अंदाज़ प्यार का Part - 1
मेरा नाम प्रियंका,
में अपने जीवन के कुछ बेहतरीन पन्ने आप सब को बताना चाहती हूँ की, कभी कभी ज़िंदगी में " अंदाज़ प्यार का " ऐसा भी होता है, जिसे समझने में हम को बहोत वक़्त लग जाता है, तो सुनिए दोस्तों,
तब मेरी उम्र तक़रीबन 18 साल की होगी। मेरी बहोत सी ख्वाइशे थी, आसमान को छूने की, कुछ कर दिखाने की, या तो फिर कुछ कर जाने की, रहती थी में हर पल खवाबो में, देखा करती थी, एक सपना " डॉक्टर" बनने का।
में सोचती थी, की डॉक्टर बनके में दादा और दादी का इलाज करुँगी। माँ के घुटने और कमर के दर्द को में ठीक कर दूँगी। पापा को अपनी कमाई के पैसे देकर उनका कुछ बोझ हल्का कर दूँगी, डॉक्टर बनके अस्पताल खोलूँगी, जिसमें सारे गरीबो का इलाज कम से कम पैसो में हो सके, अपनी छोटी दो बहनो को में पढ़ाउंँगी, मगर वक़्त को शायद कुछ और ही मंज़ूर था, वक़्त के आगे भला किसका ज़ोर चलता है, समाज के सामने हर इंसान आखिर झुक ही जाता है, या तो फिर उसे झुकना पड़ता है, मेरे पापा ने मेरी एक ना सुनी, अच्छा लड़का देख मेरी शादी करा दी, कहकर की मेरे पास तुझे डॉक्टरी पढ़ाने के पैसे नहीं है, और मुझे तेरी दो बहनो की भी शादी करानी है, कब तक तुम तीनो का बोझ लिए जीता रहूँगा में ? तेरे डॉक्टर बनने तक तेरी दो बहने क्या घर पर ही बैठी रहेगी ? और भी बहोत कुछ।
आख़िर क्या करती में ? पापा की इतनी सारी उल्ज़नो के आगे मुझे झुकना ही था, मेरे मना करने के बावज़ूद भी उन्होंने मेरी शादी हमारे ही समाज के किसी प्रशांत नाम के लड़के से करवा दी,
वैसे तो वो ठीक - ठाक था, किसी company में जॉब करता था, 1०, ००० पगार था उनका। उसमे से पूरे महीने का खर्चा निकल जाता था।
मैनें तो हमारी शादी की सुहाग रात में ही बिना डरे उसे सब कुछ अपने बारे में बता दिया था, की अभी शादी करने की, मेरी कोई मर्ज़ी नहीं थी, मेरे पापा ने समजा बुझाकर मेरी शादी आपसे करवा दी, मेरा सपना तो डॉक्टर बनने का ही था। मेरा सच जानने के बाद वो कभी मेरी मर्ज़ी के बगैर मेरे पास नहीं आए, नाही किसी तरह का कोई हक़ जताने की कोशिश की, और नाही मुझ से अपनी कोई बात मनवाई, उसी रात से हम दोनों एक ही कमरे में अलग-अलग सोते थे, में बिस्तर पे तो वो सोफे पे।
उल्टा प्रशांत उनके नाम की तरह बहोत ही शांत स्वाभाव के थे, मुझे उसे समझने में थोड़ा वक़्त लगा लेकिन अब मुझे लगता है, की वो बहोत ही अच्छे है, मेरी ना मरज़ी से हुई शादी की वज़ह से पहले तो में उनसे बहोत उखड़ी उखड़ी सी रहती थी, प्रशांत से मेंने कभी सीधे मुँह बात भी नहीं की, मगर उन्होंने मुझे कभी पलट के जवाब नहीं दिया और नाहीं मुझ से ऊँची आवाज़ में कभी बात की, मेरी हर बदतमीज़ी को वो नज़र अंदाज़ करते रहे, भगवान शायद ऐसे इंसान दुनिया में बहोत ही कम बनाते होंगे।
गली के चैराहे पे दो माले का उनका खुद का मकान था, घर के अंदर एक बड़ा सा दीवानखंड था, एक तरफ़ सोफा - खुर्सी, और मेज़, उस मेज़ पे एक flower pot और newspaper रखे हुए थे और उसके सामने टी.वी, और टी.वी. केस के ऊपर एक टेप रेकॉर्डर था, जो दिखने में थोड़ा पुराना था, मगर गाने अच्छे बजाता था, एक कोने में मंदिर जिसमे सिर्फ़ कान्हा जी की मूर्ति थी, दीवानखंड के पीछे की ओर रसोई थी, रसोई के बिच में चार ख़ुर्शी वाला बड़ा डाइनिंग टेबल था, मगर उसपे बैठने वाले सिर्फ हम दोनों ही थे, उसके माँ पापा किसी कार accident में कुछ साल पहले ही गुज़र चुके थे, और दूसरा उनका कोई नहीं था, सब चीज़े अपनी अपनी जग़ह ऐसे सजी हुई थी, मानो कोई यहाँ पे रोज़ सफाई करता हो, दीवानखंड के करीब से एक सीढ़ी थी, जो ऊपर तक जाती थी, और ऊपर दो कमरे थे, जो काफी बड़े थे, तो ऐसा था मेरा छोटा सा आशियाना।
उनकी बात करू तो, उनकी ज़िंदगी एक टाईमटेबल की तरह थी, जैसे की रोज़ सुबह उठकर वह सूर्य नमस्कार करते, बाद में फ्रेश होके कान्हाजी की आरती करते थे, उसके बाद ही चाय नास्ता करते, फिर टिफ़िन लेके ऑफिस चले जाते, ऑफिस जाते ही, मुझे फ़ोन करके बता देते की में ऑफिस पहोच चूका हूँ, और शाम को जल्दी घर आ जाऊँगा, मगर रोज़ ही रात को ९ बजे घर आते है, ऑफिस से लौटकर चुपचाप खाना खा लेते है, उनके कपडे पहनने का एक ही style था, white shirt और black pant, या तो लाइट pink shirt और blue pant, अपने बालो में वो रोज़ तेल डाला करते थे, प्रशांत कहते है, की बालों में तेल डालने से दिमाग शांत रहता है, हमें जल्दी गुस्सा नहीं आता और बाल भी रेशमी बनते है, कभी कभी बड़ी अजीब लगती थी उनकी आदतें, प्रशांत बातें बहोत ही कम किया करते है, रोज़ ऑफिस से आते वक़्त वो मेरे लिए एक लाल गुलाब का फूल लेकर ही आते है, में उसे flower pot में सजाया करती हूँ, मगर मैंने कभी पूछा नहीं की, वह रोज़ रोज़ मेरे लिए लाल गुलाब का फूल क्यूँ लाते है ? और उन्होंने भी कभी कुछ बताया नहीं।
फ़िर हर sunday को मूवी देखने ले जाते है, और मूवी देखते देखते popcorn खाया करते है, बाद में होटल में जाकर खाना खाते है, और ice cream खाकर घर लौट के सो जाते थे, रोज़ रात को थोड़ी देर t.v पे पुराने गाने सुनते और सुबह जल्दी उठना है, कहकर सो जाते है, उनकी ख़ामोशी कभी कभी मुझे अंदर ही अंदर चुभती है, कभी कभी में सोचती हूँ की कही मैंने अपने मन की बात बताकर कही कुछ गलत तो नहीं किया ? क्या उनको भी मेरी ये बाते अंदर ही अंदर चुभती तो नहीं ? खैर,जो भी हो,
लेकिन हमारी शादी के दो महीने बाद आज ऑफिस जाते वक़्त प्रशांतने मेरे हाथों में एक लिफाफा देते हुए कहा, की मेरे जाने के बाद इसे पढ़ना, तुम्हारा जो भी फैसला होगा मुझे मंज़ूर होगा, कहकर वह अपना टिफ़िन लेकर ऑफिस के लिए निकल गए, में कुछ पल के लिए सोच में पड गई, की ऐसा क्या है इस लिफ़ाफ़े में ?
मैंने तुरंत ही उसे खोल के देखा, तो वो कॉलेज का एडमिशन फॉर्म था, और साथ में एक ख़त था, जिसमें लिखा था, की " अगर अब भी डॉक्टर बनना चाहती हो तो, ये कॉलेज का एडमिशन फॉर्म भर दो, में इसे कॉलेज जाके भर दूंँगा, और तुम्हारी फीस भी में भर दूँगा।" मेरी ख़ुशी का तो कोई ठिकाना नहीं रहा, मैंने तुरंत ही एडमिशन फॉर्म भर दिया, और प्रशांत को फ़ोन करके बताया की, मैंने कॉलेज का फॉर्म भर दिया है, आपका बहोत बहोत शुक्रिया जी, आपका ये एहसान में कभी नहीं भूलूँगी।
प्रशांत ने कहा, की उसमें एहसान की कोई बात नहीं, ये तो मेरा फ़र्ज़ है, तुम खुश रहो, इस से ज़्यादा मुझे और कुछ नहीं चाहिए।
मैंने कहा, आज रात घर जल्दी वापिस आ जाना, में आपकी मन पसंद बिरयानी बना दूँगी, साथ में बैठ के खाएँगे।
प्रशांत ने कहा, जी ज़रूर, में जल्दी आने की कोशिश करूँगा।
अब मुझे उनके अच्छे होने पे और भी फक्र होने लगा। उस रात में उनका इंतज़ार कर रही थी, मगर आज उनको आने में कुछ ज़्यादा ही देर लग गइ थी, प्रशांत के आते ही मैंने रुठते हुए पूछा की, क्या मेरी बिरयानी खाने से ड़र लगता था की, आने में इतनी देर कर दी आपने ?
प्रशांत ने कहा की, जी नहीं, ऑफिस में एक दोस्त का बर्थडे था, और वो ज़बरदस्ती मुझे उनके घर लेकर गए थे, इसलिए देर हो गई, और कोई बात नहीं।
मैंने फ़िर हस्ते हुए कहा, की में तो मज़ाक कर रही थी। अच्छा चलो, आप fresh हो जाओ, में अभी खाना लगा देती हूँ, हम दोनों ने बिरयानी खाली, प्रशांत ने बिरयानी की बहोत तारीफ भी की, की बिरयानी सच में बहोत अच्छी बनी है। मैंने पहली बार मुस्कुराकर कॉलेज के एडमिशन के लिए उनका धन्यवाद किया। प्रशांत ने तब भी एक ही बात कही, बस तुम खुश रहा करो।
उसके दूसरे ही दिन, प्रशांत ऑफिस के लिए थोड़ा जल्दी निकल गए और पहले उन्होंने कॉलेज में फॉर्म और फीस भर दी। में जानती थी की उनके इतने पगार में से डॉक्टरी की पढाई का खर्चा निकालना मुश्किल तो है, मगर उन्होंने कुछ ना कुछ तो सोचा होगा, तभी तो हांँ कहा, ये सोच कर में बहोत खुश थी।
रोज़ सुबह उनका और अपना टिफ़िन बनाके, हम दोनों टिफ़िन लेकर साथ में घर से निकल जाया करते थे, प्रशांत मुझे रोज़ कॉलेज छोड़ने आया करते थे, और कॉलेज के वापिस लौटने के वक़्त में ऑटो में चली आती थी, कॉलेज से घर लौटकर में शाम का खाना और बाकी का काम निपटाकर पढाई करने बैठ जाती थी, मुझे पढाई करता देख वह भी काम में help किया करते थे, मेरे मना करने पर कहते थे की वैसे भी मुझे काम करने की आदत है, रोज़ सुबह चाय वह बनाते थे, खाना में बनाया करती थी, बिस्तर वो समेट देते थे, कपडे में धोके सूखा देती थी, जैसे मुझे ज़िंदगी जीने की एक वज़ह मिल गई थी। हम दोनों के बिच जो पहले कुछ ना था, अब थोड़ी बातें होने लगी थी, मैंने उनकी और दोस्ती का हाथ बढ़ाया, और कहा की कुछ नहीं तो हम दोस्त तो बन ही सकते है, और ये वादा करो की हम एक दूसरे से कभी भी कुछ नहीं छुपाएँगे।
में मन लगाकर पढ़ने लगी। देखते देखते दो साल बित गए, दोनों साल मैंने कॉलेज में top किया, प्रशांत बहोत खुश होते थे, और मुझे बधाई देते थे, और कभी कभी वह मुझे डॉक्टरनी कहकर चिढ़ाया भी करते थे।
तो दोस्तों, अब प्रियंका और प्रशांत की कहानी में दोस्ती आगे बढ़ेगी, या प्यार ? ये जानने के लिए Part - 2 ज़रूर पढ़ना।
Bela...
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