ज़िम्मेदारी
कॉलेज के वो दिन, कितने अच्छे हुआ करते थे, सब को कभी ना कभी तो याद आते ही है, कॉलेज के वो दिन। थोड़ी सी मस्ती, बहुत सारा मज़ाक, थोड़ी पढाई, बहुत सारी बातें, थोड़ा सा प्यार, बहुत सारी तक़रारे, कहीं दोस्ती, तो कहीं प्यार, कभी कैन्टीन तो कभी मूवी, बड़े ही अच्छे होते है कॉलेज के दिन। कॉलेज के उन दिनों में ना कोई ज़िम्मेदारी होती है और ना ही कोई परेशानी।
फ़िर प्यार हुआ, फ़िर शादी। सोचा था प्यार के सहारे ज़िंदगी कट जाएगी, मगर यहाँ तो सुबह की चाय से लेके रात को बिस्तर पे जाने तक का सफ़र ज़िम्मेदारी के अलावा कुछ नहीं। अच्छे खासे घूम फिर रहे थे कॉलेज में। वो प्यार, वो इकरार, वो नज़रे चुराना, वो पलके झुकाना, थोड़ा शरमाना, थोड़ा रूठना, थोड़ा मनाना, थोड़ी लड़ाई, कितने प्यारे थे वो दिन। अब सिर्फ यादें ही रह गई है।
जब पढाई का वक़्त था, तब पढाई में मन नहीं लगता था, मन इधर-उधर भागता रहता था। प्यार के सपने देखा करते थे। एक दूसरे के लिए मर मिटने को भी तैयार रहते थे। उनके एक दीदार के लिए पुरे दिन शाम होने का इंतज़ार किया करते थे। उनका कोई मैसेज आया है, या नहीं ये भी बार-बार अपने wats up पे देख लिया करते थे, उनको जो कलर का कुर्ता पसंद है, वही कुर्ता पहना करते थे। मम्मी-पापा भी शादी के लिए राज़ी हुए। कॉलेज के बाद कुछ ही दिनों में शादी भी हो गई। पहले-पहले तो दिन बड़े अच्छे बीते। लेकिन बाद में घर की ज़िम्मेदारी समझ में आने लगी। घर में मेरे सास-ससुर, एक छोटा देवर और एक छोटी ननंद सब साथ में रहते है। ससुरजी के रिटायरमेंट के बाद उन सब की ज़िम्मेदारी अब मेरे पति के सिर है। इसलिए अब हम दोनों ने ही नौकरी शुरू कर दी, रोज़ सुबह घर का सारा काम निपटाकर उनका और मेरा टिफ़िन लेकर हम दोनों साथ में ऑफिस के लिए निकल पड़ते है। उनको जाना होता है भयंदर और मुझे विरार। वो अपने रास्ते और में अपने रास्ते। उन पे भी ऑफिस, बैंक और घर की ज़िम्मेदारी कुछ इस तरह है, कि उनको भी अपने ख़ुद के लिए बहुत कम वक़्त मिलता है। कभी-कभी वो मुझे घर का सामान लाने में हेल्प कर देते है। फिर से शाम को घर आते-आते वही सब्जीवाला, मार्केटवाला, लॉण्ड्रीवाला इन सब से पसार होते-होते देर हो ही जाती है, घर जाके फिर से शाम के खाने का इंतेज़ाम, माँ- पापा की दवाई, देवर के कपड़े, ननद की किताबे सब को अपनी-अपनी चीज़ देकर, फ़िर से दूसरे दिन की भी तैयारी करनी पड़ती है। आख़िर में रात को बिस्तर तक जाते-जाते मेरे साथ-साथ मेरे सारे अरमान भी ठक कर सो जा जाते है। और फ़िर विरार से बोरीवली का सफर वो भी मुंबई की लोकल ट्रैन में, उफ्फ् ! सारा प्यार, इश्क़ वही का वही रह जाता है। वो मुझ से प्यार तो करते है, मगर अब प्यार करने का वक़्त ही कहाँ रहा ? पहले हर हफ्ते मूवी देखते थे, होटल में खाना खाते थे, साथ में बैठ के पढ़ते भी थे, मगर आज हर हफ्ते, साथ में बैठते तो है, मगर पुरे हफ्ते का हिसाब करते है, अब प्यार की चिठ्ठी नहीं मगर मार्किट से क्या चीज़ लानी है उसकी चिठ्ठी दिया करते है, पहले candle light डिनर किया करते थे, अब अगर लाइट चली जाए, तो न्यूज़ पेपर को पंखा बना कर एकदूसरे को हवा दे देते है, पहले पूरी-पूरी रात wats up पे बातें किया करते थे, अब पूरा दिन काम करके इतना ठक जाया करते है, कि बिना बात किए ही सो जाया करते है, पहले एकदूसरे को birthday में सरप्राइज पार्टी दिया करते थे, अब सिर्फ एक केक ख़ाके अपना मन बहला लिया करते है। कभी-कभी सोचते है, की प्यार तो एकदूसरे से करते ही है, लेकिन ज़िम्मेदारियों के भवर में प्यार कहीं खो सा गया है या कहुँ तो प्यार के लिए वक़्त ही नहीं बचता।
उसी लोकल ट्रैन से जाते वक़्त रोज़ एक ही ख़याल आता है, की " हकीक़त में प्यार, इश्क़, महोब्बत ये सब कहने की बाते है, ज़िंदगी ज़िम्मेदारी के अलावा कुछ नहीं... ! "
तो दोस्तों, " इसी का नाम है ज़िंदगी। "
जो घर की सभी ज़िम्मेदारियों के साथ अपना फर्ज़ बख़ूबी निभाते चले जाना है। इन ज़िम्मेदारियों से शायद ही कभी पीछा छूट सके। जैसे-जैसे ज़िंदगी आगे बढ़ती रहती है, ज़िम्मेदारियाँ भी इन के साथ बढ़ती ही जाएगी। हम सब की ज़िंदगी भी इसी लोकल ट्रैन की तरह fast चल रही है। हम को भी इस स्पीड को बनाऐ रखना है। चाहे कुछ भी हो जाए, हम सब को साथ में एकदूसरे से कदम से कदम मिला के चलते रहना है।
" इसी का नाम है ज़िंदगी। "
Bela...
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