मन की उलझनें
कोरा कागज़ सा है,
आज मन मेरा
समज नहीं आता,
शुरु कहाँ से करु ?
काश ! कहीं से वो एक शब्द मिल जाए, जिस से की मैं, अपने जीवन की दास्ताँ, आप सब को सुना सकूँ...
मगर ना जाने आज ऐसा क्यूँ लगता है मुझ को, कि
" ज़िंदगी कहीं खो सी गई है और मुझे अपने होने का ही एहसास नहीं, फ़िर सोचा की आज चलो लिख लूँ, कुछ अपने बारे में।
लेकिन ना जाने क्यूँ सब की ज़िंदगी की कहानी लिखनेवाली आज " मैं " जैसे की मेरे पास शब्द ही नहीं, कागज़, स्याही और कलम भी मेरे सामने देख सोच रहे है, कि " बिना रुके हम पे चलने वाले हाथ आज रुक से क्यों गए है ?"
कलम को स्याही में डुबोते हुए, फिर से लिखना शुरू किया, मगर शुरू कहाँ से करू ? तब मुझे एहसास हुआ, कि जैसे " शब्द मुझ से भाग रहे है कहीं दूर, कहानी मुझ से पूछ रही सवाल, कविताएँ पंछी बनकर उड रही आसमान में और मैं कोरे कागज़ को एक नज़र देखे ही जा रही हूँ।
" जाने कहाँ गए वो दिन, जब आधी रात को भी, मेरी कलम कागज़ पे, अपने आप बिना रुके चल पड़ती थी और कब सवेरा हो जाए मुझे पता भी नहीं चलता था। मेरे कई शब्द को मुझे संभालना पड़ता था, मेरे डायरी में। बिना नींद के, मेरे सपनो की कहानी, कब कागज़ पे उतर आए, और मुझे पता भी ना चलता था, जाने कहाँ गए वो मेरे शब्द, कौन चुराके ले गया मेरे वो जज़्बात और एहसास, जिसके साथ मैं बैठ लिखे जा रही थी।
अब सवाल यही है, की अब कैसे मैं अपने उन शब्द, जज़्बात और एहसास को फ़िर से जगाऊँ ? कोई तो बता देा यार please
Bela...
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