मुझे फ़र्क पड़ता है
मेरा नाम ख़ुशी, अपने घर में सब के होठों की मुस्कान, सब के दिलो की जान। मम्मी और पापा ने मेरा नाम बड़े प्यार से रखा था, " ख़ुशी "। जिसके जीवन में हर पल खुशियांँ ही महकती रहे और वह सब के जीवन को ख़ुशियों से भर दे। घर में, मैं सब की प्यारी थी। मम्मी-पापा, दादू-दादी, चाचा-चाची सब मुझ से बहुत, बहुत, बहुत प्यार करते थे, मुझे देखकर सब के होठों पे हँसी की लेहर छा जाती थी।
मेरे जन्म के वक़्त दादू ने हमारे सारे समाज में मिठाइयाँ बँटवाई थी। कितनी नाज़ुक सी, प्यारी सी, नन्ही सी, सब के दिलो की जान थी मैं, कि सब मुझे छूने से भी डरते थे, दादी तो रोज़ मेरी नज़र उतारा करती थी, कही मुझे किसी की बुरी नज़र ना लग जाए। मेरे ज़रा से रोने की आवाज़ से सब दौड़े चले आते थे, अगर कभी कही मुझे थोड़ा सा झुकाम या बुखार भी आए, तब भी पापा पूरा घर सिर पे उठा लेते थे, मेरी छोटी से छोटी बात का इतना ख्याल रखते थे, कि मत पूछो बात। मेरे लिए रोज़ नए कपड़े, खिलौने, किताबें सब कुछ जैसे एक सपना सा हो। मैं जब स्कूल जाने लगी तो पापा या मम्मी दोनों में से एक मुझे रोज़ स्कूल छोड़ने और लेने आया करते थे। देखते ही देखते में ५ साल की हो गई।
लेकिन शायद घर में दादा-दादी, चाचा-चाची, मम्मी-पापा सब को एक बेटा भी चाहिए था। क्योंकि कहते है, कि " बेटियाँ तो पराया धन होती है, उसे तो शादी के बाद अपने ससुराल जाना होता है। लेकिन बेटा ही माँ-बाप के बुढ़ापे की लाठी होता है और बेटे से ही वंश आगे भी बढ़ता है। "
एक दिन अचानक मेरी मम्मी को सुबह सुबह चक्कर आने लगे। उसे उल्टियाँ भी होने लगी, घर में सब डर गए, तुरंत मम्मी को अस्पताल ले गए, मैं उनका इंतज़ार कर रही थी। अस्पताल से लौटने पर पापा मम्मी बहुत खुश थे, पापा ने दादी को कान में कुछ कहा, मैं कुछ समझ नहीं पाई। दादी ने मम्मी को कहा, " अब तुम घर के कामो की चिंता मत करना, मैं सब सम्भाल लूँगी। तुम बस आराम करो और अपना ख्याल रखना। " मम्मी शरमा के अपने कमरे में चली गई। मैं भी भागते हुए मम्मी के पास जाके उसके गले लग गई। मम्मी ने भी मुझे प्यार से गले लगा लिया। उसके बाद मम्मी की तबियत कुछ ठीक नहीं रहती थी, उसे रोज़ चक्कर और उल्टियाँ आती थी, मगर सब ये देख खुश होते थे और मम्मी को सिर्फ इतना ही कहते की तुम आराम करो। देखते ही देखते मम्मी का पेट बड़ा होने लगा। एक दिन खेल खेल में मैंने गलती से मम्मी के पेट पे लात मार दी, मम्मी चीख पड़ी, उस वक़्त पापा भी घर पे ही थे, उन्होंने ये देखकर मुझे ज़ोर से थप्पड़ मार दिया। मेरा वह पहला थप्पड़, मुझे आज भी याद है। मैं ज़ोर-ज़ोर से रोने लगी, मगर मुझ पर किसी का ध्यान नहीं गया, सब मम्मी की परवाह किए जा रहे थे, कि वह ठीक तो है ना, उसे कुछ हुआ तो नहीं। मम्मी ने कहा मैं ठीक हूँ।
मम्मी ने मुझे गले लगा दिया। फिर मम्मी ने मुझे बताया कि, " तुम को खेलने के लिए एक नन्हा सा, छोटा सा, प्यारा सा, भाई चाहिए की नहीं ?" मैंने मुस्कुराकर हाँ कहा, "तब मम्मी ने मुझे बताया कि " उसके पेट में वही नन्हा सा, छोटा सा, प्यारा सा तुम्हारा भाई है, उसी की वजह से मेरा पेट इतना बड़ा हो गया है, अब कुछ ही दिनों में वह आ जाएगा, तब तुम उसका ख्याल भी रखना और उसके साथ खेलना भी। " और मैंने खुश होकर कहा, " क्या सच में मेरा भाई आने वाला है ? " मम्मी ने कहा," हा सच में। " मैं अपने छोटे भाई का इंतज़ार करने लगी। कुछ ही दिनों बाद मम्मी को फिर से दर्द होने लगा, पापा और दादी मम्मी को अस्पताल लेकर गए। मुझे भी मम्मी के साथ जाना था, मगर चाचा और चाची ने मुझे रोक लिया, कहकर की हम बाद में साथ में जाएँगे। कुछ ही देर में पापा का फ़ोन आया, पापा ने चाचा को कुछ कहा, चाचा ने खुश होकर बधाइयाँ देनी शुरू कर दी। चाचा ने बात घर में सब को बताई की बेटा हुआ है, सब की ख़ुशी का ठिकाना ही ना रहा। चाचा ने मुझ से कहा कि " तुम्हारा छोटा सा भाई तुम्हारे साथ खेलने की लिए आ गया। तुम उसे देखने आओगी हमारे साथ ? " मैंने हस्ते हुए हां कहा।
चाचा-चाची, दादू और मैं हम सब साथ में अस्पताल माँ और भैया को देखने गए। अस्पताल जाते ही सब एक दूसरे को गले मिलकर बधाइयाँ देने लगे। मेरी तरफ तो कोई देख भी नहीं रहा था, सब भैया को देखकर उसकी तारीफ करने लगे। मम्मी के पास दादी खड़ी थी, तो मैंने दादी को कहा, मुझे भी भैया को देखना है, दादी ने मुझे तुरंत उठाकर भैया को दिखाया। वह सो रहा था, कितने छोटे छोटे नाज़ुक से उसके हाथ पाँव थे, कितना प्यारा और मासूम सा चेहरा था उसका, धीरे से उसने अपनी आँखें खोली और धीमी आवाज़ में रोने लगा। दादी ने तुरंत मुझे साइड पे कर दिया और भैया को चुप कराने में लग गई। मुझे बहुत भूख भी लगी थी, मगर मेरी तरफ किसी का ध्यान ही नहीं था, सब भैया को देखे जा रहे थे, मैं भी क्या करती, सब के बिच जाके मैं भी भैया को देखने लगी, मम्मी ने एकबार भी मेरी तरफ़ नहीं देखा, मुझे बहुत बुरा लगा, लेकिन मम्मी ने कुछ देर बाद मेरी तरफ़ देखा, तो मैं एक कोने में खड़ी थी, तो उसने मेरी ओर अपना हाथ फ़ैलाया, मैं भाग के मम्मी से गले लग गई और उसके करीब जाकर भैया को देखकर में भी खुश हो गई। जैसे भैया भी मेरी ओर देखकर हँस रहा था। दो दिन बाद मम्मी भैया को लेकर घर आ गई। मैं भी बहुत-बहुत खुश थी, कि मुझे भी भैया के साथ खेलने को मिलेगा।
मगर ऐसा कुछ भी नहीं हुआ, भैया पूरा दिन रोता रहता, मम्मी और चाची उसे चुप कराने में और दादी खाना बनाने में लगी रहती थी, मेरी तरफ़ तो कोई देखता ही नहीं था, सुबह को मुझे स्कूल भेज देते थे, स्कूल से आकर खाना खा कर मुझे सुला देते, फिर शाम को पढाई और बिच बिच में भैया को झूला झुलाना, उसके कपडे सुखाना, वो रोए तो उसे हँसाना, मम्मी की मदद कर देना, भैया के साथ खेलते-खेलते यह सब भी में करती। एक दिन सब का ध्यान मेरी ओर खींचने के लिए में जान बुझकर सीढ़ियों से फिसल गई, मम्मी मेरे पास दौड़ती हुई आई, तुझे चोट तो नहीं लगी, कह कर मुझे देखने लगी, तभी भैया फ़िर से रोने लगा, मम्मी फिर से मुझे वही छोड़ उसे सँभालने चली गई। मैं फिर से अकेली पड गई। मुझे कभी कभी भैया से जलन होने लगी। सब मेहमान भी आकर उसकी ही तारीफ करते रहते थे।
अब तो भैया भी बड़ा होने लगा। मम्मी और पापा मेरी हर चीज़ उसे देने लगे, मेरे मनपसंद खिलौने, मेरी मनपसंद खाने की प्लेट, चम्मच, गिलाश भी। मुझे अब स्कूल छोड़ने और स्कूल से लाने कोई नहीं आता था, ना मम्मी ना पापा। एक वैन में मुझे स्कूल में भेज देते थे, जिसमें मेरे जैसे दूसरे भी बच्चे थे, कभी किसी से लड़ाई हो जाती तो किसी से दोस्ती। भैया के आने के बाद मेरी चीज़ो के साथ, प्यार का भी बँटवारा हो गया। एक दिन मैंने चिढ़कर जान बूझकर भैया को धक्का मार कर गिरा दिया और वहांँ से भाग गई। भैया ने पापा को बता दिया, की " मैंने धक्का मारकर उसे गिरा दिया। " तो पापा ने फिर से मुझ को ज़ोर से दूसरी बार थप्पड़ मारा। जो मुझे आज भी याद है, अब मैं सबको बदमाश लगने लगी और भैया राजकुमार। मैंने सारी शैतानी बंद कर दी, सब कुछ देख के अपने अंदर दबाती रही। फ़िर एक दिन मैंने सोचा, कि " आज से मैं भी भैया से प्यार करुँगी, तो सब मुझे भी प्यार करने लगेंगे। "
अब मैं भैया से प्यार करने लगी और उसका ख्याल रखने लगी। सब मुझ से प्यार करने लगे। एक दिन गलती से भैया की assignment पे मुझ से मेरे कलर्स गिर गए, उसकी assignment कलर्स के गिरने से ख़राब हो गए और वह भैया को कल स्कूल में दिखाने थे। भैया मुझ से झगड़ने लगा, उतने में मम्मी और पापा भी आ गए, दोनों बिना कुछ जाने समझे मुझ पर चिल्लाने लगे, मैं कुछ ना उस वक़्त कुछ न कहा, बस रोते-रोते अपने कमरे में चली गई। मम्मी, पापा भैया को मनाने लगे मगर मेरे बारे में किसी ने कुछ नहीं सोचा। उस रात मैं बहुत रोई। उन दिनों मेरी बुआ कुछ दिन हमारे घर रहने आई थी। उन्होंने भी ये सब देखा। उस रात वह मेरे पास ही सोइ थी, मेरे चुपके से रोने की आवाज़ सुनकर उन्होंने मुझ से पूछा, कि " क्या बात है ? तुम रो क्यूँ रही हो ? "
तब मैंने अपनी बुआ को रोते हुए कहा, कि " भैया के आने से पहले तो घर में मुझ से सब बहुत प्यार करते थे और शायद अब भी करते है, मुझे भैया से कोई शिकायत नहीं, मैं भी भैया को बहुत प्यार करती हूँ, मगर भैया के आने के बाद सब ने मुझे अपने आप से दूर कर दिया। मम्मी और पापा दोनों का प्यार, दोनों की शाबाशी, नए खिलौने, नए कपड़े, नई किताबे, चॉकलेट्स, मेरी मनपसंद आइस-क्रीम, गिफ्ट्स, सब कुछ भैया के लिए, मेरे लिए कुछ भी नहीं ? अपने अंदर एक तूफ़ान लिए मैं सब देखती रहती, मगर शायद इस बात का घर में किसी को एहसास भी नहीं। सब को शायद इस बात से कोई फ़र्क ना पड़ता हो, मगर मुझे फ़र्क पड़ता है, मेरी बाते सुनने का सब के पास वक़्त नहीं होता, तब मुझे फ़र्क पड़ता है, मेरे किसी भी सवालो का जब मुझे कोई जवाब नहीं मिलता, तब मुझे फ़र्क पड़ता है, मेरे हिस्से का प्यार जब भैया को मिलता है, तब मुझे फ़र्क पड़ता है, मेरी मम्मी, मेरे पापा, मेरे खिलौने, मेरी किताबे, मेरा कमरा, मेरी चम्मच, मेरी वॉटर बैग, मेरा रुमाल, मम्मी का प्यार, पापा का प्यार, दादा-दादी का दुलार, चाचा-चाची से खेलना, सब कुछ भैया को मिलता है, मुझे नहीं, तब मुझे फ़र्क पड़ता है।" मेरे होने ना होने से, मेरे बोलने या ना बोलने से, मेरे प्यार करने या ना करने से, मेरी मर्ज़ी या ना मर्ज़ी से, मेरे इकरार या मेरे इनकार से, घर में सब को शायद कोई फ़र्क नहीं पड़ता, मगर मुझे फ़र्क पड़ता है, उनके होने या ना होने से, उनके बोलने या ना बोलने से, उनके प्यार करने या ना करने से, उनकी मर्ज़ी या ना मर्ज़ी से, उनके इकरार या इनकार करने से, मुझे फर्क पड़ता है। "
आज तक मैंने घर में किसी से कुछ नहीं माँगा, मेरा सब से सिर्फ़ एक ही सवाल है, कि " जैसे भैया के मम्मी-पापा, दादा-दादी, चाचा-चाची सब वही है और मेरे भी वही सब है, तो फ़िर भैया में और मुझ में इतना फ़र्क क्यों किया आप सब ने ? मेरी क्या गलती थी ? क्या मैं एक लड़की और वह एक लड़का है इसलिए ? " बस मुझे सिर्फ मेरे सवाल का जवाब चाहिए। "
मेरी बात सुनकर बुआ की आँखों में भी आँसू आ गए। उन्होंने मुझे गले लगा लिया और मुझ से कहा, " चुप हो जा बेटी, मैं तेरे मम्मी-पापा से इस बारे में ज़रूर बात करुँगी, वह ऐसे बिलकुल भी नहीं है, जैसा तू सोच रही है। आज के बाद तुझे भी अपने भैया जितना ही प्यार और हक़ मिलेगा। एक बात मेरी ध्यान से सुन ले, मम्मी और पापा के लिए अपने सारे बच्चे एक समान ही होते है, कोई बच्चा बड़ा या छोटा या कोई कम प्यारा या तो ज़्यादा प्यारा नहीं होता। शायद कुछ ग़लतफ़हमी हुई होगी।
दूसरे दिन मेरे स्कूल जाने के बाद बुआ ने मम्मी और पापा को सारी बातें कही, जो कल रात मैंने उनको कहा था, बुआ की बात सुनकर उनको भी अपनी गलती का एहसास हुआ, उन सब को इस बात का बिलकुल भी अंदाज़ा नहीं था, कि मैं उन के बारे में ऐसा कुछ सोचती या महसूस करती हूँ। मेरे स्कूल से घर लौटने पर सब ने अपनी गलती की माफ़ी मांँगी और मुझे गले लगा लिया। मैं भी उस दिन बहुत रोई। मेरे भैया ने भी मुझे गले लगा लिया। फिर हम सब हस्ते खेलते साथ रहने लगे। उसके बाद घर में किसी ने मुझ में या भैया में कोई फ़र्क ना किया, जितना प्यार और हक़ भैया को मिलता उतना ही प्यार और हक़ मुझे भी मिलता। मेरी बुआ को मैंने इस बात के लिए शुक्रिया कहा। अब मुझ को किसी से कोई शिकायत नहीं थी।
तो दोस्तों, हर माँ-बाप को भी ये ध्यान रखना चाहिए, कि " पहले तो बेटी और बेटे में कोई फ़र्क ना करे, जितना प्यार और हक़ बेटे का है उतना ही बेटी का भी होना चाहिए, बेटियांँ तो लक्ष्मी का रूप होती है। दूसरी बात ये, कि दूसरे बच्चे के आने से पहले बच्चे को आप नज़र अंदाज़ ना करे, वह भले छोटा हो मगर उसका भी दिल है, वह भी अच्छा, बुरा सोच और समझ सकता है। "
मेरा ये मानना है, कि " हम कब, किस के बारे में, क्या महसूस करते है, ये बताना बहुत ज़रूरी है, तभी सारी ग़लतफहमी दूर हो सकती है, वरना रिश्तों में प्यार के बदले नफ़रत रह जाती है, नज़दीकियाँ कम और दूरियाँ बढ़ने लगती है। एक बार अगर किसी के लिए मन में खट्टास रह जाती है, तब वह रिश्तें जुड़ने के बदले ओर टूटने लगते है और उन रिश्तों को फ़िर से जोड़ पाना बहुत ही मुश्किल हो जाता है।
Bela...
Chaahe kuch bhi ho,aisa us chhoti si Jaan ke saath nahi hona chaahie tha.Aaj aisa antar karna to kya sochana bhi HAASYAASPAD hai.
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