MEIN KAUN HU ? PART - १०

   मैं कौन हूँ ? भाग - १० 

   तो दोस्तों, अब तक आप सबने पढ़ा, कि डॉ.सुमन अनाम को दूसरे अस्पताल ले जाती है और वहां ओर  भी बहुत से लोग है, जो बहुत परेशान  है, वो अनाम को दिखा कर समझाती है, कि तुम अकेले ही नहीं जिस के साथ ऐसा हुआ है। डॉ. सुमन दूसरे दिन सुबह पापा के पूछने पर अपने पापा को अस्पताल वाली सारी बात बताती है, डॉ.सुमन के पापा उस से अनाम  को  शाम को अपने घर खाने पे साथ में लाने के लिए कहते है, बाद में  डॉ. सुमन अस्पताल के लिए घर से निकलती है, तब नर्स का फ़ोन आता है,  अब आगे... 

डॉ.सुमन अस्पताल पहुंँचते सब से पहले अपना सफ़ेद कोट पहन लेती है, नर्स को अपना दूसरा सामान पर्स और नॉवेल देके कहती है, कि मेरे रूम में रख दो, पहले मैं उस औरत को देख लेती हूँ, जिसका हाथ जल गया है। 

नर्स : जल्दी, जल्दी में, जी मेडम, वह औरत रूम नंबर ४ में है। 

        डॉ.सुमन जल्दी से भागति हुई रूम नंबर ४  में जाती है, वहाँ एक औरत ज़ोर-ज़ोर से रो रही थी, और साथ में चिल्ला भी रही थी, मुझे बहुत दर्द हो रहा है, मुझे छोड़ दो। 

डॉ.सुमन उसके पास जाकर उसे शांत होने को कहती है, उसके साथ कोई लड़का भी आया हुआ है। वो भी उसे देख रो रहा है। डॉ.सुमन जल्दी से उसका इलाज करती है, डॉ.सुमन उस औरत को अपनी बातो में उलझाना चाहती थी, ताकि उसका ध्यान कहीं और जाने की बजह से उसका दर्द भी कुछ कम हो और वो उसका इलाज आसानी से कर सके। 

डॉ.सुमन : देखो, अगर तुम ऐसे ही ज़ोर-ज़ोर से चिल्लाके  रोती रहोगी, तो बाहर मीडिया वाले आ जाएँगे, तुम्हारी फ़ोटो  भी लेंगे, तुम्हारी वीडियो भी लेंगे और t.v पे भी सब आ जाएगा। अगर तुम्हें t.v पे आना है, तो तुम और जोर से चिल्लाओ। ताकि सब को पता चले, कि खाना बनाते-बनाते तुम्हारा हाथ जल गया। अब तुम कभी खाना नहीं बना सकोगी। 

औरत : नहीं, मुझे कोई ज़रूर नहीं t.v पे आने की और नाही मेरा हाथ खाना बनाते-बनाते...  

 डॉ.सुमन : ओह्ह... तो फ़िर कैसे जला तुम्हारा हाथ ?

डॉ.सुमन ने उसे बातो में उलझाए रखा और उसकी पट्टी भी हो गई और उसे पता भी नहीं चला। 

औरत : जी, ससुराल में अच्छी बहु बन के रहने की सज़ा है ये तो,  गलती हुई नहीं और सासुमा और पति दोनों ज़ुल्म करने पे आ जाते है। आज सुबह-सुबह गलती से गरम चाय का कप मुझसे सासुमा के हाथो पे गिर गया, उसे तो इतना नहीं जला, मगर मेरी सास और मेरे पति ने गरम पानी में ही मेरा हाथ दाल दिया और उस पे से लकड़े की लकड़ी गरम कर के इस हाथ पे ही मारा। कहते हुए, कि मैंने जान बूझकर अपनी सास पे गरम चाय गिराई, ताकि मैं दूसरी बार ऐसी गलती ना करू। आप ही बताओ डॉक्टर साहेब, क्या मुझे किसी पागल कुत्ते ने काटा है, कि मैं ऐसा करुँगी ?

डॉ.सुमन : नहीं, नहीं वो लोग ही बुरे है। मैं तो कहती हूँ अब की बार जान बूझकर अपनी सास पे चाय दाल देना। तब पता चलेगा, जलता है तो कैसा लगता है। 

औरत : इतना कर पाति, तो आज यहाँ मैं नहीं मेरी सास होती। मेरे माँ-बाबा ने ऐसा सिखाया ही नहीं है। 

डॉ.सुमन : तो क्या तुम्हारे बाबा ने जुल्म सहना सिखाया है ? जो नहीं सिखाना चाहिए था। 

औरत : आप सही कहते हो।  मगर अब क्या ?

डॉ.सुमन : पुलिस रपट लिखवा दो। 

औरत : ना रे बाबा ! क्या इज्ज़त रह जाएगी, मेरे पति की।

डॉ.सुमन : तो तुम्हारी इज्ज़त का क्या ? और तुम्हारे इस दर्द का क्या ?

औरत : वो मैं सह जाऊँगी।  

कुछ देर दोनों चुप हो जाते है। थोड़ी देर बाद डॉ.सुमन नर्स को दवाई लिख के दे देती है और वहाँ से अपने कंसल्टिंग रूम में चली जाती है।  नर्स उस औरत को दवाई दे देती है और क्या क्या ध्यान रखना है, वो बता देती है।  वो औरत दवाई और आँखों में आंँसू लिए वहांँ  से चली जाती है। 

डॉ.सुमन को उस औरत की बात सुन बहुत गुस्सा आता है, मन ही मन सोचती है,  लोग अपनी ही बहु और अपनी बीवी के साथ कैसा ज़ुल्म करते है, ज़रा सी भी दया नहीं इन लोगो में, कि  वो भी एक इंसान है, जो पूरा दिन सारे घर का काम करती है और सब का कितना ख़याल रखती है, अपने बारे में कभी नहीं सोचती, उस औरत के साथ ऐसा कैसे कर सकते है ये लोग और दूसरी तरफ़ इन के जैसी संस्कारी बहु, जो सिर्फ़ ज़ुल्म  सहना सीखी है, नाही ज़ुल्म सहना बंद करेगी और नाही ज़ुल्म के आगे आवाज़ उठाएगी। अब ज़माना बदल गया है, मगर अब भी कई लोगो की सोच नहीं बदली। सोचते-सोचते डॉ.सुमन  टेबल पे रखी पूरी पानी की बोतल एक ही घूंट में पि जाती है और अपना चेहरा ठन्डे पानी से धोके पोछते-पोछते खिड़की के बाहर देखे जा रही है और फिर से सोचती है, कि वो औरत अगर इसी में खुश है, तो मैं क्यों उसकी इतनी फ़िक्र करू ? 

थोड़ी देर बाद डॉ.सुमन अस्पताल का चक्कर लगाने के लिए फ़िर से निकलती है, देखते-देखते डॉ.सुमन अनाम के कमरे के पास से गुज़रती है। कुछ देर डॉ.सुमन अनाम के कमरे के बाहर ही खड़ी रहकर उसे देखने लगी, कि वो क्या कर रहा है ? तब डॉ.सुमन ने देखा, कि आज अनाम का कमरा बहुत साफ दिख रहा है।  सब चीज़े अपनी जगह पे ही है और अनाम टेबल पे रखी नॉवेल पढ़ रहा है और बिच-बिच में कुछ लिख भी रहा है ।

         डॉ.सुमन ने सुबह-सुबह ही नर्स को फ़ोन  करके बता दिया था, कि अनाम के कमरे में कुछ नॉवेल, डायरी और पेन उसके कंसल्टिंग रूम में से लाकर रख दे और खुशबूदार फूल भी रख दे, ताकि उन फूलों की तरह अनाम की ज़िंदगी भी फूलों सी महकती रहे। 

         डॉ.सुमन के दिल को अनाम को  शांति से नॉवेल पढ़ते  देख़ बड़ी तसल्ली मिली। डॉ.सुमन को लगा, अनाम उसकी बाते  शायद समझ गया। अब उसे आगे क्या करना है, इसका फैसला अनाम को खुद लेना पड़ेगा। ये सोच डॉ.सुमन अपने दूसरे मरीज़ को देखने जाती है। 

अस्पताल का चक्कर लगाने के बाद डॉ.सुमन अपने कंसल्टिंग रूम में जाती है, रामुकका से अपने लिए कॉफ़ी मंगवाती है, अपनी फाइल में कुछ हिसाब किऐ जा रही थी, तभी किसी ने  बाहर  से दस्तक दी।  डॉ.सुमन ने मुँह उठाकर पूछा, कौन ?  बाहर कौन है ? अनाम धीरे से डॉ.सुमन के सामने आता है। डॉ.सुमन खुश होते हुए 

डॉ.सुमन : अरे, अनाम तुम हो, अंदर आ जाओ, क्या हुआ ? क्या चाहिए तुम्हें ? 

अनाम : जी, आपकी नॉवेल वापस करने आया था।  

" ज़िंदगी की सच्चाई "

डॉ.सुमन : ओह्ह, इतनी देर में पढ़ भी ली ? कैसी लगी किताब ?

अनाम : जी अच्छी है, ज़िंदगी की सच्चाई  के बारे में अभी थोड़ा समझ आ रहा है। 

डॉ.सुमन : Thats very good . तो अब क्या सोचा है आपने ? ( थोड़ा हस्ते हुए ) 

अनाम : जी अब तक तो कुछ नहीं, बस वही सोच रहा हूँ। डॉ.सुमन : o.k, Take your time . 

ओर बताओ, मेरे साथ कॉफ़ी पिओगे क्या ? 

डॉ.सुमन रामुकाका को आवाज़ देती है, अनाम बिच में ही उनको रोकते हुए, 

अनाम : जी मुझे कॉफ़ी नहीं चाहिए, वैसे भी मुझे कॉफ़ी अच्छी नहीं लगती। जी, आप वो कल मुझे कहीं और ले जाने वाली थी, अगर आप के पास वक़्त हो तो, क्या हम जा सकते है ? 

डॉ.सुमन : Thats good, इतना तो पता तो चला, की तुम्हें कॉफ़ी पसंद नहीं। हहमम.. कलवाली बात तो हम भूल ही गए थे, अच्छा हुआ तुमने मुझे याद करा दिया। हम थोड़ी देर बाद जाएँगे या फिर लंच करने के बाद, मुझे कुछ काम है, उतनी देर में वो मैं निपटा देती हूँ।  ठीक है ?

अनाम : जी ठीक है। उतनी देर मैं अपने कमरे में बैठता हूँ। 

डॉ.सुमन : अगर तुम चाहो तो यहाँ भी बैठ सकते हो। 

अनाम : नहीं, कोई बात नहीं, आप अपना काम कीजिऐ, तब तक में थोड़ी देर सो जाता हूँ। 

डॉ.सुमन : जैसा तुम चाहो। 

अनाम इतना कहकर अपने कमरे की तरफ़ जाने लगा, डॉ.सुमन उसे जाता देख रही और सोचा, अनाम सच में आज बदला-बदला सा लग रहा है। मगर ये बदलाव अच्छा ही है। 

अपना सारा काम निपटाकर डॉ.सुमन ने नर्स के साथ कहलवा के अनाम को बाहर जाने के लिए बुला लिया। 

  डॉ.सुमन अनाम के साथ बाहर जाती है, अब डॉ.सुमन को अनाम का हाथ खींच के ले जाने की ज़रूरत नहीं। अपनी कार में अनाम को लेकर डॉ.सुमन दूसरी जगह अनाम को लेकर जाती है। वह ज़गह है, वृद्धाश्रम।

       डॉ.सुमन वृद्धाश्रम के आगे अपनी कार रोकती है, अनाम को पहले दूर से दिखाते हुए, 

        समंदर के थोड़े दूर एक बड़ा सा बंगला  है, बंगलाे के बाहर आँगन में एक बचीगा है, बगीचे में दो-तीन झुले  है, जिस पे बुज़र्ग बैठे हुए है, पास में बैठने के लिए कुर्सियाँ और टेबल भी है, अंदर बहुत सारे कमरे है, सब के लिए अलग-अलग कमरा भी है।

डॉ.सुमन : देख रहे हो अनाम। ये सब लोग कौन है ? और यहाँ एक साथ क्यों है ? क्योंकि हमारी उम्र के इनके बच्चे इन्हें अपने साथ रखना नहीं चाहते। या तो इन लोगों ने अपने बच्चों से तंग आकर खुद अपना ही घर छोड़ के यहाँ आ गए। 

        डॉ.सुमन उनके नज़दीक जाते हुए सबको प्रणाम करते हुए सब का आशीर्वाद लेती है। अनाम को भी उन लोगों से, ये है अनाम। मेरा नया दोस्त, कहती हुई सब से मिलवा रही है। 

डॉ.सुमन : ये महेश चाचा है, जिनके ३ बेटो ने उनसे धोके से sign करवाकर उनका घर अपने नाम कर दिया। फ़िर  उनको घर से भी निकाल दिया। जिन बच्चों को ऊँगली पकड़ के चलना सिखाया, उन्ही बच्चों  ने आज इनकी ऊँगली छोड़ दी। जब इनको सब से ज़्यादा अपने बच्चों  की ज़रूरत थी। अपनों  ने ही अपनों का साथ छोड़ दिया। ३ जवान लड़के होने के बावजूद भी आज महेश चाचा अकेले है।  

         दूसरी तरफ़ वो सरला मौसी, जिनकी बेटी की शादी के बाद उनके पति गुज़र गए, पहले-पहले बेटी, दामाद ने सरला मौसी के साथ बहुत अच्छा रखा। कुछ दिनों बाद बेटी अपनी माँ को अपने ससुराल ले गई, वहां माँ से कामवाली बाई का सारा काम करवाया, कामवाली बाई बीमार है, कहते हुए बाई को छुट्टी दे दी और खुद ऑफिस चली जाती, ऊपर से दो बच्चे को भी संँभालना। सरला मौसी पे काम का बोझ इस उम्र में बढ़ गया, अब उनकी दवाई के लिए पैसे  जाने लगे, तब दोनों पति-पत्नी  झगड़ा करने लगे, जो सरला ने सब सुन लिया। चुपके से सरला मौसी उसी रात अपना थोड़ा सामान लिए घर से निकल जाती है, मगर अब जाए कहाँ ? सरला मौसी ने वृद्धाश्रम के बारे में सुना था। इसलिए सरला मौसी वृद्धाश्रम में चली आई, यहाँ उनकी उम्र के सब लोग थे और उनका मान-सम्म्मान भी करते है।  

         और देखो वो जवान औरत जिसका पति छोटी उम्र में गुज़र जाने की बजह से वह औरत पनोती और अपसूकनि है कहकर उसे घर से निकाल दिया।  इसलिए वह अब यहाँ इन सब के लिए खाना बनाती है और सब की सेवा भी करती है। 

      यू देखो तो यहाँ पे किसी को किसी के साथ कोई रिश्ता नहीं, मगर एक रिश्ता है, वो है दिल का रिश्ता, जिस से जुड़े हुए है ये सब लोग। ना कोई जान-पहचान, ना एक दूसरे से कोई ख़्वाइश, ना कोई सिकवा-शिकायत, नाहीं कोई उम्मीद। फ़िर भी यहाँ सब साथ रहते है, खुश है, हर त्यौहार मनाते है, साथ मिलके काम भी करते है, 

औरत को अगर पसंद हो, तो वह सिलाई का काम करती है, कोई खाना बनाती है, कोई किताब पढ़ते है, तो कोई लिखते है, तो कोई चित्र बनाते है, हर रोज़ शाम को सत्संग करते है, नाचते-गाते है, खाना खाते है, सो जाते है। 

अगर अपनों की याद आ भी जाए, तब भी सोचते है, इनका कोई अपना है ही नहीं, जिसे वो याद करे। मतलब ये लोग घर से ज़्यादा यहाँ खुश रहते है, क्योंकि यहाँ इनको परेशान करनेवाला, रोकने-टोकने वाला कोई है ही नहीं। कई अमीर लोग फण्ड और डोनेशन के तौर पे बहुत पैसा ऐसे वृद्धाश्रम और अस्पताल में दिया करते है, जिन से इन लोगो का गुज़ारा चल जाता है। 

          अनाम डॉ.सुमन की सारी बातें देख-सुन रहाता है, डॉ.सुमन की ये सब बातें सुन अनाम की आंखें भर आती है। ज़िंदगी ऐसी भी होती होगी, अनाम ने कभी सोचा ना था। 

      उसके बाद डॉ.सुमन अनाम को एक और जगह लेके जाती है, वो है अनाथालय। अनाथालय के बाहर गार्डन में ही बच्चे एक दूसरे से खेल रहे थे, हस रहे थे, गाना गा रहे थे, नाच रहे थे, पढ़ रहे थे, मस्ती भी कर रहे थे। तुम सोच रहे होंगे, यहाँ ये बच्चे क्यों और कैसे ?

          अनाम बिना कोई सवाल किए डॉ.सुमन के पीछे-पीछे जाते हुए उसकी हर बात बड़ी गौर से सुन रहता  है,  

डॉ.सुमन : तो सुनो, इन में से कई बच्चो के माँ-बाप ने शाद्दी किऐ बगैर ही इनको जन्म तो दे दिया, मगर समाज के डर से इन को अपना ना सके, इनको अपना नाम तक ना दे सके, तो यहाँ लाके छोड़ दिया। तो किसी लड़की को किसी लड़के ने प्यार का वादा करके उसका इस्तमाल करके छोड़ दिया, बाद में लड़की को पता चला, वो माँ बनने वाली है, फिर बच्चे को जन्म देकर यहाँ छोड़ जाते है। किसी बच्चे के माँ-बाप अचानक किसी एक्सीडेंट में मर जाते है, घर वाले इनको पाल नहीं सकते, इसलिए यहाँ छोड़ जाते है। अभी ये अनाथालय और यहाँ के बच्चे ही इनके दोस्त, घरवाले और माँ-बाप भी है, अब ये कहाँ जाएँगे ? इसलिए यही रहते है, इनमें से कई यो को तो अपने माँ-पापा के बारे में पता भी नहीं होगा। हाँ, लेकिन इन सब में एक अच्छी बात ये होती है, की अगर किसी माँ-बाप को बच्चे की जरूरत हो और वह भगवान् उनको देते नहीं तब वे लोग यहाँ से  अपनी मनपसंद का कोई एक बच्चा adopat भी कर लेते है,  उस वक़्त एक बच्चे को घर और माँ-बाप और एक माँ-बाप को बच्चा मिल जाता है, जैसे उनके बुढ़ापे की लाठी  मिल गई हो। ऐसा वे सोचते है, आगे क्या होता है, ये तो राम ही जाने। यहाँ पे बच्चे पढ़ते है, खेलते है, भगवान् का सत्संग भी करते है, दोस्त भी बनाते है, हर त्यौहार साथ मिल के मनाते है, इन में से कई बच्चों  ने माँ-बाप कभी देखे नहीं, इसलिए माँ-बाप कैसे होते है, ये भी शायद इनको पता नहीं होगा। इन सब की भी कोई असली पहचान नहीं, जो जिस नाम से पुकारे वही उनका नाम हो जाता है। बस ऐसे ही ज़िंदगी जीना सिख जाते है। इन में से कई  बच्चे बड़े होकर पढ़-लिखकर बड़ा आदमी भी बनते है, बहुत पैसा कमाने पर अपना खुद का घर बनाते है और अपनी कमाई का आधा पैसा इसी अनाथालय में दिया करते है, ये सोच, कि " जैसे उनको इस अनाथालय में आसरा मिला वैसे ही किसी और को भी आसरा मिल जाए और उनकी भी ज़िंदगी सवर जाए। "  जिस अनाथालय को ही अपना घर मानकर वे बड़े हुए।  ऐसी भी होती है ज़िंदगी। 

      अनाम, अब तुम सोच रहे होंगे, कि इतना सब कुछ मुझे  कैसे पता ? तो सुनो मेरी एक दोस्त है। जिसका नाम मान्या है। हम दोनों कॉलेज में साथ में पढ़ते थे, पहले दोस्ती हुई, फ़िर दोस्ती जब गहरी होने लगी, तब उसने मुझे कहाँ, कि 

मान्या :" मेरे माँ-पापा कौन है, मेरी सच में पहचान क्या है ? ये मुझे पता ही नहीं क्योंकि मैं अनाथालय में पली-बड़ी हुई हूँ। ये हमारे नसीब की बात होती है, कि अनाथालय में हमारी ज़िंदगी कैसी होगी ? क्योंकि यहाँ रिश्तों के साथ-साथ जिस्म का भी व्यापार होता है, आगे से तो लोग बहुत अच्छे दिखाई देते है, बच्चों  के साथ बहुत अच्छा बर्ताव करते है, मगर रात होने पे जिस्म का व्यापार शुरू हो जाता है। रोज़ रात को खरीद्दार लड़की या लड़के को पसंद करके  लेके चले  जाते है।  सुबह होने से पहले उनकी गाड़ी अनाथालय तक छोड़ जाती है। इसके उनको अच्छे खासे पैसे मिलते है, मगर उस लड़की को तो तकलिफ़ के अलावा कुछ नहीं मिलता। ऊपर से धमकाया जाता है, कि  किसी से कुछ भी कहा, तो गरम खोलते पानी में हाथ-पैर जलाए जाएँगे। चाहने पर भी वहां से भाग भी नहीं सकते, इतनी पाबंदियां होती है और वापस भाग के कहाँ जाएँगे ? बाहर इस बेदर्द दुनिया में भी कौन अपना होगा ? जिस के पास जाए।

     कुछ जगह ऐसा होता है, तो कुछ जगह बिलकुल ठीकठाक चल रहा होता है, ये बच्चे के नसीब पे निर्भर करता है, कि वह किस और कैसी जगह पर रहते है।  मगर ये बात भी सही है, कि हर जगह ऐसा व्यापार और अत्याचार नहीं होता। कई जगह पे लड़के, लड़कियों को बड़ी अच्छी तरह से रखा जाता है, जो पढ़-लिख़ के अपनी नई दुनिया की शुरुआत भी करते है। फ़िर भी सब कुछ होते हुए भी ज़िंदगी में हर  पल एक तन्हाई सी रह जाती है। जिससे चाहने पर भी हम उस तन्हाई से दूर नहीं कर सकते। हर पल एक सवाल दिल को चिर देता है,

   " मैं कौन ? मेरा कौन ? "

डॉ.सुमन : मान्या  मुझे  सब कुछ बताया करती, उसकी बात सुनकर मैं अंदर से टूट गई, उसने मुझे वो सब भी बताया, कि इतने सालो में उसने क्या  महसूस किया।

      तब से मैंने भी ठान लिया, कि मैं बहुत पढूँगी और इतना पैसा कमाना है, जिस से में ऐसे लोगो की मदद कर पाऊ । मैंने मन लगाकर पढाई की और अपना डॉक्टर बनने का सपना पूरा किया। साथ में मुझे किताब पढ़ने का बहुत अच्छा लगता है, इसलिए मैंने  काफी किताबें भी पढ़ी है, उस से हमें ये जानने  को मिलता है, क्या सही क्या गलत ? हमें क्या करना चाहिए और क्या नहीं ? दुनिया में क्या चलता है और क्या नहीं ? और भी बहुत कुछ... 

        डॉ.सुमन बोले जा रही है, अनाम उसे एक तक सुने जा रहा है। बात को आगे बढ़ाते हुए,

 डॉ.सुमन : तो अनाम आज मैंने तुमको ज़िंदगी से मिलवा दिया।

      कहते हुए डॉ.सुमन अनाम से बाते करते-करते  फिर से अनाम कोअपने अस्पताल लेके जाती है और अनाम को समझाते हुए,

    अब तुझे खुद अपने बारे में सोचना है, कि तुझे क्या करना है अब ? रोते और परेशान रहना है या ख़ुशी से ये जो ज़िंदगी है उसे जीना है, किसी की आँखों की रोशनी बन सकते हो तुम, किसी के बुढ़ापे की लाठी बन सकते हो तुम, किसी का दोस्त, तो किसी के हमसफ़र बन सकते हो तुम।  अब सब कुछ तुम्हारे हाथों में है, मैं तुम्हारे साथ तुम्हारे हर फैसले के साथ हूँ, लेकिन फैसला तुम्हें ही करना है। आराम से सोचना जो सारी बात मैंने तुमसे कही उसके बारे में।

    आख़िर में ये सफर थोड़ा लम्बा रहा। मगर डॉ.सुमन की बातों-बातों  में रास्ता कहाँ कट गया, अनाम को पता ही नहीं चला !

       तो दोस्तों, डॉ.सुमन की बातों से ही पता चलता है, की वह कितनी सुलझी हुई है, वह कितनी समझदार है, डॉक्टर होने के साथ-साथ वह सब के चेहरे और मन को भी आसानी से पढ़ सकती है, सब के लिए उनके दिल में कितना प्यार है, दुसरों का दर्द वह ख़ुद अच्छे से महसूस कर सकती है। हसना जानती है, तो हसाना भी जानती है, किसी का दर्द लेकर उसके होठों की मुस्कान बनना भी जानती है। कभी पंछी से बाते करे, तो कभी हवाओं से, कभी बारिश से बाते करे, तो कभी अपने आप से, कभी पेड़-पौधो से, तो कभी किताब से बाते करे, तो कभी आईने से, कभी ख़ुद से ही नाराज़ तो कभी ख़ुद से ही ख़ुश। बस ऐसी ही है हमारी डॉ.सुमन। जैसे ज़िंदगी को सिखाती चलती-फिरती किताब। जिसे हर कोई आसानी से पढ़ ना पाए।

 अब आगे क्रमशः।  

                                                                   Bela... 

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