मैं और मेरा दोस्त
हांँ दोस्तों,
तो आज बात करेंगें, मैं और मेरे दोस्त की,
जिसके साथ मैं बचपन से जुडी हुई हूँ,
आप सोचेंगे वो कैसे ? और कब से ?
ये तो मुझे याद नहीं, मगर तब से जब से मैंने होंश सँभाला । एक पल के लिए भी मैं उस से दूर नहीं रहती हूँ, वह हर वक़्त मेरे साथ था और आज भी है, सोते-जागते, पढ़ते-लिखते, उठते-बैठते, खाते-पिते, आते-जाते, हर पल जैसे की मेरी आती जाती साँस के साथ वह जुड़ा हुआ है, एक आदत सी हो गइ है, मुझे उसके साथ रहने की, उसी के साथ लड़ना, झगड़ना, प्यार, गुस्सा सब कुछ... बचपन गया, जवानी के दिन भी ढलने लगे, काले घने बालो में जैसे सफेदी आने लगी, आँखों पे चश्मा भी आ गया, शायद कभी-कभी बर्ताव में मेरे चिड़चिड़ापन आने लगा, सब कुछ बदला, बस एक मेरा दोस्त ना बदला, आज भी मैं उससे पहले की तरह बातें करती रहती हूँ, फर्क सिर्फ इतना है की पहले मैंने उन बातों को अपने अंदर समेट के रखा था, आज उन्हीं बातों को कागज़ और कलम के सहारे से सबको बता रही हूँ।
" आपकी अपनी सोच।"
जो हर वक़्त एक साए की तरह आप के साथ रहती है।
दोस्तों, मेरा एक सवाल है। क्या आप भी पल दो पल के लिए अपनी सोच से दूर रह सकते है ? नहीं ना ! मेरे तजुर्बे के मुताबिक़ ज़्यादातर लोग ऐसे होते है, जो अपने आप में खोए हुए रहते है, तो उन लोगों की सोच भी उनका हर पल का सच्चा दोस्त हुआ। जिसके साथ शायद वह भी हर पल बातें करते रहते है और वह सोच ही उन सभी का सच्चा दोस्त हुआ, जिसे शायद आज तक कोई पहचान नहीं सका, मगर अब वक़्त आ गया है अपनी सोच को कागज़ के पन्नो पे उतारने का, जिस से आपके मन का बोज़ भी हल्का होगा और आपकी सोच भी हर कोई जान सकेगा।
तो दोस्तों, क्या आप कर सकते है ऐसा ?
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Really......our thought is our best friend....Nice written ,thanks a lot to you for remembering us such markable thing.
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