#अन्याय
अन्याय आखिर कब तक सहेंगे ?
( सतीश ने अपनी पत्नी सुधा को गुस्से में अचानक से ही बड़े ज़ोर से आवाज़ लगाई। )
सतीश : सुधा, कहाँ हो तुम जल्दी से बाहर आओ।
( सुधा सतीश की आवाज़ सुनते ही रसोई का सारा काम छोड़ डरती हुई भागी-भागी रसोई से बाहर आती है। )
सुधा ने कहा, " क्या हुआ ? सब ठीक तो है, आपने इतनी ज़ोर से आवाज़ क्यों लगाई ? मैं तो डर ही गई। "
सतीश ने कहा, " तुम हर हाल में खुश कैसे रह सकती हो ? कभी तो अपने और अपनी बेटियों के बारे में सोचा करो। तुम्हें क्या लगता है ? अगर तुम मुझे नहीं बताओगी, तो क्या मुझे कुछ पता नहीं चलेगा ? क्या मैं इस घर में सिर्फ खाना खाने ही आता हूँ ? "
सुधा की समझ में कुछ नहीं आया। उसने सतीश से पूछा, " क्या बात है ? आप क्या कहना चाहते है ? मेरी तो कुछ समझ में नहीं आ रहा। "
सतीश ने कहा, " जब से हमारी शादी हुई है, तब से में देख रहा हूँ, तुमने दिन रात मेरे परिवार का अपने से भी ज़्यादा ख्याल रखा है, तुमने दिन रात मेरी माँ के ताने सुनने के बाद भी उनकी हर तरह से सेवा की है, यहाँ तक की उनके अंत समय में तुमने उनकी एक नर्स की तरह सेवा की है, उनका गिला बिस्तर तक बिना किसी हिचक के साफ किया है, इतना तो बिना किसी शिकायत के कोई नहीं करता। तुम आखिर किस मिट्टी की बनी हो, इतना सब कुछ कैसे कर लेती हो ? ये तो ठीक है मगर माँ के जाने के बाद वसीयत में माँ ने तुम को उनके गहने में से सिर्फ उनके कंगन ही दिए, बाकि सब माँ ने अपनी बेटियों को दे दिया, ये जानते हुए भी की हमारी दो बेटियांँ है और अब उनकी शादी की उम्र भी हो चुकी है, तो उनके लिए भी कुछ सोचना पड़ेगा। ये सब तुम को पहले से पता था, फिर भी तुमने मुझे कुछ भी नहीं बताया और नाही कोई शिकायत की, तुम ऐसा कैसे कर सकती हो ? अगर तुमने मुझे ये बात पहले बताई होती, तो मैं कुछ सोचता ना ! मेरी पूरी कमाई घर खर्च और दो बहनो के नखरें उठाने में खर्च हो जाती है, लेकिन अब बस अब बहुत हुआ, आज तो दीदी ने सारी हदे पार कर दी,
माँ के गहने लेने के बाद अब उन दोनों को अपने घर में भी हिस्सा चाहिए, कहते है, "बाबूजी का कोई ठिकाना नहीं, वो देंगे या नहीं, इसलिए बाबूजी के रहते ही हमें घर में अपना-अपना हिस्सा देदे, ताकि बाद में कोई परेशानी ना हो, आप के घर हम पहले की तरह आते रहेंगे, प्यार बना रहेगा।" " प्यार माय फुट ! ये भी क्या बात हुई उनको पता ही है, हमारे हालात। आज तक में चुप रहा, तुम पे और हमारी बेटी पर होते हुए अन्याय को में सब देखता रहा, सोच के कि आगे जाके सब ठिक हो जाऐगा, मगर इन दोनों की मांँगे तो बढ़ती ही जा रही है। मैं समझता था, कि एक ना एक दिन तुम आवाज़ उठोगी, अपने हक़ के लिए, मगर नहीं... तुमने आज तक ऐसा किया नहीं, सो तुमसे ना हो पाएगा। अब जो भी कुछ करना है, वह मैं ही करूँगा। अब ऐसा अन्याय ना मैं सहूँगा और ना तुम्हें सहने दूँगा। "
सुधा ने बड़े धीरे से बात को सँभालने की कोशिश की, और कहा, कि "आप ज़रा शांत हो जाइए, माँ की आख़री इच्छा थी, तो उसे कैसे पूरी ना करती, चाहे भले किसी ने मेरी सेवा देखी न हो, मगर भगवान् तो सब देख रहा है, ना ! आज तक उसी ने सब संँभाला है, तो आगे भी वही सब संँभाल लेगा। इन्ही चक्कर में दीदी के साथ अगर हमारा रिश्ता टूट गया, तो लोग क्या कहेंगे ? ऊपर से आप अपनी बहन को तो जानते ही है, हमारे बारे में और भी बुरी बात सब से करेंगे, कि " हम ने उनको कुछ दिया नहीं। " हमारी बेटी के नसीब में जो लिखा होगा वही होगा, मेरे मायके के बहुत से गहने मेरे पास है, तो अगर ज़रूरत पड़ी तो वही अपनी बेटी को कन्यादान में दे देंगे। "
मगर इस बार सुधीर नहीं माना, सुधीर ने कहा, " मुझे लोगो की कोई परवाह नहीं, जिसे जो बात करनी है, करने दो, तुमने अभी-अभी कहा ना, कि तुम्हारा भगवान् सब देखता है, तो तुम्हारे भगवान् ने ये भी देखा ही होगा, कि आज तक हमने अपनी नाकारी बहनो के लिए क्या कुछ नहीं किया ? और मैं भुला नहीं, कि जब माँ का बिस्तर गिला होता था, तब दोनों में से एक भी मिलने नहीं आई थी, एक को बुखार था और दूसरी के घर में गेस्ट आए हुए थे, मैं इन दोनों के बहाने अच्छे से समझता हूँ, अगर वे इधर आएंँगे तो माँ का गिला बिस्तर साफ़ करना होगा, यही सोच दोनों ने बहाना बनाया। मैं अच्छे से सब जानता हूँ और अब में माँ के गहनों में से जो उनका हक़ होगा, वही दूंँगा और इस घर में उनका कोई हक़ नहीं होगा। उनका जो हिस्सा होगा, वही इनको मिलेगा, बाबूजी से भी मैंने बात कर ली है, वह भी मान गए है, तो अब तुम्हें दया दिखने की कोई ज़रूरत नहीं। अब हम अपनी ज़िंदगी अच्छे से जिएँगे, किसी के डर की वजह से नहीं। क्योंकि मुझे पता है, वे दोनों यहाँ आकर तुम को भी बहुत खरी-खोटी सुनाती थी, तब भी तुम चुप रही, मगर अब और नहीं। बस मैंने बोल दिया सो बोल दिया, ये मेरा आखिरी फैसला है। "
कहते हुए सतीश वहांँ से चला जाता है। और सुधा सतीश को बाहर जाता हुआ देख, अपने बीते हुए साल सुधा की आँखो के सामने से जैसे गुजरने लगे, कैसे इन लोगों ने उनको सताया था।
" शादी के इतने साल बाद भी हर त्यौहार पे दोनों हर बार मायके चली आती थी और वह भी अपने शैतान बच्चौ के साथ। लेकिन सुधा कभी त्यौहार पर अपने घर नही जा सकती कयोंकि यहाँ पर पहले से ही ननंद आ जाती थी और सासु जी के पैरो में ददॅ की वजह से वह कुछ काम न कर पाती और ननंद तो आराम के लिए ही आई होती है, सो उनसे तो उम्मीद ही छोड दी थी हमने। मेरे पति सुबह से ओफिस चले जाते, सास-ससुर, ननंद और उनके बेटे सब साथ में घूमने जाते, मुवी देखते, बाहर तो खाना खाते मगर घर आकर भी अच्छे से खाते और वह भी पकवान चाहिए सबको, फीका खाना तो किसी के गले उतरता नहीं। किसी को रस-मलाई चाहिए तो किसी को गाजर का हलवा, किसी को पिज़्ज़ा चाहिए तो किसी को पंजाबी खाना, सब की पसंद का खाना बनता मगर मेरी बेटियों के पसंद का खाना नहीं बनता। उसकी कोई परवाह नहीं, क्योंकि मेरी ननंद के तो दो बेटे थे और मझे दो बेटी, तो उनको तो पलकों पे रखते थे। हर त्यौहार पे उन सब के लिए तोहफे आ ही जाते और दो बहने भी मुँह उठाकर मांँग ही लेती, तब मेरी बेटी को "आज कल पैसो की कमी है, " कहकर मना लिया जाता। सुधा की आँखों के आगे वह सब घूमने लगा, उसका दिल भर आया। आज उसके दिल में भी बहुत कुछ था, लेकिन उसने अपने चेहरे पे ये बात कभी नहीं आने दी, मगर आज जब उसके पति ने उसके लिए आवाज़ उठाई तब उसके दिल को अच्छा लगा, ख़ुशी से ही सही सुधा की आँखें आँसू से भर आई। सुधा ने आज भी सिर्फ यही सोचा, कि " आज उसके पति उसके साथ थे, बस उसे अब और कुछ नहीं चाहिए। "
तो दोस्तों, अन्याय सहने की भी एक हद होती है, जहाँ तक सहेंगे, उतना वह लोग दबाते ही जाएँगे। लोगो के बारे में ना सोचकर अपने खुद के बारे में भी सोचना चाहिए। अन्याय होते हुए देखना और अन्याय सहना दोनों गलत बात है, उसकी सजा पितामह भीष्म को भी मिली थी, द्रोपदी पे होते हुए अन्याय को वह देखते रहे, उसके खिलाफ आवाज़ उठा न सके। वह द्रोपदी का वस्त्रहरण रोक सकते थे। मगर वह चुप रहे और महाभारत जैसा महायुद्ध होकर ही रहा।
# अन्याय
स्व-रचित
लघु-कथा
Bela...
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