मोहे बिटिया ही देना
रामलाल का कोई बेटा नहीं था, उसको तीन बेटियाँ ही थी मगर रामलाल कभी बेटी और बेटे में फ़र्क नहीं करते थे। बेटा ना होने की बजह से रामलाल ने अपनी तीनों बेटियों की परवरिश में कोई कमी नहीं रखी थी, जितना प्यार और हक़ हम बेटों को देते है, उतना ही प्यार और हक़ रामलाल ने अपनी बेटियों को दिया। सब के मना करने के बावजूद भी रामलालने अपनी तीनों बेटियों को पढ़ाया-लिखाया अपने पैरों पे खड़ा रहना सिखाया, ताकि उन्हें कभी किसी के आगे हाथ फ़ैलाने की ज़रूरत न पड़े, बेटों के जितना ही हक़ बेटी को भी दिया। रामलाल मानते थे कि ज़माना बदल रहा है, हमें भी अपने विचारों को बदलना चाहिए, उन्हें भी अपनी ज़िंदगी खुले से जीने का हक़ है। अगर उन्हें भी हम अच्छे से पढ़ाए-लिखाए, मान-सम्मान दे, तो वही बेटी हमारे काम आ सकती है, बेटियाँ तो लक्ष्मी का रूप होती है। अगर घर में लक्ष्मी खुश नहीं रहेगी, तो भला हम कैसे ख़ुश रह सकते है ?
दूसरी तरफ़ किशनलाल के तीन बेटे थे, जो रामलाल के दोस्त थे और दोनों एक ही शहर में एक ही गली में रहते थे। इसलिए दोनों का आए दिन एक दूसरे के घर आना जाना लगा रहता था। किशनलाल जब भी रामलाल से मिलते अपने तीनों बेटों की तारीफ़ करके रामलाल को सुनाया करते, कि " तुम्हारे पास तो तीन बेटियाँ ही है, एक भी बेटा नहीं और बेटियाँ तो बड़ी होकर अपने ससुराल चली जाती है, वह किस काम की ? उनको ज़्यादा पढ़ाने-लिखाने से क्या फ़ायदा ? बेटे ही हमारी ज़िंदगी है और हमारे बुढ़ापे की लाठी भी बनते है, बेटो से ही हमारा वंश आगे बढ़ता है, बेटे ही तो हमारा नाम रोशन करते है। " ऐसा कहते हुए किशनलाल हर बार अपनी मूछों पर ताव लगाते है।
मगर किशनलाल की ऐसी किसी भी बात का असर रामलाल पर नहीं होता, वह अपने परिवार और बेटियों से बहुत ख़ुश थे। दिन गुज़रते गए।
कुछ वक़्त के बाद किशनलाल के बेटे बड़े होने लगे, एक-एक कर के सब की शादी हो गई, पहले-पहले तो सब मिल-जुझ कर अच्छे से रहते थे, फ़िर जैसे-जैसे वक़्त गुज़रता गया, घर में छोटा-मोटा झगड़ा होने लगा, फ़िर बहु के कहने पे किशनलाल के बेटों ने जायदाद में से अपना-अपना हिस्सा माँगा। एक के बाद एक तीनों बेटों ने अपना-अपना हिस्सा लिया और सब एक-एक कर के घर छोड़कर चले गए। किशनलाल और उनकी बीवी अब घर में अकेले रह गए। किशनलाल ने एक फ़ैसला अच्छा लिया, कि उन्होंने अपना घर अब तक किसी को नहीं दिया, बॅटवारा सिर्फ़ उनकी गाँव की ज़मीन और गहनों का हुआ था। किशोरीलाल की हलवाई की दुकान थी, जो वह भाड़े पे चलाते थे, जो उनकी वफ़ादारी की बजह से अच्छी चलती थी। दुकान के मालिक को उनपे बहुत भरोसा था। घर अभी भी किशनलाल के नाम पर ही था, इसलिए उनको सिर छुपाने के लिए छत ढूँढ़ने की ज़रूरत नहीं थी। किशनलाल की बीवी एक दिन बीमार हो गई, सब बेटों को फ़ोन कर के बुलाया, मगर सबने कुछ ना कुछ बहाना बनाया, कोई उनकी बीवी को देखने तक नहीं आए। एक बेटे ने पैसे भेज दिए तो दूसरे बेटे ने एक नर्स को उनका ध्यान रखने के लिए भेज दिया। मगर किशनलाल की बीवी को अपने बेटों से और अपने पोतो से मिलना था, उनको दवा की नहीं, प्यार के दो शब्द की ज़रूरत थी। किशनलाल की इस बात की भनक रामलाल को हुई, उन्होंने बिना कुछ सोचे-समझे अपनी एक बेटी को लेकर किशनलाल से मिलने चले गए। रामलाल ने किशनलाल से पूछा, " क्या बात है ? भाभीजी अचानक इतने बीमार कैसे हो गई ? क्या हुआ क्या उन्हें ? अपने दोस्त को नहीं बताएगा क्या ? " किशनलाल ने रोते-रोते उनको सब कहा, कि " उनके बेटों ने उनके साथ क्या किया, एक के बाद एक सब घर छोड़कर चले गए और अब कोई अपनी बीमार माँ को मिलने को नहीं आ रहा और शारदा ( किशनलाल की पत्नी ) उनको मिलने की ज़िद्द पकड़े है, इतने साल बच्चों के साथ रहे है, तो अब अकेलापन उसे खाए जा रहा है। रामलाल को उन पे बड़ा तरस आया। रामलाल ने किशोरीलाल को दिलासा दिया। उसके बाद कुछ दिनों तक रामलाल की एक बेटी जो डॉक्टर थी, उसने किशोरीलाल की बीवी का इलाज किया, वह उनसे बातें करती, उनका मन बहलाती। बातों-बातों में वक़्त कहाँ बीत जाता पता ही नहीं चलता। कुछ ही दिनों में शारदा की तबियत ठीक होने लगी। ये देख़ किशोरीलाल को रामलाल की बेटी पर बड़ा प्यार आया। रामलाल की दूसरी बेटी एक दिन उनसे मिलने आई, जो वकिलात सीख रही थी, उन्होंने किशनलाल से कहा, कि " आप अपना ये घर शारदा आंटी के नाम कर दो, ऐसी एक झूठी वसीयत बना दो, जिसमें लिखा हो, कि आपका घर अब से आपकी बीवी शारदा के नाम है और जो भी बेटा उसके साथ रहेगा या उसकी सेवा करेगा, उसी के नाम शारदा आंटी अपना ये घर कर देगी। " आप देखना, इस वसीयत के बारे में सुनते ही कैसे आपके सब बेटे वापस घर लौट के आ जाएँगे और आंटीजी का ख्याल भी रखेंगे। उसके बाद क्या करना है, वह मैं आपको बाद में बता दूँगी। किशोरीलाल को भी उसकी बात ठीक लगी, उन्होंने वैसा ही किया, जैसा रामलाल की बेटी ने वसीयत बनाने को कहा था। कुछ ही दिनों में बेटों को घर के वसीयत की बात पता चली, वैसे ही एक-एक कर के किशनलाल के सब बेटे फ़िर से उनके साथ रहने चले आए। तभी रामलाल की बेटी ने किशनलाल को जैसा कहा था, वैसा ही उन्होंने किया। कुछ दिनों के बाद किशोरीलाल ने अपने सब बहु-बेटे को पास बुलाकर असली वसीयत के कागज़ात दिखाते हुए कहा, कि " जिस वक़्त तुम्हारी माँ को सब से ज़्यादा तुम सब की ज़रूरत थी, तब तुम में से कोई यहाँ उसे मिलने तक नहीं आया, और आज तुम को पता चला, कि घर उसके नाम है, तो फ़िर से अपना-अपना हिस्सा लेने चले आए, लेकिन अब मैं ही तुम सब को इस घर से बाहर करता हूँ। घर सिर्फ़ और सिर्फ़ हम दोनों का है, एक बात तुम सब कान खोलकर सुन लो, इस घर पे तुम में से किसी का कोई हक़ नहीं और हमारे जाने के बाद ये घर हमने अनाथालय के नाम कर दिया है। तुम जैसे नालायक और नाकारा बेटों को ये घर देने से अच्छा है, किसी और को मिल जाए, सब से ज़्यादा ज़रूरत है। "
किशोरीलाल अपने बेटों को अच्छे से सबक सिखाना चाहते थे, इसलिए पहले सब को बुलाया फ़िर सब पे वार किया। किशोरीलाल की ऐसी बातें सुन उनके तीनो बेटों का सिर शर्म से झुक गया। उन्होंने उन से माफ़ी भी मांँगी, मगर अब किशोरीलाल को अपने किसी भी बेटे की बात पर भरोसा नहीं था। ऐसे बेटों के साथ रहने से बेहतर उनको अकेले ज़िंदगी बिताना अच्छा लगा। ऐसा कहते हुए किशोरीलाल और उनकी बीवी वहांँ से उठकर अपने कमरे में चले गए। सब बेटे एक दूसरे का मुँह तकते रह गए।
तब किशोरीलाल और शारदा को ये ख्याल आया, कि " भगवान ने हमको बेटों की जगह बेटी दी होती, तो अच्छा होता, कम से कम कभी-कभी आके हमारा ख्याल तो रखती, बातें तो करती। बेटी भी हमारे बुढ़ापे की लाठी हो सकती है, बेटियाँ ही हमारा स्वाभिमान और अभिमान भी है, जो अपने घर में ही नहीं अपने ससुराल में भी हमारा नाम रोशन करती है।
किशनलालने उस दिन दिल से हाथ जोड़ भगवान् से प्रार्थना की, " अगले जन्म अगर तुझे हमें कुछ देना हो तो, अगले जन्म मोहे बिटिया ही देना। "
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