सब से बड़े थे, तो घर हो या बिज़नेस का सारा बड़ा छोटा फैसला वही लेते थे और उनका हर फैसला सही भी होता था, मगर ये बात सौरभ के दो चाचाओं को ज़रा ख़टकती रहती थी, हर महीने पैसो के लिए अपने बड़े भाई के सामने हाथ फ़ैलाने पड़ते थे, इस बात से दोनों परेशान हो गए थे, तब सौरभ के दो चाचाओं ने मिलकर सौरभ के पापा को ग़ैरकानूनी सामान विदेश भेजने के झूठे केस में फँसाया ताकि उनको जेल हो जाए और उनका पूरा बिज़नेस वह अपने नाम करवा ले मगर जैसे ही सौरभ के पापा को पता चला, कि " उन्हीं के दो भाइयों ने मिलकर उन्हें झूठे केस में फँसाया है, तब उन्हें उस बात का बहुत दर्द हुआ और उनको हार्ट अटैक आया, क्योंकि वह अपने परिवार से खास कर अपने भाइयों से बहुत प्यार करते थे। सौरभ के पापा ने कभी सपने में भी नहीं सोचा था, कि उनके ही भाई उनके साथ ऐसा करेंगे। "
      उस वक़्त सौरभ अपनी बीवी शालिनी के साथ सिंगापूर से फ्लाइट में लौट रहा था। उसे इस बारे में कुछ भी पता नहीं था। 
           सौरभ की माँ उस वक़्त उसके पापा के पास ही थी, तो उसने तुरंत अपने पति को अस्पताल में भर्ती कराया, सौरभ के पापा अपने आखिरी वक़्त में उनके साथ जो भी हुआ, वह सब सौरभ की माँ को बताना चाहते थे, मगर वह कुछ कह पाते उस से पहले ही उन्होंने अपनी आँखें बंद कर ली।  
           उस तरफ़ जब सौरभ को पता चला, कि अस्पताल में उसके पापा आखरी साँस ले रहे है, तब जल्दबाज़ी में सौरभ अस्पताल पहुंँच तो गया, लेकिन सीढ़ियाँ जल्दबाज़ी में चढ़ने की बजह से उसका पैर फिसल जाता है और वह उलटे मुँह पूरी लम्बी सीढियाँ  से गिर जाता है, शालिनी उसके साथ ही थी, सौरभ को गिरता देख, शालिनी ज़ोर से चिल्ला उठी, सौरभ के पैर में बड़ी ज़ोरो से चोट लगी, कि उस वक़्त वह खड़ा भी नहीं हो सका। तब अस्पताल में वॉर्ड-बॉय सौरभ को उठाकर एक कमरे में ले गए और डॉक्टर उसका इलाज करने लगे, मगर सौरभ तो उस वक़्त एक ही धुन लगाए हुए था, कि " उसको उसके पापा के पास जाना है।" लेकिन जब तक वह उसके पापा के पास पहुँचता है, तब तक तो सौरभ के पापा ने अपनी आँखें बंद कर दी थी। सौरभ ज़ोर-ज़ोर से पापा-पापा कहते हुए बस चिल्लाता रहता है और वही बेहोश हो जाता है। 
         सौरभ को जब होश आता है, तब वह व्हील चेयर पे अपने पापा की तस्वीर के सामने बैठा हुआ था। सौरभ व्हील चेयर से खड़ा होने की कोशिश करता है, लेकिन नहीं हो पाता, उसका एक पैर पैरालिसिस हो चूका होता है, जिस बात से वह अनजान था। अब आगे... 
         सौरभ भी उसके पापा के साथ ही बिज़नेस करता था, लेकिन इस वक़्त उसकी समझ में कुछ नहीं आ रहा था, वह इस वक़्त अपने पापा की अचानक से हुई मौत के ग़म में डूबा हुआ था और वह चल भी नहीं सकता था। इसलिए सौरभ ने कुछ दिनों के लिए बिज़नेस की सारी ज़िम्मेदारी अपने दोनों चाचाओं को दे दी। वो दोनों तो वैसे भी ऐसा ही चाहते थे, तो सौरभ के चाचा ने मौके का फ़ायदा उठाकर प्रॉपर्टी और शेर के पेपर्स पे धोखे से सौरभ और उसकी माँ के दस्तख़त ले लिए। जब तक सौरभ को इस बात का पता चलता, तब तक बहुत देर हो चुकी थी, शालिनी भी एक अपाहिज और बेकार इंसान के साथ ज़िंदगी भर नहीं रह सकती, कहते हुए वह भी उसे छोड़कर अपने दूसरे बॉय फ्रेंड के साथ चली गई।
         सौरभ और उसकी माँ अब एक छोटे से घर में रहते है, ये घर भी वही घर है, जो सौरभ के पापा ने उसके वॉच-मेन को उस वक़्त दिया था, जब उसके पास रहने को घर नहीं था, एक बार बरसात की बाढ़ में उसका घर डूब गया था, तब सौरभ के पापा को उसकी बहुत दया आई थी, तब सौरभ के पापा ने वॉच-मेन को रहने के लिए घर दिया था।
       वॉच-मेन ने सौरभ और उसकी माँ से कहा, कि " मेरे बुरे वक़्त में साहब ही थे, जिन्होंने मेरी हर तरह से मदद की थी, उस वक़्त मैं यही सोचता था, कि मैं उनके इस एहसान का बदला कैसे चुकाऊँगा ? और अगर आज वक़्त ने ये मौका मुझे दिया है, तो मैं उसे ज़रूर निभाऊँगा। ये मेरा नहीं बल्कि आपका ही घर है और आप जब तक चाहे यहाँ रह सकते हो, वैसे तो मेरे पास इस खोली के अलावा आप को देने के लिए कुछ नहीं, लेकिन मुझ से जितना हो सकेगा, उतनी मदद मैं आप लोगों की ज़रूर करूंँगा। कोई भले ही आपका साथ दे या ना दे, आप के पापा को गलत समझे, मगर मैं जानता हूँ, वह कितने नेक इंसान थे, वह किसी के बारे में गलत सोच भी नहीं सकते थे, तो किसी का बुरा क्यों करेंगे ? मैं आप के साथ हूँ। " 
       ऐसा कहते हुए वॉच-मेन सौरभ और उसकी माँ को अपनी खोली में पनाह देता है, दोनों मजबूरन उस खोली में रहते है। सौरभ के डॉक्टर ने कहा, कि उसके पैरो के ऑपरेशन के लिए बहुत सारे पैसे चाहिए, जो इस वक़्त उसके पास नहीं थे। 
     और तो और वो सारे सौरभ के निकम्मे दोस्त जो हर वक़्त हर पार्टी में उसके इर्द-गिर्द घुमा करते थे, वह आज सौरभ से मिल के चले जाते थे और सिर्फ ये कहते थे, कि " उनसे जितना हो सकेगा, उसकी मदद करेंगे, मगर एक बार जाने के बाद कोई लौट के वापिस देखने तक नहीं आया, कि सौरभ और उसकी माँ आज किस हाल में ज़िंदगी गुज़ार रहे हैं। ऐसे वक़्त में सौरभ के साथ खड़ा रहने वाला नाही कोई रिश्तेदार था और नाही कोई दोस्त... बस सौरभ की माँ ही थी, जो हर पल उसे हौसला दिलाए रखीं थी। 
        कुछ महीनो बाद म्यूच्यूअल फंड कंपनी में से सौरभ को फ़ोन आता है, की " आप के पापा ने आप की और आप की माँ के नाम म्यूच्यूअल फण्ड में जो पैसे सालो पहले भरे थे, उसकी रकम अब आप को मिलने वाली है। " ऐसा सुनते ही सौरभ और उसकी माँ के जान में जान आती है और वह भगवान् का शुक्रियादा करते है, उस पैसो से सौरभ ने सब से पहले अपने पैरों का ऑपरेशन करवाया, कुछ ही महीनो में वह फ़िर से चलने लगा, दौड़ने लगा।
       सौरभ ने ठान लिया था, कि जिसने भी उसके पापा से उसका हक़ छीना है, उसे वह सबक सीखा कर ही रहेगा। इसलिए सौरभ ने वही चाल अपने चाचा के साथ चली, जो एक साल पहले उसके चाचा ने उसके पापा के साथ किया था,  वो कहते है ना ! " जैसी करनी वैसी भरनी। " दोनों चाचाओं को जेल हो गई और सौरभ ने फिर से अपने पापा का बिज़नेस संँभाल लिया और अपनी मेहनत और लगन से कामियाबी की सीढ़ी चढ़ने लगा। जब शालिनी को पता चला, कि सौरभ फ़िर से ठीक हो गया है और उसने अपना बिज़नेस हैंड ओवर कर दिया है, तो वह फ़िर से सौरभ के पास आती है और उसकी गलती के लिए माफ़ी मांगती है, मगर सौरभ ने उस से अब मुँह फेर लिया, वक़्त के साथ जो रिश्तों को तोड़ दे, वैसे रिश्तों के साथ अब वह नहीं रहना चाहता था। 
         लेकिन उसका मन उसके पापा जैसा ही था, इसलिए उसने अपनी चाची और दूसरे भाई के बारे में सोचते हुए चाचा को जेल से कुछ दिनों के बाद रिहा करवा दिया और उनको छोटा सा अलग घर रहने को दे दिया और एक छोटी फैक्ट्री भी उनको ही सँभालने दे दी, जो पहले उनकी हुआ करती थी, सौरभ के चाचा ने सौरभ की माँ से भी माफ़ी मांँग ली, लेकिन अब सौरभ की माँ को भी ऐसे रिश्तों के साथ जीना मंज़ूर नहीं था, जो वक़्त के साथ बदल जाते है। इसलिए वह सब अलग हो गए। अब उस घर में सिर्फ़ सौरभ और उसकी माँ ही रहते है, और वो वॉच-मेन जो अब सौरभ और उसकी माँ के लिए खाना बनाता है, दोनों का ख़याल रख़ता है और पूरे घर की देखरेख भी करता है।  
             एक दिन सुबह-सुबह सौरभ अपनी बालकनी में खड़ा रहकर दूर आसमान में देख रहा था, तब उसकी माँ उसके पास आती है और कहती है, कि मैंने कहाँ था, ना कि " हमारा वक़्त भी ज़रूर बदलेगा। कल जो वक़्त हमारे साथ था, आज भी है, बस कुछ रिश्तें पीछे रह गए, वो कहते है, ना, कि " वक़्त अच्छा हो तो सब अपने नहीं तो सब पराए। " ऐसा सुनते ही सौरभ अपनी  माँ को गले लगा लेता है। दोनों की आँखें भर आती है। 
           तो दोस्तों, आप को मेरी कहानी कैसी लगी ज़रूर बताइएगा। सौरभ ने आखिर में अपने चाचा की मदद कर सही फैसला किया या गलत ? ज़रूर बताइएगा। 
 
स्व-रचित एवम 
मौलिक कहानी 
#वक़्त अच्छा हो तो सब अपने नहीं तो सब पराए। 
Bela... 


     



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